हिंदू पंचांग के अनुसार फाल्गुन मास शुक्लपक्ष पूर्णिमा को होलिका-दहन एवं अगले दिन होली मनाई जाती है. होलिका-दहन जहां बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक माना जाता है, वहीं होली प्रेम, भाईचारा और सद्भावना के रूप में मनाया जाता है. यूं तो इसकी शुरुआत द्वापर युग में भगवान श्रीकृष्ण एवं राधारानी की मस्ती और छेड़छाड़ से हुई थी, लेकिन इसके अलावा भी होलिका-दहन एवं होली के संदर्भ में तमाम किंवदंतियां मशहूर हैं. यहां हम राधा-कृष्ण की होली अथवा प्रहलाद-होलिका से अलग कुछ ऐसी कथाओं की बात करेंगे, जिसके बारे में हमें पता होना चाहिए.
आर्यों का होलाका:
प्राचीन काल में होली को होलाका के नाम से जाना जाता था और इस दिन आर्य नवात्रैष्टि यज्ञ करते थे। इस पर्व में होलका नामक अन्य से हवन करने के बाद उसका प्रसाद लेने की परंपरा रही है। होलका अर्थात खेत में पड़ा हुआ वह अन्न जो आधा कच्चा और आधा पका हुआ होता है। संभवत: इसलिए इसका नाम होलिका उत्सव रखा गया होगा। प्राचीन काल से ही नई फसल का कुछ भाग पहले देवताओं को अर्पित किया जाता रहा है। इस तथ्य से यह पता चलता है कि यह त्योहार वैदिक काल से ही मनाया जाता रहा है। सिंधु घाटी की सभ्यता के अवशेषों में भी होली और दिवाली मनाए जाने के सबूत मिलते हैं। यह भी पढ़ें : Dol Purnima 2023 Messages: डोल पूर्णिमा पर ये हिंदी WhatsApp Wishes, Quotes, GIF Greetings की हार्दिक बधाई करें शेयर
धुंधी की किंवदंती
राजा रघु के राज्य में एक राक्षसी थी, जिसके बारे में बताया जाता है कि वह बच्चों को खा जाती थी. कुछ लड़कों के एक समूह द्वारा अग्नि के चारों ओर परिक्रमा करते हुए शोर मचा कर उसे भगाने की कोशिश की जाती है. वे परिक्रमा के साथ-साथ मंत्रों का जाप भी कर रहे थे. इस कथा से होलिका दहन का चित्र आंखों के सामने आता है. इसे एक प्रथा के स्वरूप में देखा जा सकता है. मान्यता है कि ऐसा करके नकारात्मक ऊर्जा को दूर करने की कोशिश की जाती है.
प्राचीन हिंदू शिलालेखों में होली
प्रारंभिक वेद एवं पुराणों मसलन ‘नारद पुराण’ और ‘भविष्य पुराण’ में भी होली का विस्तृत वर्णन किया गया है. पुरातत्वविदों के अनुसार रामगढ़ में 300 ईसा पूर्व की एक खुदाई में एक पत्थर मिला, जिस पर ‘होलीकोत्सव’ का अर्थात होली का उत्सव खुदा है. यह इस बात का संकेत है कि होली की उत्पत्ति ईसा के जन्म से पहले ही हो गई थी. इसमें प्राचीन संदर्भों में राजा हर्ष की ‘रत्नावली’ शामिल हैं, जिसमें होलिकोत्सव का जिक्र है.
श्रीमद्भागवत से कुमार संभव तक में होली
प्राचीन काल के संस्कृत साहित्य में होली के विभिन्न स्वरूपों का वर्णन मिलता है. अगर हम श्रीमद्भागवत महापुराण की बात करें तो इसमें होली को रसों का समूहरास भी बताया गया है. इसके अलावा रत्नावली और हर्ष की प्रियदर्शिका तथा कालिदास की कुमारसंभवम् में ‘रंग उत्सव’ का वर्णन है. कालिदास ने ऋतुसंहार में ‘वसन्तोत्सव‘ का विशेष उल्लेख किया है. माघ और भारवि जैसे कई संस्कृत कवियों ने भी होली को ‘वसन्तोत्सव‘ के रूप में वर्णन किया है. चंद बरदाई के पहले महाकाव्य पृथ्वीराज रासो में भी होली का विशेष वर्णन मिलता है. इसके अलावा और भी कई साहित्यकारों और कवियों ने अपनी रचनाओं में होली और फाल्गुन माह का वर्णन किया है.
भित्तिचित्रों में होली
ब्रज एवं मथुरा की होली के अलावा भी होली के कुछ चित्र एवं प्रतिमाएं भारत के विभिन्न मंदिरों में अंकित हैं. अहमदनगर स्थित एक मंदिर में 16 वीं शताब्दी की कुछ भित्त चित्र वसंत रागिनी. वसंत गीत एवं संगीत पर आधारित है. इसके अलावा 17वीं शताब्दी की एक कलाकृति में महाराणा प्रताप को अपने दरबारियों के साथ चित्रित किया गया है, इसमें महाराजा कुछ विशिष्ठ अतिथियों को उपहार प्रदान कर रहे हैं, और नृत्यांगनाएं नृत्य कर रही हैं. इनके बीच एक रंग भरा कुंड भी दर्शाया गया है. इसके अलावा बूंदी से मिले एक लघु चित्र में राजा को हाथी दांत के सिंहासन पर आसीन दिखाया गया है, जिसमें महिलाएं राजा के गालों पर गुलाल लगा रही हैं.