नयी दिल्ली, 12 मार्च चुनावों में दूसरे मतदाता के नाम पर फर्जी मतदान रोकने के लिए पहली बार 1957 में मतदाता पहचान-पत्र तैयार करने की योजना बनायी गयी, लेकिन इसकी राष्ट्रव्यापी शुरुआत तीन दशक से अधिक समय बाद 1993 में हुई।
यद्यपि निर्वाचन आयोग ने एक बार यहां तक सोच लिया था कि "(मतदाता पहचान-पत्र का) बड़े पैमाने पर संतोषजनक ढंग से इस्तेमाल व्यावहारिक नहीं हो पाएगा।" लेकिन अब यह भारत की चुनाव प्रणाली का मुख्य आधार बन गया है। मतदाता पहचान-पत्र अब पहचान और पते के प्रमाण के रूप में भी स्वीकार्य हैं।
मई 1960 में एक उपचुनाव के लिए कलकत्ता (दक्षिण पश्चिम) संसदीय क्षेत्र में मतदाताओं के लिए फोटो पहचान-पत्र जारी करने की एक प्रायोगिक परियोजना शुरू की गई थी, लेकिन यह सफल नहीं हो सकी तथा यह परियोजना लगभग दो दशक तक ठंडे बस्ते में चली गयी।
सिक्किम में 1979 के विधानसभा चुनावों के दौरान फोटो पहचान-पत्र जारी किए गए थे और बाद में इसे असम, मेघालय और नगालैंड जैसे अन्य पूर्वोत्तर राज्यों में भी लागू किया गया था।
इसके बाद 1993 में मतदाता फोटो पहचान-पत्र की राष्ट्रव्यापी शुरुआत हुई।
भारत में चुनावों की यात्रा का दस्तावेजीकरण करने के लिए निर्वाचन आयोग द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘‘लीप ऑफ फेथ’’ के अनुसार, जन प्रतिनिधित्व (संशोधन) विधेयक, 1958 में फोटो पहचान-पत्र पेश करने का एक दिलचस्प प्रावधान था।
भारत के पहले मुख्य निर्वाचन आयुक्त (सीईसी) सुकुमार सेन को संतोष था कि उनकी सेवानिवृत्ति से पहले 27 नवंबर, 1958 को उनके छोटे भाई एवं तत्कालीन केंद्रीय कानून मंत्री अशोक कुमार सेन ने संसद के निचले सदन में संबंधित विधेयक पेश किया था।
के वी के सुंदरम के भारत के दूसरे सीईसी बनने के कुछ ही दिनों के भीतर यह विधेयक 30 दिसंबर, 1958 को कानून बन गया। सुंदरम 20 दिसंबर, 1958 से 30 सितंबर, 1967 तक सबसे लंबे समय तक सेवा देने वाले सीईसी भी थे।
वर्ष 1962 के लोकसभा चुनावों पर अपनी रिपोर्ट में, निर्वाचन आयोग ने कहा कि 1957 के आम चुनावों के तुरंत बाद, यह सुझाव दिया गया था कि भीड़भाड़ वाले शहरी क्षेत्रों में सभी मतदाताओं के फोटो संलग्न पहचान-पत्र जारी करने से मतदान के समय पहचान में काफी आसानी होगी और किसी मतदाता के नाम पर अन्य व्यक्ति द्वारा मतदान करने पर विराम भी लगेगा।
रिपोर्ट में कहा गया, ‘‘निर्वाचन आयोग ने इसे कलकत्ता दक्षिण-पश्चिम संसदीय क्षेत्र के उपचुनाव में प्रयोगात्मक उपाय के तौर पर आजमाया था। दस महीने की अवधि में किए गए कड़े प्रयासों के बावजूद, कुल 3.42 लाख मतदाताओं में से केवल 2.13 लाख मतदाताओं की ही तस्वीर खींची जा सकीं और केवल 2.10 लाख मतदाताओं को ही तस्वीरों वाले पहचान-पत्र जारी किये जा सके।’’
रिपोर्ट में कहा गया है, ‘‘इस प्रकार, आठ में से तीन मतदाताओं को पहचान-पत्र उपलब्ध नहीं कराया जा सका। इसकी मुख्य वजह थी कि बड़ी संख्या में महिला मतदाताओं ने अपनी तस्वीरें पुरुष या महिला छायाकारों से खिंचवाने में आनाकानी की। इस प्रकार मतदाताओं के एक वर्ग को पहचान-पत्र नहीं मिल सका।’’
सुंदरम के अनुसार 1962 के आम चुनावों से संबंधित रिपोर्ट जारी होने के बाद यह कहा गया था कि कोलकाता या देश में कहीं भी बड़े पैमाने पर, "तंत्र को संतोषजनक ढंग से संचालित करना व्यावहारिक नहीं होगा’’ और उसके बाद इस योजना को रद्द करना पड़ा।
वर्ष 1993 में अंततः निर्वाचक फोटो पहचान पत्र पेश किए गए। आयोग ने 2021 में इलेक्ट्रॉनिक ‘इलेक्टोरल फोटो आइडेंटिटी कार्ड’ (ई-एपिक) शुरू किया।
भारत अपनी 18वीं लोकसभा के लिए आम चुनाव की तैयारी कर रहा है। चुनाव कार्यक्रम के जल्द ही घोषित होने की संभावना है।
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