चांद पर अभियान भेजना अब भी उतना ही जोखिम भरा है, जितना 60 साल पहले था. बीते दिनों नासा के पैरग्रिन-1 मिशन को मिली नाकामी हमारे लिए एक चेतावनी है. इंसान को वापस चांद पर भेजने में हमें अभी कई साल लगेंगे.आज हमारे मोबाइल फोन में कंप्यूटिंग की जितनी ताकत है, उससे भी कम कंप्यूटिंग पावर के साथ अमेरिका ने 1969 में इंसान को चांद की जमीन पर उतारा. तो फिर अब इंसान को चांद पर फिर से लैंड कराने में इतनी मुश्किलें क्यों आ रही हैं?
क्या आपको ये तर्क सुना-सुना सा लग रहा है? हमने लोगों को ऐसा कहते सुना है. ये ऐसी घिसी-पिटी सी बात हो गई है, जिसमें थोड़ी सच्चाई तो है. ये ऐसा सवाल है, जिसका जवाब खोजे जाने की जरूरत है. भारत, रूस, अमेरिका, चीन, जापान, इस्राएल सभी में चांद पर पहुंचने की होड़ लगी है, कभी-कभी तो एक-दूसरे से एक हफ्ते के भीतर.
अमेरिका और चीन चांद पर इंसान भेजना चाहते हैं
चंद्रमा पर जाने के अभियानों का मकसद अलग-अलग है. हालांकि मानव को वापस चांद की जमीन पर उतारना मुख्य लक्ष्य है. यह काम आज भी उतना ही मुश्किल है, जितना 1969 से 1972 के बीच था, जिस दौरान नासा ने इंसान को चांद पर लैंड कराने में छह बार कामयाबी पाई थी. अपोलो-13 अभियान लैंडिंग में नाकाम रहा था.
जनवरी 2024 की शुरुआत में नासा ने एस्ट्रोबोटिक नाम की एक कंपनी के साथ मिलकर रोबोटिक उपकरणों को वापस चांद पर भेजने की दिशा में पहला कदम उठाया, लेकिन इसमें नाकामयाबी मिली. बताया गया है कि उनके पैरग्रिन-1 अंतरिक्षयान के "चांद पर सॉफ्ट लैंडिंग की कोई संभावना नहीं है." इसका मतलब कि अगर लैंडिंग हुई भी, तो यह क्रैश हो जाएगा.
लॉन्च होने और वुल्कन रॉकेट से अलग होने के बाद जल्द ही पैरग्रिन-1 का प्रोपल्शन सिस्टम फेल हो गया. इसके कारण अंतरिक्षयान बाहर से क्षतिग्रस्त हुआ और काफी ईंधन बर्बाद चला गया. पैरग्रिन-1, नासा के आर्टेमिस कार्यक्रम का हिस्सा था. यह 2025 में चांद पर मानव मिशन भेजने की तैयारी में एक जरूरी कदम था. नासा के मुताबिक, अब यह योजना कम-से-कम एक साल आगे खिसक गई है.
इस असफलता से पहले स्पेसएक्स के स्टारशिप रॉकेट की टेस्ट लॉन्चिंग भी नाकाम रही थी. ऐसे में मुमकिन है कि आगे और भी देरी हो. नासा पर अब भी सबसे पहले यह लक्ष्य हासिल करने का दबाव है क्योंकि चीन भी 2030 में चंद्रमा पर अपना मानव अभियान भेजने की तैयारी कर रहा है.
चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर लैंडिंग
कुछ और देश भी दक्षिणी ध्रुव जैसी चंद्रमा की मुश्किल जगहों पर उतरने का परीक्षण कर रहे हैं. अमेरिका और शीत युद्ध के दौरान रूस द्वारा की गई ज्यादातर लैंडिंग्स केंद्रीय हिस्से में हुई थी, जिसे चंद्रमा का अपेक्षाकृत आसान हिस्सा माना जाता है. पैरग्रिन-1 भी "बे ऑफ स्टिकिनेस" के आसपास इसी इलाके में उतरने वाला था.
लेकिन अगस्त 2023 में भारत के चंद्रयान-3 ने चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर उतरने में सफलता पाई. भारत, चांद पर सफलतापूर्वक लैंड करने वाले केवल चार देशों में एक है. इससे पहले कोई भी देश साउथ पोल पर नहीं उतरा था. चंद्रमा के इस हिस्से में वॉटर आइस समेत कई कीमती संसाधन हैं. ऐसे में भारत ने बड़ी उपलब्धि हासिल की. इसके कुछ ही दिन पहले रूस का लूना-25 साउथ पोल पर पहुंचने की कोशिश करते हुए क्रैश हो गया था. रूस का यह अंतरिक्षयान बोगसलॉस्की क्रैटर में उतरना चाहता था.
माना जाता है कि चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर वॉटर आइस के अंश हैं. साथ ही यहां इंसानों के चांद पर रहने, जीने, काम करने और वापस पृथ्वी पर लौटने के लिए जरूरी अन्य संसाधन भी उपलब्ध होने का अनुमान है. ऐसे में इस इलाके की विस्तृत पड़ताल काफी अहमियत रखती है.
2014 में शोधकर्ताओं ने बोगसलॉस्की क्रैटर में उतरने की सुरक्षित जगहों पर एक सेफ्टी स्टडी की. उन्होंने पाया कि यहां 5 से 10 डिग्री की ढलान है. इससे ज्यादा खतरनाक, करीब 45 डिग्री की ढलान वाली जगहें भी हैं. इसके अलावा लगभग चार वर्ग किलोमीटर के इलाके में 0.5 मीटर से 13 मीटर तक के आकार के 16,000 से ज्यादा चट्टानें भी हैं.
यानी लूना-25 अभियान से लगभग 10 साल पहले ही इस जगह के बारे में अच्छी-खासी ब्योरेवार जानकारी मिल गई थी. लेकिन अभियान के नाकाम होने के बाद रूसी अंतरिक्ष एजेंसी रोसकॉस्मॉस ने बताया कि उनका अंतरिक्षयान "चांद की सतह से टकराने के कारण खत्म हो गया."
चांद पर खतरे: गड्ढे और चट्टान
चांद पर कितने गड्ढे हैं? साल 2020 का एक अध्ययन अब तक ज्ञात गड्ढों की संख्या 140,00 के करीब बताता है. इनकी चौड़ाई एक किलोमीटर से आठ किलोमीटर के बीच है. कई सैकड़ों किलोमीटर के व्यास वाले गड्ढे भी हैं, जो बेहद खड़ी ढाल वाले हैं. इसके अलावा काफी चट्टान भी हैं.
मार्कुस लांडग्राफ, नीदरलैंड्स स्थित यूरोपियन स्पेस रिसर्च और टेक्नॉलजी सेंटर में सीनियर सिस्टम आर्किटेक्ट हैं. वह मून फीचर से जुड़े अध्ययन करने वाले दल के प्रमुख भी हैं. लांडग्राफ बताते हैं, "चांद पर उतरना अब भी मुश्किल है. इसके लिए चांद के पर्यावरण का गहरा अनुभव चाहिए." अब चांद के बेहतर मानचित्र उपलब्ध हैं, लेकिन कोई भी चीज चांद पर जाने का मुकाबला नहीं कर सकती. अगर सुरक्षित तरीके से लैंड करने का इरादा हो, तो गड्ढों और चट्टानों जैसे खतरों की समीक्षा जरूरी है. ताकि अंतरिक्षयान सुरक्षित रहे, रूस के लूना-25 की तरह क्रैश ना कर जाए.
कुछ भी हल्के में नहीं ले सकते
रॉकेट साइंस से जुड़ी हमारी इंजीनियरिंग और तकनीकी क्षमता पिछले 50 साल में काफी बढ़ी है. शीत युद्ध के समय अंतरिक्ष के लिए मची होड़ के दौरान 1969 में नील आर्मस्ट्रॉन्ग और बज आर्ल्ड्रिन के चांद पर पांव रखने वाले शुरुआती इंसान बने. हम उस दौर से काफी आगे बढ़े हैं. अब हमारे पास अंतरिक्ष के नए खिलाड़ी हैं. अंतरिक्ष में पहुंचने वाले देशों की संख्या बढ़ी है, जैसे चंद्रयान अभियानों और नियमित तौर पर उपग्रह भेजने वाला भारत. संयुक्त अरब अमीरात मंगल ग्रह पर पहुंचने की तैयारी कर रहा है. चीन तो चंद्रमा के "फार साइड" सुदूर हिस्से पर भी उतर गया है.
हालांकि हर कहीं एक जैसी तकनीकी तरक्की नहीं दिखती, जबकि हमारे पास अब सस्टेनेबल रॉकेट भी आ गए हैं. लांडग्राफ बताते हैं, "अपोलो के वक्त के मुताबले आज नेविगेशन तकनीक बहुक विकसित है. अंतरिक्षयान पर लगे सेंसर जगह और रफ्तार की ज्यादा सटीक गणना करते हैं. ऑन-बोर्ड कंप्यूटर ज्यादा तेज हैं. विकसित इंटरफेस, ग्राउंड की जानकारी बढ़ाते हैं."
हालांकि अंतरिक्ष में उड़ान का संबंध केवल कंप्यूटिंग पावर से नहीं है. लांडग्राफ कहते हैं, "1960 के दौर की तुलना में रॉकेट इंजन तकनीक विकसित हुई है, खासतौर पर प्रदर्शन के मामले में. इसकी वजह हैं बेहतर सामान और हाइड्रोडाइनेमिक्स और कंबश्चन प्रक्रिया की बेहतर समझ. लेकिन भले ही 50 साल पहले के मुकाबले कंप्यूटर कई गुना ज्यादा तेज हो गए हों, लेकिन रॉकेट इंजनोंव की क्षमता में बस 10 से 20 फीसदी का ही सुधार हुआ है."
मून रॉकेट: जोखिम की बेहतर समझ
हमारी तकनीक उन्नत हुई है. साथ ही, जोखिम को लेकर भी हमारी समझ ज्यादा दुरुस्त हुई है. खासतौर पर रॉकेट साइंस के मामले में. स्कॉटलैंड की स्टार्थक्लाइड यूनिवर्सिटी में स्पेसक्राफ्ट इंजीनियरिंग के प्रोफेसर माल्कम मैकडॉनल्ड बताते हैं, "60 और 70 के दशक में हमें पता ही नहीं था कि हम क्या जोखिम उठा रहे हैं. आज हमें इसकी बेहतर समझ है. लेकिन इससे उबरने के लिए हम समाधान को जटिल बना देते हैं. जटिलता के कारण गलती का पकड़ में ना आना आसान हो जाता है और दिक्कतों की आशंका बढ़ जाती है."
यही वजह है कि इंसानों को रॉकेट में बिठाकर रवाना करने से पहले हम उन रॉकेटों की जांच करते हैं. हमने हादसों से सीख ली है, जैसे कि साल 1967 में नासा के अपोलो-1 मून मिशन के कैबिन में आग लग गई थी. मैकडॉनल्ड कहते हैं, "आधुनिक अंतरिक्षयान ज्यादा जटिल होते हैं. इसके कारण उनके विकास और परीक्षण की लागत बढ़ जाती. साथ ही, किसी पक्ष की अनदेखी का जोखिम भी बढ़ता है."
फिर से चांद पर निगाहें जमी हैं
करीब आधी सदी तक सुस्ती पसरे रहने के बाद हम ना केवल नए चंद्रमा अभियानों की शृंखला देख रहे हैं, बल्कि नाकामियों का भी सिलसिला बन रहा है. 2019 में इस्राएल ने चंद्रमा पर अपनी पहली लैंडिंग की कोशिश की और नाकाम रहा. इसी साल भारत के चंद्रयान-2 ने चांद पर पहुंचने और वहां दक्षिणी ध्रुव पर अपना विक्रम लैंडर उतारने की कोशिश की, लेकिन असफल रहा. फिर अप्रैल 2023 में जापान का हाकुतो-आर भी लैंड नहीं हो सका. उसका ईंधन खत्म हो गया था.
मैकडॉनल्ड कहते हैं, "हाकुतो-आर और चंद्रयान-2, दोनों की नाकामियों के पीछे समुचित परीक्षण की कमी थी, जो कि शायद लागत घटाने की कोशिश के कारण हुआ."
लेकिन असफलताओं के कारण कोई हार नहीं मान रहा है. चांद के दक्षिणी ध्रुव पर उतरने में भारत को मिली कामयाबी बेशक औरों को भी अपनी तैयारी ज्यादा चाक-चौबंद करने की प्रेरणा देगी.