Netaji Subhash Chandra Bose 124th Birth Anniversary: राष्ट्रवादी युवाओं के आदर्श सुभाष चंद्र बोस, जिन्होंने अंग्रेजी हुकूमत के सामने कभी नहीं टेके घुटने
सुभाषचंद्र बोस जयंती 2020 (Photo Credits: Wikimedia Commons)

Netaji Subhash Chandra Bose 124th Birth Anniversary: सुभाष चंद्र बोस (Subhash Chandra Bose) विशुद्ध भारतीय राष्ट्रवादी नेता थे, जिनकी आक्रामक और निडर देशभक्ति ने उन्हें भारत का महानायक बना दिया. लेकिन जिस गांधीजी (Mahatma Gandhi) के सुझाव पर उन्होंने राजनीति में कदम रखा, उन्हीं गाँधी जी की नीतियों का उन्हें बार बार विरोध करना पड़ा. क्योंकि वे अंग्रेजी हुकूमत के सामने किसी भी तरह का समझौता करने के खिलाफ थे. आइये एक नजर डालते हैं इस महान योद्धा के जीवन के रोचक पहलुओं पर...

जन्म एवं प्रारंभिक जीवन

सुभाष चंद्र बोस का जन्म 23 जनवरी 1897 को कटक (उड़ीसा) में एक संपन्न बंगाली कायस्थ परिवार में हुआ था. पिता का नाम जानकीनाथ बोस कटक के विख्यात एडवोकेट थे और मां प्रभावती हाउस वाइफ थीं. उनकी कुल 14 संतानें थीं, जिनमें 6 बेटियां और 8 बेटे थे. सुभाष चंद्र नौवीं संतान थे. सुभाष जी की शिक्षा कटक के रेवेंशाव कॉलेजियट स्कूल और इसके पश्चात कोलकाता (कलकत्ता) के प्रेसिडेंसी कॉलेज और स्कॉटिश चर्च कॉलेज में हुई. भारतीय प्रशासनिक सेवा ( Indian Civil Service) की तैयारी के लिए उन्हें इंग्लैंड के केंब्रिज विश्वविद्यालय भेजा. यद्यपि ब्रिटिश शासन काल में भारतीयों के लिए सिविल सेवा में जाना आसान नहीं था, लेकिन 1920 में वरीयता सूची में चौथे स्थान के साथ आईसीएस की परीक्षा पास किया.

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अंग्रेजों से कूटनीतिक लड़ाई

सुभाष बाबू स्वतन्त्रता सेनानी देशबंधु चित्तरंजन दास के कार्यों से प्रभावित होकर उनके साथ काम करना चाहते थे. लेकिन रवींद्रनाथ ठाकुर के सुझाव पर सुभाष बाबू 20 जुलाई 1921 को मुंबई स्थित मणिभवन में गांधी जी से मिले. गांधी जी ने उन्हें देशबंधु के साथ काम करने का सुझाव दिया. उन्हीं दिनों गांधीजी ने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ असहयोग आंदोलन चला रखा था. सुभाष बाबू देशबंधु के साथ इस आंदोलन में हिस्सा लिया. साल 1922 में दासबाबू ने कांग्रेस के अन्तर्गत 'स्वराज पार्टी' की स्थापना की. विधानसभा में ब्रिटिश हुकूमत का खुलकर विरोध करने के लिए सुभाष बाबू और देशबंधु ने कोलकाता महापालिका का चुनाव जीता.

लिहाजा दासबाबू कोलकाता के महापौर बने और सुभाष बाबू महापालिका के प्रमुख कार्यकारी अधिकारी नियुक्त हुए. उन्होंने अपने कार्यकाल में कोलकाता महापालिका का न केवल पूरा ढांचा बदला बल्कि कोलकाता में सभी मार्गों के अंग्रेजी को भारतीय नाम दिया. स्वतन्त्रता संग्राम के शहीदों के परिजनों को महापालिका में नौकरी दिलाई. इस तरह सुभाष रातों-रात कलकत्ता के हीरो बन गये.

क्यों नाराज थे गांधीजी से सुभाष बाबू ?

दरअसल गाँधीजी कांग्रेस के 'पूर्ण स्वराज्य' की मांग से असहमति जताते हुए अंग्रेज़ सरकार से डोमिनियन स्टेटस मांगने का फैसला किया, लेकिन सुभाषबाबू और पं. नेहरू पूर्ण स्वराज की मांग पर अड़े रहे. अन्ततः तय हुआ कि ब्रिटिश हुकूमत को डोमिनियन स्टेटस देने के लिये एक साल का वक्त दिया जाये, अगर 1 साल में ब्रिटिश हुकमत ने यह मांग पूरी नहीं की तो कांग्रेस पूर्ण स्वराज की मांग करेगी. लेकिन ब्रिटिश हुकूमत ने इस मांग को भी सिरे से खारिज कर दिया. तब 1930 में कांग्रेस के लाहौर में हुए वार्षिक अधिवेशन पं नेहरू की अध्यक्षता में तय हुआ कि 26 जनवरी को स्वतन्त्रता दिवस मनाया जायेगा.

26 जनवरी को सुभाष ने तो कलकत्ता में राष्ट्रध्वज फहराकर स्वतंत्रता दिवस मनाने के साथ एक विशाल मोर्चा निकाला, चिढ़े हुए अंग्रेजों ने उन्हें जेल भेज दिया. इसी समय गांधीजी ने ब्रिटिश हुकूमत से समझौता कर सारे कैदियों को रिहा करवा लिया, लेकिन भगत सिंह को अंग्रेजों ने नहीं छोड़ा, गांधी जी ने भगत सिंह की फांसी की सजा माफ करवाने की बात तो की मगर बहुत नरमी से. सुभाष चाहते थे कि इस मुद्दे को सामने रखते हुए गांधी जी समझौता तोड़ दें, लेकिन गांधीजी नहीं मानें. उधर अंग्रेजों ने भगत सिंह और उनके साथियों को फांसी पर चढ़ा दिया, तब सुभाष गांधीजी से नाराज ही नहीं निराश भी हुए.

आजाद हिंद फौज की स्थापना

सितंबर 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध के दरम्यान सुभाष ने एक जन आंदोलन शुरु करने का फैसला किया. ब्रिटिश हुकमत को इस आंदोलन की भनक लग गई, उन्होंने सुभाष को जेल भेज दिया. सुभाष ने जेल में भूख हड़ताल कर दिया, जब उनका स्वास्थ्य बिगड़ने लगा, तो हंगामे से बचने के लिए उन्हें घर में नज़रबंद कर दिया गया. 1941 में सुभाष अंग्रेजों की कैद से भागकर जर्मनी पहुंचकर हिटलर से मिले. आजादी की लड़ाई में हिटलर से उन्होंने बहुत कुछ सीख लिया. 1943 में बोस ने दक्षिण-पूर्व एशिया में तैयार किया और इसका नाम आजाद हिंद फौज (Indian National Army) रखा. आज़ाद हिंद फ़ौज की कमान संभाल कर अंग्रेज़ों को भारत से निकाल बाहर करने के लिए एक मज़बूत सशस्त्र प्रतिरोध खड़ा करने में सफलता हासिल की थी। नेताजी के जीवन से यह भी सीखने को मिलता है कि हम देश सेवा से ही जन्मदायिनी मिट्टी का कर्ज़ उतार सकते हैं.

रहस्यमयी मृत्यु!

द्वितीय विश्वयुद्ध में जापान की हार के बाद, सुभाष जी ने रूस से सहायता माँगने का निश्चय किया. 18 अगस्त 1945 को नेताजी हवाई जहाज से मंचूरिया की तरफ जा रहे थे. इस सफर के दौरान वे लापता हो गये. 23 अगस्त 1945 को टोकियो रेडियो ने बताया कि सैगोन में नेताजी एक बड़े बमवर्षक विमान से आ रहे थे कि 18 अगस्त को ताइहोकू हवाई अड्डे के पास उनका विमान दुर्घटनाग्रस्त हो गया. नेताजी गम्भीर रूप से जल गये थे. उन्हें ताइहोकू सैनिक अस्पताल ले जाया गया, जहां उन्होंने दम तोड़ दिया.