पिछले दिनों उत्तराखंड में धार्मिक एवं ऐतिहासिक स्थल जोशीमठ के धंसने और वहां के निवासियों के पलायन की खबर ने दुनिया भर को हिलाकर रख दिया था. पर्यावरण के प्रति पिछली सरकारों की संवेदनहीन रवैये की खूब भर्त्सना हुई थी. 50 साल पूर्व हुआ चिपको आंदोलन उसी की पूर्व चेतावनी थी, जिसने तत्कालीन इंदिरा सरकार की नींद और चैन छीन लिया था, इसके बावजूद ना केंद्र सरकार होश में आई और न ही राज्य सरकार. परिणाम वहां की जनता को आज भुगतना पड़ रहा है. अगर चिपको आंदोलन को गंभीरता से लिया जाता, इसके प्रति अनुशासनात्मक और कठोर कार्रवाई की जाती तो कम से कम जोशीमठ की इतनी दुर्गति नहीं होती. आइये जानते हैं, चिपको आंदोलन के संदर्भ में तमाम रोचक जानकारियां... यह भी पढ़ें : Chaiti Chhath Puja 2023 Wishes: चैती छठ पूजा की इन हिंदी WhatsApp Messages, Quotes, Facebook Greeting के जरिए दें शुभकामनाएं
ऐसे हुई चिपको आंदोलन की शुरुआत!
26 मार्च 1974, उत्तराखंड के चमोली जिले में करीब ढाई हजार पेड़ों की नीलामी के पश्चात ठेकेदार ने भारी तादाद में मजदूरों को पेड़ काटने के लिए रेणी गांव (चमोली) स्थित जंगल में भेजा, लेकिन वहां का नजारा देखकर मजदूरों और ठेकेदार ने जो देखा, उन्हें समझ में नहीं आया कि पेड़ों की कटाई कैसे शुरू किया जाये. दरअसल रेणी गांव की महिलाएं पांच-पांच के जत्थे के साथ हर वृक्ष का घेरा बनाकर चिपकी हुई थीं. उनका स्पष्ट नारा था, -पेड़ काटने से पहले मुझे काटो, हमारे जीते जी एक पेड़ नहीं काट सकते. उन दिनों सोशल मीडिया नहीं होने के बावजूद उनकी गूंजी दुनिया भर में सुनाई दी.
चिपको आंदोलन की वीरांगनाएं!
रैणी गांव से शुरू हुए चिपको आंदोलन की मुख्य नायिका थीं गौरा देवी. कहा जाता है कि जैसे ही उन्हें पता चला कि उनके गांव के इर्द-गिर्द के सारे वृक्ष काटने के लिए मजदूरों की फौज पहुंच रही है, उन्होंने अपने गांव की समस्त महिलाओं को इकट्ठा किया और देखते ही देखते कटने वाले सारे वृक्षों को अपने दायरे में समेट लिया. अंततः ठेकेदार एवं उसके मजदूरों को खाली हाथ वापस जाना पड़ा. यह आंदोलन काफी समय तक चला. अंततः इनका संघर्ष रंग लाया, और सारे के सारे वृक्ष फिलहाल कटने से बच गये.
उत्तर प्रदेश से संपूर्ण देश में फैला चिपको आंदोलन!
चिपको आंदोलन को बाद में भले ही चंडी प्रसाद और सुंदरलाल बहुगुणा जैसे समाजसेवियों का साथ मिला हो, लेकिन आंदोलन को मुखर करने में सबसे ज्यादा भूमिका महिलाओं की रही है, क्योंकि थोड़े ही दिनों में इस आंदोलन की लौ उत्तर प्रदेश (अब उत्तराखंड) से यह आंदोलन पश्चिम राजस्थान, बिहार, कर्नाटक, और मध्य भारत के विंध्य पर्वत तक पहुंच गई. आंदोलन को जिन महिलाओं की सहभागिता मिली उनमें प्रमुख थीं गौरा देवी (उत्तर प्रदेश), अमृता देवी (राजस्थान) मीरा बेन, सरला बेन, हिमा देवी, इतवारी देवी, छगन देवी, गंगा देवी, रीना देवी इत्यादि.
अंततः सरकार कुंभकर्णी नींद से जागी!
चिपको आंदोलन देखते ही देखते जंगल में आग की तरह फैल गई. इस आंदोलन की सबसे बड़ी सफलता यह थी कि इस आंदोलन ने केंद्रीय राजनीति के एजेंडे में पर्यावरण को सबसे अहम मुद्दा बना दिया, उसकी मुख्य वजह यह थी कि इस मुद्दे से पर्यावरण के साथ-साथ पर्यटन का बड़ा व्यवसाय भी प्रभावित हो रहा था. इस आंदोलन को सही मायने में बड़ी जीत तब हुई, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने उत्तर प्रदेश ही नहीं संपूर्ण हिमालय के वनों में 15 वर्षों तक के लिए वृक्षों की कटाई रोकने का आदेश दिया.
चिपको आंदोलन की वीरांगनाएं!
रैणी गांव से शुरू हुए चिपको आंदोलन की मुख्य नायिका थीं गौरा देवी. कहा जाता है कि जैसे ही उन्हें पता चला कि उनके गांव के इर्द-गिर्द के सारे वृक्ष काटने के लिए मजदूरों की फौज पहुंच रही है, उन्होंने अपने गांव की समस्त महिलाओं को इकट्ठा किया और देखते ही देखते कटने वाले सारे वृक्षों को अपने दायरे में समेट लिया. अंततः ठेकेदार एवं उसके मजदूरों को खाली हाथ वापस जाना पड़ा. यह आंदोलन काफी समय तक चला. अंततः इनका संघर्ष रंग लाया, और सारे के सारे वृक्ष फिलहाल कटने से बच गये.
उत्तर प्रदेश से संपूर्ण देश में फैला चिपको आंदोलन!
चिपको आंदोलन को बाद में भले ही चंडी प्रसाद और सुंदरलाल बहुगुणा जैसे समाजसेवियों का साथ मिला हो, लेकिन आंदोलन को मुखर करने में सबसे ज्यादा भूमिका महिलाओं की रही है, क्योंकि थोड़े ही दिनों में इस आंदोलन की लौ उत्तर प्रदेश (अब उत्तराखंड) से यह आंदोलन पश्चिम राजस्थान, बिहार, कर्नाटक, और मध्य भारत के विंध्य पर्वत तक पहुंच गई. आंदोलन को जिन महिलाओं की सहभागिता मिली उनमें प्रमुख थीं गौरा देवी (उत्तर प्रदेश), अमृता देवी (राजस्थान) मीरा बेन, सरला बेन, हिमा देवी, इतवारी देवी, छगन देवी, गंगा देवी, रीना देवी इत्यादि.
अंततः सरकार कुंभकर्णी नींद से जागी!
चिपको आंदोलन देखते ही देखते जंगल में आग की तरह फैल गई. इस आंदोलन की सबसे बड़ी सफलता यह थी कि इस आंदोलन ने केंद्रीय राजनीति के एजेंडे में पर्यावरण को सबसे अहम मुद्दा बना दिया, उसकी मुख्य वजह यह थी कि इस मुद्दे से पर्यावरण के साथ-साथ पर्यटन का बड़ा व्यवसाय भी प्रभावित हो रहा था. इस आंदोलन को सही मायने में बड़ी जीत तब हुई, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने उत्तर प्रदेश ही नहीं संपूर्ण हिमालय के वनों में 15 वर्षों तक के लिए वृक्षों की कटाई रोकने का आदेश दिया.