किसी भी लेखक की विरासत उसके विचारों और कहानियों में नजर आती है. उसकी कहानियां उस दुनिया से प्रेरित होती हैं, जिसमें वह रहता हैं. इसीलिए लेखक की रचना उसके दौर का आइना कहलाती है. लेकिन प्रेमचंद्र की कहानियां उनके दौर को तो दर्शाती ही हैं, साथ ही आज भी उनकी कहानियां और कहानी के पात्र सजीव लगते हैं, प्रासंगिक लगते हैं. आज का पाठक भी स्वयं को उससे जुड़ा महसूस है. यद्यपि उनकी कहानियां उस दौर को भी बड़ी सहजता से दर्शाती हैं. आज देश इस महान साहित्यकार की 84 वीं पुण्य-तिथि मना रहा है. आज हम बात करेंगे कि करीब सौ साल पहले लिखी उनकी कहानियों में प्रासंगिकता क्या और क्यों है. यह भी पढ़ें: Munshi Premchand Jayanti 2019: उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद की 139वीं जयंती, जानिए हिंदी के इस दिग्गज साहित्यकार के जीवन से जुड़ी रोचक बातें
बनारस (वाराणसी) शहर से सटे एक छोटे से कस्बे लमही में 31 जुलाई 1880 को पैदा हुए 'प्रेमचंद्र' (मूलनाम धनपत राय श्रीवास्तव) ने दुनिया के साथ बहुत कुछ साझा किया. हिंदी साहित्य को नई दिशा दिलाने वाले इस महान उपन्यासकार ने एक आम आदमी के जीवन में होने वाली परीक्षाओं और क्लेशों पर नए सिरे से विचार किया. उनकी रचनाओं में राष्ट्रवादी आंदोलन के दौरान मौजूद सामाजिक-आर्थिक स्थितियों को बड़ी सहजता से दर्शाया गया है, क्योंकि उन्होंने वेश्यावृत्ति, सामंती व्यवस्था, गरीबी, विधवा पुनर्विवाह जैसे मुद्दों को दर्शाया है. उन्होंने मानवीय भावनाओं में जटिलता से ताना-बाना बुनती कहानी कहने के शिल्प में भी महारत हासिल की. यह भी पढ़ें: Munshi Premchand Jayanti 2020: उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद की 140वीं जयंती, जानिए हिंदी के इस दिग्गज साहित्यकार के जीवन से जुड़ी कुछ अनसुनी बातें
हैरानी होती है यह देखकर कि कैसे हमारा देश आज भी उन्हीं विषयों पर लड़ाई करता है, जो मुख्य रूप से मुंशी प्रेमचंद की पुस्तकों में नजर आते हैं. प्रेमचंद्र की स्मृति में यहां उनकी कुछ ऐसी ही कहानियों को प्रस्तुत करते हैं.
'गोदान'
1936 में प्रकाशित प्रेमचंद्र की 'गोदान' आम आदमी के संघर्षों की बात करता है. यह उपन्यास अंग्रेजों के जमाने में गांव के गरीबों के आर्थिक अभाव पर आधारित है. आज के आइने में देखें तो आज भी आम आदमी उन्हीं झंझावातों से जूझ रहा है. यह पूरी कहानी और इसके सारे पात्र आज भी प्रासंगिक है. लोगों के जीवन की सादगी और आर्थिक अभाव आज भी बरकरार है. यद्यपि 1963 में इस उपन्यास को हिंदी फिल्म में ढाला गया, जिसके पात्रों को राजकुमार, कामिनी कौशल, महमूद और शशिकला ने सजीव बना दिया था. इसके बाद साल 2004 में गोदान 27 कड़ियों में टीवी पर भी अवतरित हुआ, जिसकी दर्शकता उम्मीद से कहीं अच्छी थी.
'प्रतिज्ञा'
1927 में प्रकाशित प्रेमचंद्र की 'प्रतिज्ञा' विधवा पुनर्विवाह के इर्द-गिर्द आलोचना और पूर्वाग्रह को दर्शाती आगे बढ़ती है. हमारे ग्रामीण समाज में आज भी यह मुद्दा बरकरार है. 'प्रतिज्ञा' के माध्यम से प्रेमचंद्र ने समाज की दबी-कुचली महिलाओं के आर्थिक स्वावलंबन का समाधान भी पेश करता है. गौरतलब है कि अपने वास्तविक जीवन में भी प्रेमचंद ने विधवा शिवरानी देवी से विवाह किया और समाज के विरोध का सामना किया. अपने वास्तविक जीवन में भी प्रेमचंद ने विधवा शिवरानी देवी से विवाह किया और समाज के विरोध का सामना किया।
'रंगभूमि'
प्रेमचंद की 'रंगभूमि' 1924 में प्रकाशित हुई थी. इस उपन्यास में लेखक ने ग्रामीण भारतीय किसानों की दुर्दशा को बड़ी शिद्दत से प्रस्तुत किया है. आज का किसान भी आर्थिक संकट से जूझ रहा है, और हारता है तो खुदकुशी तमाम संघर्षों से आजाद हो जाता है. कमोबेस आज भी अधिकांश भारतीय किसान दबी-कुचली जिंदगी जी रहा है. इस पुस्तक में लेखक पूंजीवाद, सिविल सेवकों के स्वार्थ और समाज में व्याप्त समस्याओं को रेखांकित करते हैं. यह सारी समस्याएं, विपत्तियां आज भी देखने को मिलती हैं.
'गबन'
1931 में लिखी 'गबन' आजादी से पहले के समय का लेखा-जोखा दर्शाती है. उस काल में प्रेमचंद्र ने आम आदमी के आर्थिक एवं सामाजिक हालातों को दर्शाने की सटीक कोशिश की है. यह पूरी कथा एक ऐसे किरदार के इर्द-गिर्द घूमती है, जो खुद को ब्रिटिश भारत में फ्रॉड के लिए संदिग्ध मानता है. यह प्रेमचंद के सबसे लोकप्रिय उपन्यासों में से एक माना जाता है. साल 1966 में इस उपन्यास पर भी एक फिल्म बनी थी, जिसमें सुनील दत्त, साधना और कन्हैया लाल ने 'गबन' के मुख्य पात्रों को बड़ी उत्कृष्टता से जीया था.
जीवन के अंतिम दिनों में भयंकर बीमारियों से जूझते हुए इस महान साहित्यकार ने 8 अक्टूबर 1936 में इस दुनिया को अलविदा कह दिया. लेकिन उनकी प्रेरक कृतियां आज भी उन्हें हमारे दिलों में जिंदा बनाए हुए हैं.