कोरोना वायरस शरीर में नाक और मुंह से प्रवेश करता है, उसके बाद कई दिन तक गले में ही रहता है और यहां यह बढ़ने लगता है. उस वक्त लोगों को थोड़ी खांसी, नजला, हल्का बदन दर्द, जैसी सामान्य लक्षण या डायरिया जैसे लक्षण आते हैं. अगर यहां कंट्रोल नहीं हुआ तो वायरस फेफड़े में पहुंच जाता है. फेफड़े में जाने पर कोशिकाओं को प्रभावित करता है और निमोनिया में बदल जाता है. वहीं से हमारे शरीर में ऑक्सीजन को प्रभावित करने लगता है. उस स्थिति में शरीर में ऑक्सीजन सेचुरेशन होता है.
आकाशवाणी से बातचीत में राम मनोहर लोहिया अस्पताल के चिकित्सक डॉ. ए के वार्ष्णेय के अनुसार कोविड मरीज में जब ऑक्सीजन सेचुरेशन होता है तब शरीर के अंदर सभी हिस्सों तक ऑक्सीजन नहीं जा पाती है, जिससे सांस लेने में परेशानी होने लगती है, क्योंकि पूरे शरीर में ऑक्सीजन का संचार नहीं हो पाता है. जिसके बाद व्यक्ति में कई गंभीर लक्षण भी आने लगते हैं. अगर ब्रेन में ऑक्सीजन नहीं पहुंचती तो उन्हें ब्रेन से संबंधित परेशानी होती है. ऐसे में मरीज को ऑक्सीजन दी जाती है या वेंटिलेटर पर रखते हैं.
वायरस की जांच के लिए गले और नाक से क्यों लेते हैं सैंपल:
डॉ. वार्ष्णेय ने टेस्ट को लेकर भी कई अहम जानकारी दी. उन्होंने बताया कि वायरस ज्यादातर नाक और गले से शरीर में पहुंचता है इसलिए नाक से सैंपल लेते हैं. इससे 95 प्रतिशत तक सही जांच आती है. हालांकि ये डॉक्टर के सैंपल लेने के तरीके पर भी निर्भर करता है. गले से लिए जाने वाले सैम्पल की 50 प्रतिशत तक सटीकता होती है. इसलिए अगर एक सैंपल लेना होता है तो नाक से लेते हैं. और अगर दो सैंपल लेने हैं तो नाक और गले दोनों से लेते हैं. इससे आरटीपीसीआर टेस्ट (RT-PCR Test) करते हैं. ब्लड तब लिया जाता है, जब एंटीबॉडी का टेस्ट करना होता है. वो एंटीबॉडी जो वायरस से लड़ते हैं. यह टेस्ट संक्रमण के एक से दो हफ्ते बाद ही करते हैं.
क्या है आईसीएमआर द्वारा प्रमाणित एंटीबॉडी किट:
वहीं आईसीएमआर द्वारा प्रमाणित किट के बारे में डॉ. वार्ष्णेय ने बताया कि किसी को संक्रमण होने के एक से दो सप्ताह बाद शरीर में एंटीबॉडी बनने लगते हैं, जो वायरस से लड़ते हैं. आईसीएमआर ने जिस एंटीबॉडी किट को अप्रूव किया है, वो किट यह बताती है कि आपको पहले इंफेक्शन हुआ कि नहीं. या जो एसिम्पटोमेटिक हैं उनके लिए इस किट का प्रयोग किया जाएगा. एक तरह से सर्विलांस के लिए है, जिसमें रैंडम टेस्ट करेंगे. यह देखने के लिए कि एसिम्पटोमेटिक के संपर्क में आये लोग संक्रमण तो नहीं हुए. या फिर स्वास्थ्यकर्मियों में टेस्ट किया जाएगा कि कहीं उनको साइलेंट इंफेक्शन तो नहीं.