पूर्वोत्तर भारत में सालों बाद फिर हुई धर्मांतरण पर रोक लगाने की पहल
प्रतीकात्मक तस्वीर (Photo Credit: Image File)

देश की आजादी के पहले से ही पूर्वोत्तर भारत में धर्मांतरण की समस्या गंभीर रही है. अब अरुणाचल प्रदेश ने लंबे समय से निष्क्रिय धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम को प्रभावी तरीके से लागू करने का फैसला किया है.अरुणाचल प्रदेश फ्रीडम ऑफ रिलीजन एक्ट, 1978 का मकसद जबरन धर्म परिवर्तन पर अंकुश लगाना है. इसमें किसी भी धर्म परिवर्तन की स्थिति में संबंधित अधिकारियों को इसकी सूचना देना अनिवार्य है. इस कानून में जबरन धर्मांतरण कराने या इसकी कोशिश करने वालों को सजा और जुर्माने का भी प्रावधान है.

यह अधिनियम विपूर्वोत्तर भारत में धर्मांतरण पर रोक लगाने की पहल विधानसभा में पारित होने के बावजूद इसे कभी लागू नहीं किया जा सका. अब गोवाहाटी हाईकोर्ट ने सरकार को छह महीने में जरूरी नियम बनाने का निर्देश दिया है. उसके बाद सरकार ने इस मामले में पहल की है. यह राज्य ऐसा कानून बनाने वाला पूर्वोत्तर का पहला राज्य है.

पूर्वोत्तर के राज्यों में कैसे हुआ ईसाई धर्म का प्रसार

पूर्वोत्तर में 1930 के दशक की शुरुआत में तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने इलाके में खासकर ईसाई धर्म के प्रचार-प्रसार को बढ़ावा देना शुरू किया था. वैसे, दो मिशनरी समूहों ने उससे करीब सौ साल पहले वर्ष 1836 में ही असम में एक चर्च की स्थापना की थी. वर्ष 1941 से 1951 के बीच इलाके में ईसाई धर्म का तेजी से प्रसार हुआ. इलाके में ईसाई धर्म का प्रसार बढ़ने की वजह से स्थानीय आदिवासियों के साथ सांस्कृतिक टकराव भी शुरू हुआ. इस दौरान बड़े पैमाने पर धर्मांतरण की घटनाएं हुईं. यही वजह है कि मणिपुर, मिजोरम, नागालैंड और मेघालय की ज्यादातर आदिवासी आबादी ईसाई धर्म को अपना चुकी है.

पूर्वोत्तर में ईसाई धर्म का प्रसार सबसे पहले मेघालय में शुरू हुआ. उस समय यह पूरा इलाका असम का ही हिस्सा था. वर्ष 1972 में मेघालय का गठन हुआ. लेकिन उससे वर्षों पहले ही राज्य में ईसाई मिशनरियां मजबूत जड़ें जमा चुकी थी. इसकी वजह थी कि ब्रिटिश शासकों ने स्कूली शिक्षा की जिम्मेदारी और बजट का जिम्मा क्रिश्चियन मिशनों को सौंप दिया था. वर्ष 2011 की जनगणना के मुताबिक, राज्य की करीब 75 फीसदी आबादी ईसाई थी. वहां अब भी धर्म परिवर्तन के मुद्दे पर ईसाई मिशनरियों और स्थानीय आदिवासियों के बीच टकराव की खबरें मिलती रही हैं.

मेघालय के बाद मिजोरम में सबसे तेजी से ईसाई धर्म का प्रसार हुआ. वर्ष 2011 में राज्य की 87 फीसदी आबादी ईसाई थी. राज्य में अब भी चर्च के संगठन इतने ताकतवर हैं कि उनकी मर्जी के बिना पत्ता तक नहीं हिल सकता. मणिपुर में ईसाइयत का प्रसार आजादी के बाद हुआ. वर्ष 1951 में राज्य में ईसाइयों की आबादी महज 12 फीसदी थी जो अब करीब 41 फीसदी है. राज्य के पर्वतीय इलाकों में तो लगभग पूरी आदिवासी आबादी ही ईसाई धर्म को अपना चुकी है.

मणिपुर की तरह नागालैंड में भी आजादी के ठीक पहले ईसाई धर्म का प्रसार शुरू हुआ था. वर्ष 1931 में राज्य में ईसाइयों की आबादी 13 फीसदी थी जो 1951 में बढ़ कर 46 फीसदी तक पहुंच गई. अब करीब 90 फीसदी आबादी इसी धर्म का पालन करती है. नागालैंड में अनुसूचित जनजाति के तमाम लोग अब इस धर्म को अपना चुके हैं.

लंबे समय तक इससे अछूता रहा अरुणाचल प्रदेश

आजादी के बाद लंबे समय तक नार्थ ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी (नेफा) के नाम से परिचित सीमावर्ती राज्य अरुणाचल प्रदेश में वर्ष 1971 तक चर्च के कदम नहीं पड़े थे. लेकिन 1971 में इसे नागरिक प्रशासन के तहत शामिल करने के बाद यहां बड़े पैमाने पर होने वाले धर्मांतरण की वजह से ईसाइयों की आबादी तेजी से बढ़ती रही और अब यह कुल आबादी में करीब 30 फीसदी हैं. पूर्वोत्तर का प्रवेशद्वार कहे जाने वाले असम में भी ईसाइयों की आबादी बढ़ी है. लेकिन वर्ष 2011 में उनकी तादाद कुल आबादी में 3.75 फीसदी थी. लेकिन आबादी के आंकड़ों को ध्यान में रखें तो यह भी काफी बड़ी तादाद है. डिमा-हसाओ, कार्बी आंग्लांग और बोड़ो-बहुल इलाकों में ईसाइयों की आबादी राज्य के दूसरे हिस्सों के मुकाबले ज्यादा है.

मुसलमानों के बाद अब ईसाई समुदाय असम सरकार के निशाने पर?

बांग्लादेश की सीमा से सटे त्रिपुरा में वर्ष 1951 में ईसाई तबके के महज पांच हजार लोग थे. लेकिन कासकर बीते दो दशकों के दौरान हुई धर्मांतरण की वजह से अब यह आंकड़ा 1.6 लाख तक पहुंच गया है. इसी तरह सिक्किम में वर्ष 1971 में कुल आबादी में ईसाइयों की तादाद 0.8 फीसदी थी जो अब 10 फीसदी से ज्यादा हो गई है.

अरुणाचल की पहल

अब अरुणाचल प्रदेश सरकार ने हाईकोर्ट के निर्देश पर धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम को लागू करने की दिशा में पहल की है. वैसे, अरुणाचल प्रदेश फ्रीडम ऑफ रिलीजन एक्ट, 1978 नामक यह कानून तो विधानसभा ने वर्ष 1978 में ही पारित कर दिया था. लेकिन पीके थुंगन के नेतृत्व वाली तत्कालीन राज्य सरकार ने इसे लागू करने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई थी. दरअसल, उस समय राज्य में ईसाई मिशनरियां काफी सक्रिय थीं और बड़े पैमाने पर धर्मांतरण हो रहा था. लेकिन सरकार को लगा कि इससे कहीं मिशनरियां नाराज न हो जाएं. इसलिए इसे ठंढे बस्ते में डाल दिया गया था.

मौजूदा मुख्यमंत्री पेमा खांडू ने तब इस कानून को ईसाइयों को परेशान करने वाला करार देते हुए कहा था कि इससे आपसी सद्भाव को नुकसान पहुंचेगा. करीब छह साल पहले तो सरकार ने इस कानून को खारिज करने की भी बात कही थी. लेकिन हाईकोर्ट के निर्देश के बाद उनके सुर बदल गए हैं.

द इंडीजीनस फेथ एंड कल्चरल सोसायटी ऑफ अरुणाचल प्रदेश (आईएफसीएसएपी) नामक एक गैर-सरकारी संगठन ने इस कानून को लागू करने की मांग में गोवाहाटी हाईकोर्ट की ईटानगर पीठ में एक याचिका दायर की थी. इस पर सुनवाई के बाद अदालत ने सरकार को छह महीने के भीतर इसके नियम तय करने का निर्देश दिया है. इस अधिनियम में प्रत्यक्ष या परोक्ष तौर पर धर्मांतरण कराने या इसकी कोशिश करने वालों को दो साल तक की सजा और 10 हजार तक के जुर्माने का प्रावधान है.

आईएफसीएसएपी के महासचिव ताम्बो तामिन डीडब्ल्यू से कहते हैं, "राज्य के दूरदराज के इलाकों में अब भी धर्मांतरण की कवायद जारी है. लेकिन इसके खिलाफ कानून होने के बावजूद सरकार ने लंबे समय तक इसे लागू करने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई है. राज्य की आदिवासी संस्कृति और स्थानीय आबादी की अस्मिता बचाने के लिए इस कानून को कड़ाई से लागू करना जरूरी है."