देश में महिला शिक्षा की अलख जगाने वाली सावित्रीबाई एक ऐसे घर में पैदा (3 जनवरी 1831) हुई थीं, जहां स्वयं उनके पिता खंदोसी नैवेसे ने उनकी पुस्तक छीनकर फेंक दी थी. उनका कहना था कि शिक्षा अर्जित करने का अधिकार केवल उच्च वर्ग के लोगों तक है. इसके बाद 13 साल की उम्र में जब सावित्रीबाई का विवाह ज्योति राव फुले से हो गया. ज्योतिराव ने पत्नी सावित्रीबाई फुले के मन में शिक्षा के प्रति रुझान को देखते हुए उनके लिए न केवल शिक्षा अर्जन की व्यवस्था की, बल्कि पत्नी के सपने को साकार करने के इरादे से उन्होंने आम महिलाओं के लिए स्कूल और कॉलेज भी खोले. यहां हम सावित्रीबाई फुले की 192 वीं जयंती के अवसर पर उनके जीवन से जुड़े कुछ रोचक एवं प्रेरक प्रसंगों का जिक्र करेंगे.
सावित्रीबाई की प्रारंभिक शिक्षा की शुरुआत
शादी से पूर्व सावित्रीबाई के पास कोई औपचारिक शिक्षा नहीं थी. शादी के बाद भी सावित्रीबाई के ससुराल के लोग उनकी शिक्षा के पक्ष में नहीं थे, तब ज्योतिराव ने सावित्रीबाई की इच्छा पर अपनी चचेरी बहन सगुणाबाई क्षीरसागर के साथ सावित्रीबाई फुले को उनके निवास स्थान पर पढ़ाया. इसके पश्चात सावित्रीबाई ने अहमदाबाद स्थित सिंथिया फर्रार द्वारा संचालित संस्थान और पूना (पुणे) के एक स्कूल में सामान्य शिक्षा अर्जित की. यह भी पढ़ें : Bharat Ratna Awards 2024: कब शुरू हुआ प्रतिष्ठित राष्ट्रीय अवार्ड ‘भारत रत्न’! जानें कैसे होता है चुनाव और क्या मिलता है विजेताओं को?
सावित्रीबाई फुले के प्रेरणा स्त्रोत
अपनी प्रारंभिक शिक्षा एवं प्रशिक्षण प्राप्त करने के पश्चात सावित्रीबाई फुले ने पूना में लड़कियों को शिक्षा के लिए आवश्यक निर्देश देने का कार्य शुरू किया. इसके पश्चात सगुणाबाई क्षीरसागर और ज्योतिराव फुले के सहयोग से सावित्रीबाई फुले ने भिडे-वाडा (पूना) में अपना पहला स्कूल खोला, जिसमें गणित, विज्ञान और सामाजिक अध्ययन पाठ्यक्रम शामिल किया गया. कहा जाता है कि इस स्कूल को खोलने में भिड़े वाड़ा के तात्यासाहेब भिड़े का विशेष सहयोग प्राप्त हुआ था.
इस तरह शुरु हुई सावित्रीबाई फुले के स्कूलों की श्रृंखला
भिड़े वाड़ा में पहला शिक्षण संस्थान शुरू करने के बाद सावित्रीबाई और ज्योतिराव फुले ने 1851 के अंत तक पुणे में तीन अलग-अलग महिला स्कूलों के प्रभारी थे. इन तीन संस्थानों में करीब 150 छात्र नामांकित थे. इन स्कूलों में सरकारी स्कूलों में उपयोग की जाने वाली अलग-अलग शिक्षण रणनीतियों का उपयोग किया, जैसा कि पाठ्यक्रम में किया गया था. कहा जाता है कि इसके पश्चात पब्लिक स्कूलों में लड़कों की संख्या की तुलना में लड़कियों ने ज्यादा संख्या में भाग लिया. हालांकि ज्योतिबा फुले के इस प्रयास के लिए उन्हें पुरुष समाज द्वारा शारीरिक और मानसिक रूप से काफी प्रताड़ित किया गया.
शिक्षा से इतर साहित्य एवं समाज सेवा
सावित्रीबाई फुले ने स्त्री शिक्षा के साथ साहित्य में भी काफी रुचि दिखाई. उनके लिए कई कविता संग्रह और गद्य लोगों द्वारा पसंद किये गये. वे गद्य और पद्य के माध्यम से भी स्त्रियों में शिक्षा का अलख जगाती थीं. उन्होंने 1854 में काव्या फुले और 1892 में बावन काशी सुबोध रत्नाकर को प्रकाशित किया. इसके अलावा महिला उत्पीड़न, लिंगभेद, जातिवाद समस्या, सती प्रथा विरोध, शिशु-हत्या एवं विधवा विवाह जैसे ज्वलंत मुद्दों पर भी काफी कार्य किया.
अंततः 1897 में नालासोपारा में प्यूबिक प्लेग की महामारी में जनसेवा करते हुए सावित्रीबाई फुले भी प्लेग का शिकार हुईं. अंततः 10 मार्च 1897 में सावित्रीबाई फुले का निधन हो गया.