
आचार्य चाणक्य, जिन्हें कौटिल्य और विष्णुगुप्त नाम से भी जाना जाता है. अगर कहा जाए कि चाणक्य मौर्य साम्राज्य की नींव के पत्थर थे, तो अतिशयोक्ति नहीं होगा. वह चंद्रगुप्त मौर्य के महामंत्री थे, साथ ही उनके मुख्य सलाहकार भी. चणक नामक व्यक्ति का पुत्र होने के कारण वह चाणक्य कहलाए. चाणक्य महान कूटनीतिज्ञ, अर्थनीति और राजनीति के महाविद्वान थे. चाणक्य को नीतिशास्त्र का महान ज्ञानी माना जाता है. उनकी नीतियों के कारण ही वह साधारण बालक को चंद्रगुप्त मौर्य को भारत का सम्राट बना दिया, नंद वंश को खत्म कर दिया. उन्होंने अपने नीतिशास्त्र के 8वें अध्याय में मनुष्य की आदतों के बारे में बताया है. आइये जानते हैं, इस श्लोक के माध्यम से क्या कहना चाहा है आचार्य ने.. यह भी पढ़ें : Sita Navami 2025 Wishes: सीता नवमी के इन शानदार हिंदी WhatsApp Messages, Quotes, GIF Greetings को भेजकर दें अपनों को शुभकामनाएं
अन्नहीनो दहेद् राष्ट्र मन्त्रहीनश्च ऋत्विजः।
यजमानं दानहीनो नास्ति यज्ञसमो रिपुः॥
हिंदू धर्म शास्त्रों में शुभ मांगलिक कार्यों के अवसर पर यज्ञ-हवन को अत्यंत महत्त्वपूर्ण बताया गया है. स्वयं ब्रह्माजी ने इसे कल्पवृक्ष के समान बताया है, जिससे मनुष्य की समस्त मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं. इस कथन को चाणक्य ने भी स्वीकार किया है, लेकिन इसके साथ ही इस विषय पर वे अपना तर्क प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि यज्ञ करते समय यदि उसके विधि-विधान में किसी प्रकार की त्रुटि या कमी रह जाए तो यज्ञ फलीभूति होने के बजाए कष्ट देने वाली बन जाती है. यज्ञ की पूर्णता भी अन्न का दान पर होती थी. चाणक्य के अनुसार यज्ञ करने वाले को अन्न का दान भी जरूर करना चाहिए, और इसके साथ ही मंत्रोच्चारण का होना भी जरूरी है. यज्ञ की एक पूर्णता पुरोहितों एवं ब्राह्मणों को उचित दान-दक्षिणा में भी निहित है. ऐसा न होने की स्थिति में यज्ञ विनाशकारी हो जाता है. इसलिए यज्ञ तभी करें, जब उसे यथाविधि करने का सामर्थ्य हो.