Gulzari Lal Nanda Jayanti 2025: दो बार देश के कार्यवाहक प्रधानमंत्री रह चुके हैं गुलजारी लाल नंदा, अपनी जिंदगी के आखिरी दिनों को मुफलिसी में जिया
Gulzari Lal Nanda (Photo: X|@hitesh_thakkar3)

नई दिल्ली, 3 जुलाई: कुछ लोग इतिहास लिखते हैं और कुछ लोग इतिहास बन जाते हैं. गुलजारी लाल नंदा (Gulzari Lal Nanda) उन विरलों में थे जो चुपचाप इतिहास रचते चले गए. एक ऐसा नेता, जिसने संकट के समय दो बार देश की बागडोर संभाली, फिर भी सरकारी सुख-सुविधाओं की चाहत नहीं रखी. देश की आजादी की लड़ाई में उन्होंने जेल की यातनाएं सही, मजदूरों की आवाज बने और सत्ता के शिखर पर पहुंचकर भी सादगी की चादर ओढ़े रहे. उनका जीवन कोई प्रचार नहीं, बल्कि एक मौन तपस्या था. सत्ता में रहकर भी सत्ता से दूर, राजनीति में रहकर भी मूल्य और मर्यादा के साथ. यह भी पढ़ें; Mahakavi Kalidas Diwas 2025 Quotes: ‘धैर्यवान व्यक्ति हर परिस्थितियों से सुरक्षित बाहर आ जाते हैं’ महाकवि कालिदास दिवस पर अपनों को भेजें ये प्रेरक कोट्स!

पंजाब के सियालकोट (अब पाकिस्तान में) 4 जुलाई 1898 को जन्मा यह गांधीवादी नेता भारतीय राजनीति का वह अध्याय है, जो जितना प्रेरणादायक है, उतना ही सादा और जितना महान है, उतना ही गुमनाम. देश का प्रधानमंत्री रहा व्यक्ति, जीवन के अंतिम वर्षों में किराया न चुका पाने के कारण घर से निकाला गया, फिर भी चेहरे पर न कोई शिकन, न शिकायत. दो बार देश के कार्यवाहक प्रधानमंत्री रहे गुलजारी लाल नंदा ने उन मौकों पर देश को नेतृत्व दिया जब प्रधानमंत्री के पद पर रहते हुए पं. जवाहर लाल नेहरू और लाल बहादुर शास्त्री अचानक दुनिया को अलविदा कह गए. उन्होंने हरियाणा की सांस्कृतिक आत्मा कुरुक्षेत्र को एक नई पहचान भी दी. उनका जीवन हमें यह सिखाता है कि सच्चा नेतृत्व पद से नहीं, चरित्र से पहचाना जाता है. यह भी पढ़ें: History of 25 June: आजाद भारत का सबसे काला अध्याय 'इमरजेंसी'! जानें इंदिरा गांधी को कब और क्यों लेना पड़ा था यह अलोकतांत्रिक निर्णय?

लाहौर, आगरा और इलाहाबाद में शिक्षा प्राप्त करने के बाद गुलजारी लाल नंदा ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में श्रम समस्याओं पर शोध किया. 1921 में वह नेशनल कॉलेज, मुंबई में अर्थशास्त्र के प्राध्यापक बने, लेकिन उसी वर्ष उन्होंने नौकरी छोड़कर असहयोग आंदोलन में कूदने का साहस किया।. साल 1922 से 1946 तक वह अहमदाबाद टेक्सटाइल लेबर एसोसिएशन के सचिव रहे, जहां उन्होंने मजदूरों के अधिकारों की आवाज बुलंद की. साल 1932 और 1942 के आंदोलनों में जेल जाना पड़ा, लेकिन उनके विचार अडिग रहे, रास्ता स्पष्ट.

साल 1937 में वह बंबई विधानसभा के सदस्य बने और फिर 1946 में बंबई सरकार में श्रम मंत्री. उन्होंने श्रम विवाद विधेयक जैसे ऐतिहासिक विधेयकों को पारित कर श्रम नीतियों की दिशा तय की. राष्ट्रीय योजना समिति के सदस्य, हिंदुस्तान मजदूर सेवक संघ के सचिव, कस्तूरबा मेमोरियल ट्रस्ट के न्यासी और कई राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय मंचों पर देश का प्रतिनिधित्व करने वाले नंदा जी की भूमिका हर जगह मौन, परंतु निर्णायक रही. साल 1950 में योजना आयोग में उपाध्यक्ष, फिर योजना, सिंचाई और बिजली मंत्री बने. उन्होंने पंचवर्षीय योजनाओं की नींव मजबूत की और श्रम तथा रोजगार के क्षेत्र में देश को आधुनिक दिशा दी. यह भी पढ़ें: Shahu Maharaj Jayanti 2025: जब बच्चों को स्कूल नहीं भेजने वाले माता-पिता के लिए बना यह अनोखा कानून! जानें शाहू महाराज के बारे में कुछ रोचक फैक्ट!

पंडित नेहरू के निधन के बाद 27 मई 1964 को उन्होंने पहली बार कार्यवाहक प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली. ताशकंद में लाल बहादुर शास्त्री की मृत्यु के बाद 11 जनवरी 1966 को वह दोबारा कार्यवाहक प्रधानमंत्री बने. हालांकि, दोनों ही बार उनका कार्यकाल अल्पकालिक था, लेकिन यह भारतीय लोकतंत्र की उस परंपरा को पुष्ट करता है जहां भरोसेमंद और सिद्धांतवादी व्यक्ति को संकट की घड़ी में राष्ट्र की बागडोर सौंपी जाती है.

साल 1967 में उन्होंने गुजरात छोड़ हरियाणा को अपनी नई कर्मभूमि बनाया. कैथल से लोकसभा चुनाव जीतकर संसद पहुंचे और फिर 1968 में कुरुक्षेत्र विकास बोर्ड की स्थापना की. अगले 22 वर्षों तक उन्होंने अध्यक्ष के रूप में कुरुक्षेत्र के धार्मिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक स्वरूप को पुनर्जीवित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. ज्योतिसर, सन्निहित सरोवर, श्रीकृष्ण आयुर्वेदिक महाविद्यालय से लेकर पिहोवा तक, हर तीर्थ स्थल उनके स्नेह और दूरदर्शिता का साक्षी है. आज हरियाणा की सांस्कृतिक राजधानी कुरुक्षेत्र नंदा जी की इस अनथक सेवा का परिणाम है.

गुलजारी लाल नंदा के जीवन की एक घटना इस युग के नेताओं के लिए आईना है. बुढ़ापे में एक दिन उन्हें मकान मालिक ने किराया न देने पर घर से निकाल दिया. उनके पास बस कुछ बर्तन, बिस्तर और बाल्टी थी. पड़ोसियों ने हस्तक्षेप किया. एक पत्रकार ने यह दृश्य देखा और उसकी खबर बनाई. अगले दिन वह अखबार की हेडलाइन थी. इस खबर के सामने आने के बाद देश स्तब्ध था. जब प्रधानमंत्री कार्यालय तक खबर पहुंची, तब एक साथ कई सरकारी गाड़ियों का काफिला उनके दरवाजे पहुंचा और घर समेत कई अन्य सरकारी सुविधाएं लेने की अपील की. लेकिन, उन्होंने साफ इनकार करते हुए कहा कि मैंने स्वतंत्रता सेनानी का भत्ता ठुकराया था, क्योंकि मैंने देश के लिए लाभ नहीं, बलिदान किया था. इस उम्र में सरकारी सुविधाओं का क्या करूंगा?

साल 1997 में उन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया गया. अगले साल 15 जनवरी 1998 को उनका निधन हुआ. उनकी अंतिम इच्छा थी कि उनकी 'अस्थियां कुरुक्षेत्र में ही रहें.' उनकी इच्छानुसार उनकी मृत्यु के बाद उनकी अस्थियों को गुलजारी लाल नंदा स्मारक में दफना दिया गया. आज वह स्मारक सिर्फ ईंट-पत्थर का ढांचा नहीं, बल्कि सादगी, सेवा और संस्कार का एक जीता-जागता प्रेरणास्रोत है.