क्या आपने लिया है बांस की पत्ती की चाय का स्वाद?
प्रतीकात्मक तस्वीर (Photo Credit: Image File)

आपने आज तक कई तरह की चाय का स्वाद लिया होगा. लेकिन क्या आपने कभी बांस की पत्ती से बनी चाय पी है? पूर्वोत्तर भारत में बांग्लादेश की सीमा से सटे त्रिपुरा के एक आदिवासी युवक समीर जमातिया बांस की पत्ती से बना रहे हैं चाय.पूर्वोत्तर भारत में बांग्लादेश की सीमा से सटे त्रिपुरा के एक आदिवासी युवक समीर जमातिया ने इस सच साबित कर दिखाया है. उन्होंने इसके जरिए स्थानीय लोगों को रोजगार भी मुहैया कराया है. वो चीन से यह तकनीक ले आए हैं. लेकिन उनकी राह में बाधाएं भी कम नहीं रही हैं. अपने उद्यम के दौरान उनको लालफीताशाही की बाधाएं पार करनी पड़ी है.

उनका कहना है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तो उद्यमिता को बढ़ावा देने का दावा करते हैं. लेकिन जमीनी हकीकत इससे अलग है. बावजूद इसके उनका हौसला बुलंद है. उन्होंने अब बांस के पत्तों से बीयर बनाने का प्रस्ताव भी रखा है. लेकिन सरकार की ओर से इसे मंजूरी नहीं मिल सकी है.

चीन में सीखी ये तकनीक

गोमती जिले के गारजी गांव के रहने वाले जमातिया बताते हैं, "बांस सदियों से हम आदिवासियों की जिंदगी का अहम हिस्सा रहा है. हम इसे खाते भी हैं और इससे कई दूसरी चीजें भी बनाते हैं. बांस से लगाव के कारण ही मैंने उसकी पत्तियों से चाय तैयार करने की तकनीक सीखी और यहां आकर काम शुरू किया ताकि इलाके के लोगों को रोजगार मिल सके."

समीर जमातिया पेशे से खुद को 'बैम्बू टेक्नॉलजी एक्सपर्ट' यानी बांस तकनीक विशेषज्ञ कहते हैं. उन्होंने चीन में इस तकनीक की पढ़ाई है.

समीर डीडब्ल्यू से बातचीत में बताते हैं, "बांस की पत्तियों से बनी चाय की काफी मांग है. फिलहाल हर महीने मैं एक हजार किलो से ज्यादा चाय बेचता हूं. दक्षिण भारत के कई थोक खरीददार इसे खरीद कर निर्यात भी करते हैं. अपने सीमित संसाधनों और सरकार की ओर से जरूरी अनुमति नहीं मिलने की वजह से वो खुद इसका निर्यात नहीं कर पा रहे हैं."

सेहत के लिए कितनी फायदेमंद ये चाय

समीर के मुताबिक, बांस की पत्तियों से बनी चाय सेहत के लिहाज से काफी फायदेमंद है. उनकी बनाई चाय की पत्तियों की पांच सौ किलो की एक खेप दिल्ली के एक निर्याक ने खरीदी है. इसके अलावा तमिलनाडु के विक्रेता और निर्यातक भी इसमें काफी दिलचस्पी ले रहे हैं.

बांस की पत्ती की चाय बनाने की प्रक्रिया समझाते हुए समीर बताते हैं, "इसके लिए पत्तियों के चयन में बेहद सावधानी बरतनी पड़ती है. चाय के लिए नई और मुलायम पत्तियां ही सबसे मुफीद हैं. उसके बाद उन पत्तियों को एक ग्रीनहाउस में कम से कम सात दिनों तक सुखाया जाता है. सूख जाने के बाद उनको हाथों से मसल कर और फिर पीस कर बुरादा बनाया जाता है." इसकी प्रोसेसिंग के लिए उनका अपना संयंत्र है.

समीर ने इस काम में अपनी कम्युनिटी के लोगों को भी भागीदार बनाया है. इससे इलाके के दर्जनों लोगों को रोजगार मिला है. वो बताते हैं, "बांस की पत्तियां चुनने से लेकर उसे सुखाने और बाकी प्रक्रिया में समाज के लोग शामिल हैं. वही लोग चाय की कीमत भी तय करते हैं."

सरकार से मदद पाने की उम्मीद

इस काम में सरकार से मदद मिलने के सवाल पर समीर कहते हैं, "मदद तो दूर सरकारी लालफीताशाही ने रास्ते में बाधाएं ही खड़ी की हैं. जंगल पर आदिवासियों का अधिकार है. लेकिन वन विभाग वहां से पत्तियां लेने से रोकता है. उसकी दलील है कि यह जंगल का उत्पाद है और इस पर विभाग का अधिकार है." समीर का सवाल है कि जब जमीन का पट्टा हम आदिवासियों के नाम है तो उसका उत्पाद सरकार का कैसे हो गया?

समीर का कहना है कि वर्ष 2017 के संशोधित भारतीय वन अधिनियम, 1927 की धारा 2 के तहत बांस को पेड़ के श्रेणी से हटाने का फैसला अब भी लोगों के गले के नीचे नहीं उतर रहा है. उनका सवाल है कि आखिर केंद्र सरकार रबर बोर्ड, टी बोर्ड, स्पाइस बोर्ड, कोकोनट बोर्ड और कॉफी बोर्ड की तर्ज पर नेशनल बैम्बू बोर्ड का गठन कब करेगी?

भारत में चाय उत्पादन में अचानक गिरावट क्यों?

समीर चीन से बैम्बू टेक्नॉलजी में डिप्लोमा कर चुके हैं. इसके लिए उनको स्कालरशिप मिली थी. उसके बाद उन्होंने कंबोडिया, वियतनाम और जापान जैसे देशों का दौरा कर इस बारे में नई-नई जानकारियां हासिल की. समीर बताते हैं, सरकार से मदद मिले तो बड़े पैमाने पर इस चाय का उत्पादन किया जा सकता है.

बांस से स्वदेसी बीयर बनाने की योजना

उनकी योजना बांस से स्वदेशी तकनीक के जरिए बीयर बनाने की भी है. इसकी कीमत फिलहाल बाजार में प्रचलित बीयर के तमाम ब्रांडों के मुकाबले आधी होगी. जमातिया बताते हैं, "दूसरे उत्पादों के उलट इसमें बांस के औषधीय गुण भी होंगे. बांस से बने उत्पादों में एंटीऑक्सीडेंट और एंटीबायोटिक गुण होते हैं."

पर्यावरण को ज्यादा क्या भाता है: चाय या कॉफी?

कुछ कंपनियों ने सुदूर दक्षिण में चाय और बीयर की प्रोसेसिंग यूनिट लगाने का प्रस्ताव भी दिया है. लेकिन समीर का कहना है कि दूरी ज्यादा होने के कारण पूर्वोत्तर से कच्चा माल भेजना संभव नहीं होगा. अगर असम की राजधानी गुवाहाटी में ऐसे संयंत्र लगें तो फायदा हो सकता है. लेकिन उन कारोबारियों ने असम की मौजूदा परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए अपने कदम पीछे खींच लिए.

लेकिन समीर हताश नहीं हुए है. वह कहते हैं, "इस तकनीक और उत्पाद के प्रचार-प्रसार की कोशिश जारी रहेगी. साथ ही सरकारी अधिकारियों से बातचीत कर मौजूदा बाधाओं को भी दूर करने का प्रयास किया जाएगा."

कहीं और अपना संयंत्र लगाने के आइडिया के बारे में पूछे जाने पर समीर कहते हैं कि इस काम से स्थानीय लोगों को रोजगार मिल रहा है, जो कहीं और शिफ्ट होने की स्थिति में लोगों से छिन जाएगा.