कार्तिक कृष्णपक्ष की द्वादशी को ‘गोवत्स द्वादशी’ के नाम से भी जाना जाता है. इसे ‘बछ बारस का पर्व’ भी कहते हैं, जबकि गुजरात में इसे ‘वाघ बरस’ कहते हैं. इस दिन गौ माता और बछड़े की पूजा की जाती है. यहां ध्यान देने की बात यह है कि यह पूजा गोधुली बेला में होती है. सनातन धर्म की मान्यतानुसार गोवत्स का पर्व साल में चार बार ( कार्तिक, माघ, वैशाख और श्रावण मास के कृष्णपक्ष की द्वादशी) को किया जाता है. अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार इस वर्ष यह व्रत 25 अक्टूबर के दिन पड़ रहा है.
इस दिन पूरे समय महिलाएं व्रत रखती हैं, और शाम के समय गाय एवं बछड़े का पूजन करने के बाद पारण करती हैं. मान्यता है कि इस व्रत करने से संतान को दीर्घायु एवं अच्छी सेहत प्राप्त होती है, जिन महिलाओं की संतान नहीं होती, मान्यता है कि गोवत्स व्रत करने से उन्हें पुत्र- रत्न की प्राप्ति होती है.
गोवत्स का महात्म्य:
गोवत्स द्वादशी के संदर्भ में तमाम पौराणिक ग्रंथों में अंकित कथाओं के अनुसार एक बार राजा उत्तानपाद ने पृथ्वी पर इस व्रत को आरंभ किया. उनकी पत्नी सुनीति ने इस व्रत को किया. इस व्रत के प्रभाव से उन्हें बालक ध्रुव की प्राप्ति हुई. अत: निसंतान दम्पतियों को यह व्रत अवश्य करना चाहिए. संतान सुख की कामना रखने वालों के लिए यह व्रत शुभ फल दायक होता है. गोवत्स द्वादशी के दिन किए जाने वाले कर्मों में सात्त्विक गुणों का होना अनिवार्य है. इस दिन गायमाता के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने हेतु गौका पूजन किया जाता है. गौ पूजन करने वाले भक्त श्री विष्णु का आशीर्वाद प्राप्त होता है.
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गाय में निहित है समस्त देवी देवता:
मान्यता है कि सभी देवी-देवताओं एवं पितरों को अगर एक साथ प्रसन्न करना है तो इसके लिए गौभक्ति अथवा गौसेवा से बढ़कर कोई अनुष्ठान नहीं हो सकता. ज्योतिषियों के अनुसार गौ माता को मात्र थोड़ी सी हरी घास खिला दिया जाये तो वह सभी देवी-देवताओं तक खुद-ब-खुद पहुंच जाता है.
भविष्य पुराण में गाय के महात्म्य के संदर्भ में उल्लेखित है कि गौमाता की पिछले हिस्से में ब्रह्म का वास होता है. गले में विष्णु का, मुख में रुद्र का, मध्य में समस्त देवताओं और रोमकूपों में महर्षिगण, पूंछ में अनंत नाग, खुरों में समस्त पर्वत, गौमूत्र में गंगादि नदियां, गौमय में लक्ष्मी और नेत्रों में सूर्य-चन्द्र विराजित होते हैं. ‘बछ बारस’ या ‘गोवत्स द्वादशी’ के दिन माएं अपने बेटे की सुरक्षा, अच्छी सेहत, लंबी उम्र और परिवार की खुशहाली के लिए यह पर्व मनाती है. इस दिन घरों में बाजरे की रोटी जिसे सोगरा भी कहते हैं के साथ और अंकुरित अनाज की सब्जी बनाई जाती है. इस दिन गाय के दूध का इस्तेमाल नहीं करते. उसकी जगह भैंस या बकरी के दूध का प्रयोग किया जाता है. इस दिन का पूरा दूध गाय अपने बछड़े को पिलाती है.
व्रत एवं पूजा का विधान:
कार्तिक कृष्णपक्ष की द्वादशी की सुबह स्नान आदि से निवृत होकर स्वच्छ वस्त्र पहनें. इसके पश्चात दूध देने वाली गाय एवं उसके बछड़े को भी स्नान कराएं, उन्हें नया वस्त्र चढ़ाते हुए उनके मस्तक पर रोली का तिलक लगाकर पुष्प अर्पित करें. कुछ गांवों लोग गाय के सींगों को भी सजाते हैं. अब ताम्र पात्र में इत्र, अक्षत, तिल, जल तथा फूल डालकर गौ के ऊपर छिड़कें.
अब गाय को उड़द से बना भोजन कराएं. पूजन के बाद वत्स द्वादशी की कथा सुनें. पूरे दिन उपवास रखने के बाद गौमाता की आरती उतारकर उसके बाद अपने व्रत का पारण करें.
क्या करें क्या न करें:
* पूजा करते समय उपवास रखने वाली महिलाओं के लिए धान अथवा चावल का प्रयोग वर्जित है. उसकी जगह काकून के चावल को प्रयोग में लाया जा सकता है.
* गोवत्स द्वाद्वशी के दिन खाने में चने की दाल बनाना जरूरी होता है. उपवासी महिलाएं इस दिन गेहूं, चावल, चना जैसे अनाज नहीं खा सकतीं. इसके साथ ही दूध अथवा इससे बने दूसरे खाद्य-पदार्थ भी खाना वर्जित माना गया है.
* यह व्रत कार्तिक, माघ, वैशाख और श्रावण मास के कृष्णपक्ष की द्वादशी के दिन किया जाता है. कार्तिक में वत्स वंश की पूजा का विधान है. इस दिन मूंग, मोठ एवं बाजरे को अंकुरित करके बछड़े को खिलाया जाता है. दोपहर के समय सभी गौपालक अपने-अपने गाय और बछड़े का साज-श्रृंगार करते हैं. इस दिन व्रत रखने वाली महिलाओं को भी यही अंकुरित अनाज खाने होते हैं.
* जिस घर में व्रत-पूजा होती है, उस दिन चाकू से काटी गयी कोई भी वस्तु का सेवन वर्जित होता है.
नोट- इस लेख में दी गई तमाम जानकारियों को प्रचलित मान्यताओं के आधार पर सूचनात्मक उद्देश्य से लिखा गया है. इसकी वास्तविकता, सटीकता और विशिष्ट परिणाम की हम कोई गारंटी नहीं देते हैं. इसके बारे में हर व्यक्ति की सोच और राय अलग-अलग हो सकती है.