Bihar Assembly Elections 2020: क्या एक बार फिर कामयाब होगी मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की सोशल इंजीनियरिंग? क्या फिर मिलेगा वोट बैंक का साथ?
नीतीश कुमार (Photo Credits: PTI)

पटना: बिहार (Bihar) विधानसभा चुनाव की तारीखों का ऐलान हो चुका है. 243 सदस्यीय विधानसभा के लिए तीन चरणों में मतदान होंगे. 28 अक्टूबर, तीन नवंबर और सात नवंबर को वोट डाले जायेंगे और दस नवंबर को नतीजे घोषित होंगे. जिसके मद्देनजर सभी राजनीतिक दल अपनी खास रणनीति के साथ वोटरों को लुभाने में जुटे है. Bihar Assembly Elections 2020: बिहार में चिराग पासवान और उपेंद्र कुशवाहा की नाराजगी क्या खड़ा करेगी तीसरा मोर्चा? बदलेगा सियासी समीकरण?

पिछले कई दशकों से बिहार की राजनीतिक में जातिगत राजनीति ही सबसे आगे रही है. अर्थात जिस दल के पास जितनी अधिक जातियों का समर्थन, वह सत्ता के उतना ही करीब रहा है. बिहार की राजनीति में जीत सुनिश्चित करने की सबसे बड़ी कुंजी भी यही है. कभी सवर्णों के वर्चस्व वाली बिहार की राजनीति में अब पिछड़ों का दबदबा साफ झलकता है. पिछले कई चुनावों में देखा गया है कि राज्य में सरकार बनाने में पिछड़ा वर्ग ने अहम भूमिका निभाई है.

नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गेनाइज़ेशन (NSSO) के एक अनुमान के मुताबिक बिहार की आधी जनसंख्या पिछड़ा वर्ग से ताल्लुक रखती है. जबकि राज्य में दलित और मुसलमान भी काफी अधिक संख्या में रहते है. हालांकि इन में भी कई वर्ग है और सबका वोटिंग पैटर्न अलग है. ऐसे में किसी भी पार्टी के लिए किसी वर्ग के सारे वोटर अपने पाले में रखना बहुत मुश्किल काम है. Bihar Assembly Elections 2020: कहा गायब हैं मोदी-नीतीश को जीत दिलाने वाले किंगमेकर प्रशांत किशोर?

पॉलिटिकल पंडितों की मानें तो बिहार में जाति हमेशा से चुनावों की एक अहम फैक्टर साबित हुई है. साल 2015 में हुए बिहार विधानसभा चुनाव में केवल 61 यादव उम्मीदवार जीते थे, जबकि राज्य की 15 फीसदी आबादी यादवो की हैं. इसी तरह कोइरी समाज के 8 फ़ीसदी लोग हैं लेकिन 19 कोइरी उम्मीदवार ही जीतने में सफल हुए है. इसके आलावा 4 फीसदी कुर्मी जाती के लोग है, लेकिन 16 विधायक चुने गए. इसी तरह मुसहर बिहार में 5 फीसदी हैं लेकिन एक ही सीट जीत पाए. जबकि बिहार की 16 फीसदी आबादी मुसलमान हैं, जबकि 24 मुस्लिम उम्मीदवार ही चुनाव जीत सके.

नीतीश कुमार कैसे बने सोशल इंजीनियर?

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार 15 साल से पद पर बरकरार है. दरअसल इसकी मुख्य वजह छोटी-छोटी जातियों का उन्हें समर्थन हैं. उन्होंने सत्ता में आने के साथ ही जातिगत रणनीति बखूबी अपनाई, जिसका उन्हें फायदा भी मिला. अपने कार्यकाल में उन्होंने दलित श्रेणी से महादलित को अलग किया. साथ ही पिछड़े वर्ग (ओबीसी) से अति पिछड़ा (ईबीसी) वर्ग बनाया. कुछ ऐसा ही उन्होंने ब्राह्मण समुदाय की उप-जाति गिरी के लिए भी किया और गिरी को ओबीसी में शामिल किया. रिपोर्ट्स की मानें तो बिहार की करीब 25 लाख जनता गिरी जाति से आती है.

मुसलमानों की एक जाति कुलहैया को अति पिछड़ी जाति में शामिल किया. जिनकी आबादी बिहार में 20 लाख के करीब हैं. वहीं जेडीयू चीफ नीतीश कुमार ने राजबंशी को भी अति पिछड़े वर्ग में शामिल कर अपने पक्ष में कर लिया. आरजेडी अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव से रविदास जाति के वोटरों को छीनते हुए उन्हें भी महादलित वर्ग में डाल दिया. हालांकि इस बार सीएम नीतीश कुमार सत्ता विरोधी लहर का सामना कर रहे है. ऐसे में आगामी विधानसभा चुनाव में फिर से जीत का परचम फहराना उनके लिए पहले से कठिन हो गया है.

उल्लेखनीय है कि 2015 में जो विधानसभा चुनाव हुए थे उसमें सत्ताधारी एनडीए में बीजेपी, लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा), राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (रालोसपा) और जीतन राम मांझी की हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा (HAM) शामिल थे, वहीं महागठबंधन में जनता दल (यूनाइटेड) यानि जेडीयू, राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) और कांग्रेस शामिल थी. पिछले चुनाव में बीजेपी को 53, लोजपा को 2, रालोसपा को 2 और हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा (हम) को 1 सीटें मिली थी. महागठबंधन में जदयू के 71 प्रत्याशी विजयी हुए थे जबकि राजद 80 और कांग्रेस 27 सीटें जीती थी. हालांकि 2015 का महागठबंधन 2017 में ही टूट गया था और फिर से जेडीयू अपने पुराने साथी बीजेपी साथ आ गई.