पासपोर्ट एक यात्रा दस्तावेज है, जिसमें हमारी राष्ट्रीयता दर्ज होती है. इससे तय होता है कि हम कितने देशों में बिना वीजा के यात्रा कर सकते हैं. लेकिन पासपोर्ट प्रणाली शुरू होने से पहले विदेश यात्राएं कैसे हुआ करती थीं.ब्रिटेन के नागरिकों ने साल 2016 में यूरोपीय संघ (ईयू) से अलग होने के पक्ष में मतदान किया था. इसके बाद ब्रिटेन का पासपोर्ट रखने वाले लोगों के पास यह अधिकार नहीं रहा कि वे यूरोप में आजादी से घूम सकें. यूरोपीय संघ को छोड़ने से ब्रिटिश नागरिकों की एक तरह से पहचान बदल गई. अब वे यूरोपीय नहीं रहे थे.
जर्मनी में रह रहे कई ब्रिटिश नागरिकों ने तब जर्मन नागरिकता के लिए आवेदन करने का फैसला किया. ऐसा इसलिए क्योंकि जर्मन पासपोर्ट मिलने पर वे यूरोपीय संघ में बिना वीजा के रह सकते थे. लेकिन इसके चलते, कई ब्रिटिश नागरिकों में अपना देश छोड़ने का दुख और बढ़ गया.
लेकिन यह बहुत पुरानी बात नहीं है जब अन्य देशों में जाने के लिए पासपोर्ट की जरूरत ही नहीं होती थी. लोग आजादी के साथ एक देश से दूसरे देश में जा सकते थे.
करीब 100 साल पहले शुरू हुआ पासपोर्ट का चलन
पासपोर्ट को आज हम जिस रूप में देखते हैं, उसकी शुरुआत करीब 100 साल पहले हुई थी. यह कहना है हरमीन डीबोल्ट का, जो स्विट्जरलैंड के जेनेवा स्थित यूनाइटेड नेशंस लाइब्रेरी एंड आर्काइव्स में काम करती हैं.
जेनेवा में लीग ऑफ नेशंस का मुख्यालय हुआ करता था. प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद 1920 में लीग ऑफ नेशंस की स्थापना की गई थी. इसका मकसद विश्व में शांति बनाए रखना था. बाद में संयुक्त राष्ट्र ने इसकी जगह ले ली.
यूरोप जाना अब भारतीयों के लिए और आसान होगा
यह वह समय था, जब पुराने औपनिवेशक साम्राज्य ढह रहे थे और नए देशों और राज्यों का जन्म हो रहा था. लोग अब अपने राजाओं की प्रजा नहीं थे, बल्कि वे उन नए देशों के नागरिक थे. युद्ध की वजह से विस्थापित होने के चलते कई लोग दूसरे देशों में भी जा रहे थे. उस दौरान, लोग अपनी पहचान सिद्ध करने के लिए अपने स्थानीय दस्तावेज साथ लेकर चलते थे.
युद्ध के दौरान ही, जर्मनी, फ्रांस, यूके और इटली ने इस बात पर जोर देना शुरू कर दिया कि दुश्मन देशों के नागरिकों को उनके क्षेत्र में आने के लिए आधिकारिक पहचान दस्तावेजों की जरूरत होगी.
डाइबोल्ट कहती हैं, "सीमा पर तैनात अधिकारियों का सामना अलग-अलग तरह के यात्रा दस्तावेजों से होने लगा, जो अलग-अलग आकृति और आकार के थे. तब यह जानना मुश्किल होता था कि पासपोर्ट असली है या नहीं. इसलिए, उन्हें इस समस्या का समाधान ढूंढ़ने की जरूरत थी.”
आखिरकार, 1920 में लीग ऑफ नेशंस ने पेरिस में दुनियाभर के नेताओं को इकट्ठा किया. जहां इन नेताओं ने पासपोर्ट और सीमा शुल्क जैसे मुद्दों पर हुई एक कॉन्फ्रेंस में हिस्सा लिया. इसके बाद, आधिकारिक रूप से यह तय हो गया कि सभी जगहों पर पासपोर्ट एक जैसे दिखने चाहिए और उनमें एक तरह की जानकारी होनी चाहिए.
यह तय हुआ कि पासपोर्ट में 32 पेज होने चाहिए. उसका आकार छह गुणा चार इंच का होना चाहिए. साथ ही पासपोर्ट के कवर पर देश का नाम और आधिकारिक चिन्ह होना चाहिए. अभी भी पासपोर्ट इसी तरह बनाए जाते हैं.
पासपोर्ट से परेशान हुए लोग
डीबोल्ट बताती हैं कि जल्द ही पासपोर्ट का विरोध शुरू हो गया. विश्व के कई नेताओं का मानना था कि पहले वाली प्रणाली ही बेहतर थी, जब लोग किसी दस्तावेज की चिंता किए बिना आजादी से घूम सकते थे.
आम जनता और प्रेस तब पासपोर्ट को पसंद नहीं करते थे. लोगों को लगता था कि पासपोर्ट से उनकी आजादी और निजता कम हुई है. इसे जारी करने की प्रक्रिया में काफी नौकरशाही और लालफीताशाही भी शामिल थी.
1926 में न्यूयॉर्क टाइम्स के एक लेख में इस विरोध का जिक्र किया गया था. अखबार ने लिखा था, "क्या पासपोर्ट को यात्रा की एक स्थायी जरूरत के तौर पर बनाए रखना चाहिए. युद्ध के बाद प्रचलन में आयी यह प्रणाली बोझिल और परेशान करने वाली है. यह देशों के बीच मुक्त आवाजाही में भी रुकावट पैदा करती है.”
लेकिन अब वापसी पुरानी स्थिति में वापसी करना मुश्किल था. लीग ऑफ नेशंस के सदस्य उस पुराने समय में जाने पर सहमत नहीं हुए जब सीमा नियंत्रण और पासपोर्ट नहीं हुआ करते थे. इसलिए पासपोर्ट चलन में बने रहे.
लाखों लोग नहीं हासिल कर सकते हैं पासपोर्ट
दुनिया में ऐसे लोग भी हैं, जिनकी कोई राष्ट्रीयता या नागरिकता नहीं है और इस वजह से उनके पास पासपोर्ट भी नहीं है. यूएस इंस्टीट्यूट ऑफ डिप्लोमेसी एंड ह्यूमन राइट्स के मुताबिक, दुनियाभर में लगभग एक करोड़ लोग ऐसे हैं, जिन्हें कोई भी देश अपने नागरिकों के तौर पर मान्यता नहीं देता. ऐसा अक्सर कुछ नस्लीय समूहों के खिलाफ भेदभाव होने के चलते होता है. जैसे- रोमा और सिंती समुदाय के लोग, जिनकी जर्मनी में लगभग 70 फीसदी आबादी अभी भी देशविहीन है.
लेकिन देशविहीन होना कोई नई बात नहीं है. ऐसा होने की शुरुआत लगभग उसी समय हुई, जब पासपोर्ट का चलन शुरू हुआ क्योंकि तब पहले विश्व युद्ध के बाद साम्राज्य खत्म हुए और नए देशों ने आकार लिया. उस समय यूरोप में लगभग 90 लाख लोग विस्थापित हुए थे. इस बीच, जब यूरोप के नक्शे को फिर से खींचा गया तो लाखों लोगों ने खुद को ऐसे देशों में मौजूद पाया जो या तो उनकी कानूनी पहचान को मान्यता नहीं देते थे या फिर उन्हें अपनी राष्ट्रीयता देने के लिए तैयार नहीं थे.
किस देश का पासपोर्ट है सबसे ज्यादा ताकतवर
दुनिया भर में लोगों के लिए, पासपोर्ट बहुत महत्व रखता है. एक व्यक्ति की राष्ट्रीयता तय करती है कि वे कहां यात्रा कर सकते हैं और कहां रह सकते हैं. इसलिए हर साल पासपोर्ट की रैंकिंग भी जारी की जाती हैं, जो बताती हैं कि किस देश का पासपोर्ट कितना ताकतवर है. यह रैंकिंग इस आधार पर तय होती हैं कि उस देश के पासपोर्ट के जरिए कितने देशों में बिना वीजा के यात्रा की जा सकती है.
ग्लोबल पासपोर्ट पावर रैंक 2025 में भारत 69वें स्थान पर है. पहला स्थान संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) का है जो तेल उत्पादन करने वाला अमीर देश है. पहले स्थान का मतलब है कि यहां के लोगों को अलग-अलग देशों में जाने की सबसे ज्यादा आजादी है. लेकिन यहां भी कुछ कमियां मौजूद हैं.
यूएई में युवा पासपोर्ट तभी हासिल कर सकते हैं, जब उनके पिता अमीराती हों. हालांकि, इसमें कुछ अपवाद भी हैं. इसके अलावा, अल्पसंख्यक समूहों या शासन कर रहे शाही परिवार के विरोधियों को अक्सर पासपोर्ट से वंचित कर दिया जाता है. यह सिर्फ एक उदाहरण है कि कैसे पासपोर्ट स्वतंत्रता और शोषण दोनों का ही शक्तिशाली साधन हैं.
पासपोर्ट रैंकिंग में सबसे नीचे अफगानिस्तान और सीरिया हैं. युद्ध से तबाह हो चुके इन देशों के नागरिकों को अन्य देशों में जाने की सबसे कम आजादी है. हालांकि, सीरिया में हाल ही में हुए सत्ता परिवर्तन के बाद भविष्य में इसकी रैंकिंग में बदलाव हो सकता है.