काशी को घाटों का शहर भी कहा जाता है. क्योंकि ये घाट ही काशी (Kashi) की असली पहचान हैं. गंगा किनारे स्थित ये सभी 88 घाट आज ‘देव दिवाली’ मनाने के लिए तैयार हो चुके हैं. किंवदंतियां हैं कि 'देव दिवाली' मनाने इस दिन सारे देवता काशी के इन घाटों पर उतरते हैं. कार्तिक पूर्णिमा के दिन मनाई जानेवाली ‘देव दिवाली’ की छटा किसी स्वर्गिक आनंद से कम नहीं. मगर जेहन में एक सवाल घुमड़ना स्वाभाविक है कि देश में और भी कई पवित्र देवस्थल होने के बावजूद ‘देव दिवाली’ का पर्व काशी में ही क्यों मनाया जाता है, आइये जानते हैं
हिंदू पंचांग एवं विभिन्न पुराणों के अनुसार कार्तिक का महीना बहुत शुभ और फलदायी होता है. इस पूरे माह गंगा स्नान, देव पूजा एवं दान पुण्य, का विशेष महत्व होता है. कार्तिक मास के शरद पूर्णिमा से कार्तिक पूर्णिमा तक के पर्वों के अंतिम पर्व के रूप में कार्तिक पूर्णिमा के दिन देव दिवाली मनाई जाती है. दीपावली के पंद्रहवें दिन मनाई जाने वाली देव दिवाली इस बार 12 नवंबर को मनायी जाएगी. देव दिवाली का यह प्राचीनतम पर्व काशी के गंगा घाटों पर बड़े दिव्य एवं भव्य स्वरूप में मनाया जाता है.
गंगा जी में टिमटिमाते दीयों को देखकर ऐसा लगता है कि माँ गंगा का जलते हुए दीपों से श्रृंगार किया गया है. काशी यानी वाराणसी में देव दिवाली मनाने की कई वजहें पुराणों एवं मान्यताओं में वर्णित हैं.
* काशी शिव की प्रिय नगरी होने के कारण देवों के लिए पृथ्वी पर इससे पवित्र जगह और कोई नहीं है. पौराणिक कथ्यों के अनुसार कार्तिक मास की पूर्णिमा से पूर्व देवउठनी एकादशी के दिन जब भगवान विष्णु योग निद्रा से बाहर आते हैं, तो ऋषि-मुनियों एवं देवतागणों में खुशी की लहर दौड़ जाती है. इसी खुशी को मनाने के लिए वे स्वर्ग से काशी में उतरकर गंगा के घाटों पर दीप प्रज्जवलित कर दीपोत्सवी मनाते हैं, इसे ही देव दिवाली कहते हैं.
* एक अन्य मान्यता के अनुसार एकबार त्रिपुरासुर नामक राक्षस ने तीनों लोकों में भय और आतंक मचा रखा था, उसकी यातनाओं से पीड़ित होकर देवताओं ने भगवान शिव का स्मरण किया. तब भगवान शिव ने काशी पहुंच कर त्रिपुरासुर को युद्ध के लिए ललकारा. भगवान शिव और त्रिपुरासुर के बीच लंबे समय तक युद्ध चलने के बाद अंततः शिव जी ने अपने त्रिशूल से त्रिपुरासुर का संहार कर पृथ्वी वासियों के साथ सभी देवतागणों को उसके अत्याचारों से मुक्ति दिलाई. त्रिपुरासुर की मृत्यु के पश्चात देवताओं ने भगवान शिव की स्तुति करते हुए गंगाघाट पर दीप प्रज्जवलित कर खुशियां मनायी, इसके बाद से ही काशी के गंगाघाट पर देव दीवाली कि प्रथा चली आ रही है.
* कहा जाता है कि देव दिवाली के दिन भगवान विष्णु चातुर्मास के बाद कार्तिक मास की एकादशी को जागृति अवस्था मे आते हैं और भगवान शिव चतुर्दशी को. इस अवसर पर खुशियां मनाने के लिए सभी देव स्वर्गलोक से काशी पर अवतरित होकर गंगा घाट पर दीप प्रज्जवलित करते हैं.
* जहां तक ऐतिहासिक तथ्यों की बात है करें तो तथ्य बताते हैं कि करीब 104 साल पूर्व सन 1915 में कार्तिक पूर्णिमा के दिन पहली बार बनारस के पंचगंगा घाट को हजारों की संख्या में जलते दीपों से सजाया गया था. क्यों सजाया गया था, इसका प्रमाण उपलब्ध नहीं है. इसके बाद क्रमशः दीपों का यह पर्व पंचगंगा घाट के आसपास के दूसरे घाटों को भी अपने आगोश में लेते हुए गंगा किनारे सभी 88 घाटों तक फैल गया. देव दिवाली की यह परंपरा पिछले 104 सालों से निर्विरोध चली आ रही है.
* ऐसा भी कहा जाता है कि लगभग साढे तीन दशक पूर्व नारायण गुरू नामक एक सामाजिक कार्यकर्ता ने काशी के युवाओं को एकत्रित कर गंगा घाट पर सैकड़ों की संख्या में दीप जलाया था. माना जाता है कि काशी के घाटों पर सैकड़ों सालों पूर्व मनाई जाने वाली देव दिवाली किन्हीं कारणों से रोक दी गई थी, इसी पर्व को पुन शुरू करने के इरादे से युवकों ने काशी के गंगा घाट पर दीप प्रज्जवलित किया था.
* एक मान्यता यह भी है कि आजादी की लड़ाई में शहीद हुए लोगों को कार्तिक पूर्णिमा के दिन ये दीप समर्पित किये गये. वही परंपरा विकसित होती हुई आज भव्य रूप ले चुकी है.