Guru Gobind Singh Jayanti 2025: गुरु गोविंद सिंह ने 'ग्रंथ साहिब' की रचना क्यों की थी? जानें उनके जीवन के कुछ ऐसे ही प्रसंग!

Guru Gobind Singh Jayanti 2025: सिखों के 10वें गुरु श्री गुरु गोविंद सिंह महज धर्म गुरु ही नहीं, बल्कि एक महान योद्धा, कवि और महान विचारक भी थे, इसलिए सिखों के मन में उनके प्रति अपार श्रद्धा और सम्मान था. गुरु गोविंद सिंह ने सिख धर्म को मजबूती प्रदान करने के साथ ही लोगों को सच्चाई और धर्म के रास्ते पर चलने के लिए भी प्रेरित किया था. दिनांक 6 जनवरी 2025 को गुरु गोविंद सिंह की जयंती के अवसर पर आइये जानते हैं, इनके जीवन के कुछ महत्वपूर्ण रोचक एवं प्रेरक तथ्यों के बारे में...

बाल्यकाल एवं शिक्षा-दीक्षा

गुरु गोविंद सिंह का जन्म पौष मास की सप्तमी को पटना साहिब (बिहार) में हुआ था. उनका जीवन अन्य सिख गुरुओं से काफी अलग था, क्योंकि उनका बचपन अथक संघर्षों से भरा था. काफी छोटी उम्र में उन्होंने देखा कि किस तरह हिंदू धर्म की रक्षा के लिए उनके पिता गुरु तेग बहादुर सिंह शहीद हो गए. संघर्ष के दौर में ही गुरु गोविंद सिंह ने धार्मिक शिक्षा के साथ-साथ युद्ध कला एवं शास्त्रों का भी अध्ययन किया. वह बचपन से ही उत्कृष्ट कवि, महान लेखक और धार्मिक विचारक के रूप में लोकप्रिय हो चुके थे.

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वह एक महान कवि थे

गुरु गोविंद सिंह महज महान योद्धा ही नहीं थे, बल्कि उत्कृष्ट कवि भी थे. उन्होंने अपनी लेखनी के माध्यम से सिख धर्म को जन-जन तक लोकप्रिय बनाया. उनके प्रसिद्ध धर्म ग्रंथों में ‘दसगुरु ग्रंथ साहिब’ और ‘चौपालियां’ की रचना की, जो आज भी सिख समाज के लिए प्रेरणास्रोत हैं. गुरु गोविंद सिंह जी ने अपने जीवन में सिखों को केवल शारीरिक रूप से ही नहीं, बल्कि मानसिक और आत्मिक रूप से भी मजबूत किया. उनके द्वारा लिखी कविताओं में बलिदान, न्याय, और धर्म की रक्षा के विषय प्रमुख थे.

सिख धर्म का सैनिक स्वरूप

गुरु गोविंद सिंह जी ने 1699 में ‘खालसा पंथ’ की स्थापना की. यहां खालसा का अर्थ ‘पवित्र और निष्कलंक’ और यह संप्रदाय सिखों को एक सशक्त, संगठित और धर्म के प्रति निष्ठावान समुदाय के रूप में तैयार करने का उद्देश्य था. उन्होंने सिखों को 'कटा', 'कड़ा', 'कुश्ती', 'कंघा' और 'कृपाण' पहनने का आदेश दिया, जो सिखों की पहचान और उनका धार्मिक कर्तव्य निभाने के प्रतीक थे.

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गुरु गोविंद सिंह बनाम मुगल साम्राज्य

गुरु गोविंद सिंह का संपूर्ण जीवन मुगल साम्राज्य विशेष रूप से औरंगजेब के साथ संघर्षों से भरा हुआ था. गुरु गोविंद सिंह ने औरंगजेब की धर्मनिरपेक्षता के खिलाफ आवाज उठाई और सिखों के अधिकारों की रक्षा की.

उन्होंने कई युद्ध लड़े, लेकिन अपने धर्म की रक्षा के लिए समझौता नहीं किया. उनके नेतृत्व में सिखों ने कई महत्वपूर्ण संघर्षों जिसमें 'लाहौर', 'नदीम-उल-मुल्क', 'मोकलसर' और 'चमकौर' के युद्ध प्रमुख हैं.

बलिदान

गुरु गोविंद सिंह के जीवन में एक दुखद और हृदयविदारक घटना यह थी कि उन्होंने अपने चारों पुत्रों को धर्म की रक्षा में शहीद होते देखा. इनकी शहादत गुरुजी के लिए सबसे ज्यादा संवेदनशील था. गुरुजी ने अपने पुत्रों के बलिदान को स्वीकार किया और सिद्ध किया कि धर्म और सच्चाई के मार्ग पर चलना किसी भी व्यक्तिगत नुकसान से बड़ा है.

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गुरु गोविंद सिंह का ‘जन्म और मृत्यु’ का विचार

गुरु गोविंद सिंह ने जीवन को एक यात्रा के रूप में देखा. उनके उपदेशों में मृत्यु को एक परिवर्तन के रूप में माना गया था. उन्होंने अपने अनुयायियों को सिखाया कि मृत्यु से भयभीत न हों, क्योंकि यह आत्मा का अहम हिस्सा है. उन्होंने अपने अनुयायियों को समझाया कि मृत्यु के बाद आत्मा केवल शरीर से मुक्त होकर परमात्मा में विलीन हो जाती है.

गुरु गोविंद सिंह और उनके अंतिम शब्द

17 अक्टूबर 1708 को निधन से पूर्व गुरु गोविंद सिंह ने कहा था, -हे प्रिय, जब मैं शरीर से मुक्त हो जाऊं, तब मुझसे न जुड़ें. मैं सिखों को अपने ग्रंथ के माध्यम से मार्गदर्शन दूंगा, और वह ग्रंथ 'ग्रंथ साहिब' होगा. इस तरह उन्होंने गुरु ग्रंथ साहिब को सिखों का स्थायी गुरु घोषित किया, जो आगे चलकर सिख समुदाय की आधिकारिक धार्मिक शास्त्र बन गया.