Munshi Premchand Jayanti 2019: उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद की 139वीं जयंती, जानिए हिंदी के इस दिग्गज साहित्यकार के जीवन से जुड़ी रोचक बातें
मुंशी प्रेमचंद (Photo Credits: Facebook)

Munshi Premchand Jayanti 2019: आज उपन्यास सम्राट और हिंदी के दिग्गज कलमकार मुंशी प्रेमचंद की 139वीं जयंती (139th Birth Anniversary of Munshi Premchand)  है. हिंदी साहित्य का ‘माइल स्टोन’ कहे जानेवाले मुंशी प्रेमचंद (Munshi Premchand) को शरद चंद्र चट्टोपाध्याय ने ‘उपन्यास सम्राट’ विशेषण से नवाजा था. मुंशी प्रेमचंद ने हिंदी कहानियों और उपन्यास की एक ऐसी स्वस्थ परंपरा की शुरुआत की, जिसने पूरी सदी स्वस्थ साहित्य का मार्ग दर्शन किया. जिस युग में प्रेमचंद की लेखिनी चल रही थी, उस समय उनके आगे-पीछे कोई ठोस विरासत नहीं थी, न ही विचार और न ही प्रगतिशीलता का कोई मॉडल उनके सामने था. लेकिन होते-होते उन्होंने ‘गोदान’ जैसे कालजयी उपन्यास की रचना की जो एक आधुनिक क्लासिक माना जाता है. हिंदी के दिग्गज साहित्यकार भी मानते हैं कि हिन्दी साहित्य में आज तक प्रेमचंद जैसा कलमकार न कोई हुआ न कभी होगा.

प्रेमचंद्र का जन्म 31 जुलाई 1880 के दिन वाराणसी के एक गांव के डाक मुंशी अजायब लाल के घर पर हुआ था. उनकी मां आनंदी देवी एक सुघढ़ और सुंदर शख्सियत वाली महिला थीं. उनके दादा जी मुंशी गुरुसहाय लाल पटवारी थे. प्रेमचंद्र का मूल नाम धनपत राय श्रीवास्तव था. कायस्थ कुल के प्रेमचंद्र का बचपन खेत खलिहानों में बीता था. उन दिनों उनके पास मात्र छः बीघा जमीन थी, परिवार बड़ा होने के कारण उनके घर की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी.

प्रेमचंद्र जब मात्र 15 वर्ष के थे, उनके सौतेले नाना ने उनका विवाह करवा दिया था. एक बाल विधवा शिवरानी से करवा दिया. लेकिन पहली पत्नी से प्रेमचंद्र ज्यादा दिनों तक नहीं निभा सके. साल 1905 में प्रेमचंद्र ने एक बाल विधवा शिवरानी से विवाह कर लिया. कहा जाता है कि शिवरानी के कदम घर में पड़ने के पश्चात प्रेमचंद्र के जीवन की आर्थिक स्थितियां बदलनी शुरू हुई. उनके लेखन में सजगता भी आयी और उसकी मांग भी बढ़ी, साथ ही उन्हें प्रोमोशन मिला वे स्कूलों के डिप्टी इंस्पेक्टर बना दिये गये.

नवाब राय बनाम प्रेमचंद बनाम उपन्यास सम्राट

प्रेमचंद का वास्तविक नाम ‘धनपत राय श्रीवास्तव’ था. वे अपनी ज्यादातर रचनाएं उर्दू में ‘नबावराय’ के नाम से लिखते थे. 1909 में कानपुर के जमाना प्रेस में प्रकाशित उनकी पहली कहानी-संग्रह ‘सोजे वतन’ की सभी प्रतियां ब्रिटिश सरकार ने जब्त कर ली. भविष्य में ब्रिटिश सरकार की नाराजगी से बचने के लिए ‘जमाना’ के संपादक मुंशी दया नारायण ने उन्हें सलाह दी कि वे नवाब राय नाम छोड़कर नये उपनाम प्रेमचंद के नाम से लिखें, अंग्रेज सरकार को भनक भी नहीं लगने पायेगी. उन्हें यह नाम पसंद आया और रातों रात नवाब राय प्रेमचंद बन गये. यद्यपि उनके बहुत से मित्र उन्हें जीवन-पर्यन्त ‘नवाब राव ‘ के नाम से ही सम्बोधित करते रहे.

वणिक प्रेस के मुद्रक महाबीर प्रसाद पोद्दार अकसर प्रेमचंद की रचनाएं बंगला के लोकप्रिय उपन्यासकार शरद बाबू को पढ़ने के लिए दे देते थे. एक दिन महाबीर प्रसाद पोद्दार शरद बाबू से मिलने उनके आवास पर गये. उस समय शरद बाबू प्रेमचंद का कोई उपन्यास पढ़ रहे थे, पोद्दार बाबू ने देखा कि प्रेमचंद के उस उपन्यास के एक पृष्ठ पर शरद बाबू ने प्रेमचंद्र नाम के आगे उपन्यास सम्राट लिख रखा था. बस उसी दिन से प्रेमचंद के नाम के आगे ‘उपन्यास सम्राट’ लिखना शुरू कर दिया.

शिक्षा और संघर्ष

प्रेमचंद को पढ़ने का बहुत शौक था. उनकी ख्वाहिश वकील बनने की थी, लेकिन गरीबी और अभाव से जूझते हुए उन्होंने जैसे-तैसे मैट्रिक की पढ़ाई की. इसके लिए भी उन्हें प्रतिदिन कई मील नंगे पांव चलकर वाराणसी शहर आना पड़ता था. प्रतिदिन पैदल चलकर समय खराब करने के बजाय प्रेमचंद ने शहर में ही एक वकील के घर पर ट्यूशन पढ़ाना शुरू कर दिया. वहीं उन्हें एक छोटा सा कमरा भी मिल गया था. ट्यूशन से जो पांच रूपये मिलते थे, उसमें से तीन रुपये घरवालों को देते और शेष दो रुपये अपने खर्च के लिए रखते थे. मैट्रिक पूरा करने के पश्चात प्रेमचंद ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य, पर्सियन और इतिहास विषय के साथ ग्रेजुएशन पूरा किया.

उपन्यास सम्राट की साहित्यिक विशेषताएं

प्रेमचंद ने अपनी अपनी अधिकांश रचनाओं में आम व्यक्ति की भावनाओं, हालातों, उनकी समस्याओं और उनकी संवेदनाओं का बड़ा मार्मिक शब्दांकन किया. वे बहुमुखी प्रतिभावान साहित्यकार थे. वे सफल लेखक, देशभक्त, कुशलवक्ता, जिम्मेदार संपादक और संवेदनशील रचनाकार थे. उन्होंने उपन्यास, कहानी, नाटक, समीक्षा, लेख, संपादकीय, संस्मरण और अनुवाद जैसी तमाम विधाओं में साहित्य की सेवा की, किन्तु मूलतः कथाकार थे. उन्होंने कुल 15 उपन्यास, 300 से कुछ अधिक कहानियां, 3 नाटक, 10 अनुवाद, 7 बाल-पुस्तकें तथा हज़ारों पृष्ठों के लेख, सम्पादकीय, भाषण, भूमिका, पत्र आदि की रचना की. यह भी पढ़ें: APJ Abdul Kalam Death Anniversary 2019: मिसाइल मैन डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम, जिन्हें पढ़ाई के लिए करना पड़ा था अखबार बेचने का काम, पढ़ें उनका सफर

फिल्मों में किस्मत आजमाने का असफल प्रयास

साल 1930-40 एक ऐसा दौर था, जब देश भर के लेखक और साहित्यकार बंबई फिल्म इंडस्ट्री में किस्मत आजमा रहे थे. इन्हीं में एक प्रेमचंद भी थे. 1934 में पूरी हुई प्रेमचंद की पहली फिल्म ‘मिल मजदूर’ में वर्किंग क्लास की समस्याओं को इतनी मजबूती से उठाया कि तत्कालीन ब्रिटिश सरकार द्वारा संचालित सेंसर बोर्ड घबराकर, इसके प्रदर्शन पर प्रतिबंध लगा दिया. चोरी-छिपे इस फिल्म को लाहौर, दिल्ली और लखनऊ में रिलीज़ किया गया. फ़िल्म का मजदूरों पर ऐसा असर हुआ कि ब्रिटिश सरकार की कार्य पद्धतियों को लेकर विरोध शुरू हो गया.

अंततः आनन-फानन में अंग्रेज सरकार ने फ़िल्म को थियेटर से हटवाया. प्रेमचंद समझ गए कि फिल्म इंडस्ट्री में उनकी बात कोई नहीं सुनेगा. अपनी स्क्रिप्ट के साथ वे किसी तरह का समझौता नहीं करना चाहते थे. फिर निराश होकर 1935 में वह बनारस लौट आये. कालांतर में सत्यजित राय ने उनकी दो कहानियों ‘शतरंज के खिलाड़ी’ (1977) और ‘सद्गति’ (1981) पर फिल्म बनाई. इससे पूर्व प्रेमचंद के निधन के दो वर्ष पश्चात 1938 में ‘सेवासदन’ उपन्यास पर भी फिल्म बनी. 1977 में मृणाल सेन ने उनकी लोकप्रिय कहानी ‘कफन’ पर ‘ओका ऊरी कथा’ नाम से (तेलुगू) फिल्म बनाई. इस फिल्म को सर्वश्रेष्ठ तेलुगू फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला. 1963 में ‘गोदान’ और 1966 में ‘गबन’ उपन्यास पर फिल्में बनीं. 1980 में धारावाहिक ‘निर्मला’ भी बहुत लोकप्रिय हुआ था. लेकिन इसे देखने के लिए प्रेमचंद जीवित नहीं थे.

जीवन के अंतिम दिनों में वह जलोदर रोग से बुरी तरह से ग्रस्त हो गये थे. दिनांक 8 अक्टूबर 1936 को उनका देहांत हो गया.