वैज्ञानिकों ने देखा, धातुओं ने खुद ही ठीक कर लीं दरारें

वैज्ञानिकों ने एक प्रयोग के दौरान पाया कि कुछ विशेष परिस्थितियों में धातुएं अपनी दरारों को खुद ही भर सकती हैं.

साइंस Deutsche Welle|
वैज्ञानिकों ने देखा, धातुओं ने खुद ही ठीक कर लीं दरारें
प्रतीकात्मक तस्वीर (Photo Credit: Image File)

वैज्ञानिकों ने एक प्रयोग के दौरान पाया कि कुछ विशेष परिस्थितियों में धातुएं अपनी दरारों को खुद ही भर सकती हैं. कोल्ड-वेल्डिंग नाम की यह प्रक्रिया बेहद फायदेमंद साबित हो सकती है.क्या आपने टर्मिनेटर फिल्म देखी है? तब तो आपको वो सीन जरूर याद होगा जिसमें गोली लगने के बाद रोबोट का धातु से बना शरीर अपने आप भरने लगता है और वह फिर से भला-चंगा हो जाता है. 1991 में की गयी यह कल्पना अब सच होने जा रही है.

बुधवार को वैज्ञानिकों ने बताया कि उनका एक प्रयोग सफल रहा है जिसमें प्लैटिनम और तांबे में आईं दरारें कुछ ही पलों में अपने आप भर गईं. यह प्रयोग नैनोस्केल पर किया गया था जिसका मकसद यह अध्ययन करना था कि जब धातुओं को बहुत अधिक दबाव में रखा जाता है तो उनके अंदर दरारें क्यों पड़ती हैं.

बहुत काम की खोज

इस प्रयोग से उत्साहित वैज्ञानिकों का कहना है कि इन धातुओं का इस्तेमाल ऐसी मशीनें बनाने के लिए किया जा सकता है जो खुद ही भर जाएंगी और निकट भविष्य में मशीनों में टूट-फूट कम हो सकती है.

धातुओं में दबाव के कारण दरारें पड़ने की प्रक्रिया को अक्सर धातु-थकान कहा जाता है. मशीनों, वाहनों या ढांचों के पुर्जों में ये बेहद महीन दरारें आ जाती हैं. ऐसा तब होता है जब धातु पर बहुत लंबे समय तक लगातार दबाव रहता है या फिर वे लगातार गति में रहती हैं. ऐसा टूट-फूट के कारण भी हो सकता है. समय के साथ ये दरारें और ज्यादा बढ़ती जाती हैं.

धातु-थकान के कारण मशीनों को काफी नुकसान हो सकता है और वे बड़े हादसों की वजह बन सकती हैं. मसलन, जेट इंजन, इमारतों या पुलों आदि में लगी धातुओं में टूट के कारण बड़े हादसे हो सकते हैं.

अमेरिका के न्यू मेक्सिको में स्थित सैंडिया नेशनल लैब के शोधकर्ताओं ने अपने प्रयोग में एक तकनीक का इस्तेमाल किया. इस प्रयोग में धातु के टुकड़ों को 200 बार प्रति सेकंड के बल से खींचा गया. शुरुआत में तो दरारें पड़ीं और वे फैलती चली गईं. लेकिन प्रयोग के 40 मिनट के भीतर ही दरारें भरने लगीं.

क्या है कोल्ड-वेल्डिंग?

शोधकर्ताओं ने इसे ‘कोल्ड-वेल्डिंग' नाम दिया. नेचर पत्रि4%BE%E0%A4%A4%E0%A5%81%E0%A4%93%E0%A4%82+%E0%A4%A8%E0%A5%87+%E0%A4%96%E0%A5%81%E0%A4%A6+%E0%A4%B9%E0%A5%80+%E0%A4%A0%E0%A5%80%E0%A4%95+%E0%A4%95%E0%A4%B0+%E0%A4%B2%E0%A5%80%E0%A4%82+%E0%A4%A6%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%87%E0%A4%82&body=Check out this link https%3A%2F%2Fhindi.latestly.com%2Ftechnology%2Fscience%2Fscientists-observed-metals-themselves-heal-cracks-1871611.html" title="Share by Email">

साइंस Deutsche Welle|
वैज्ञानिकों ने देखा, धातुओं ने खुद ही ठीक कर लीं दरारें
प्रतीकात्मक तस्वीर (Photo Credit: Image File)

वैज्ञानिकों ने एक प्रयोग के दौरान पाया कि कुछ विशेष परिस्थितियों में धातुएं अपनी दरारों को खुद ही भर सकती हैं. कोल्ड-वेल्डिंग नाम की यह प्रक्रिया बेहद फायदेमंद साबित हो सकती है.क्या आपने टर्मिनेटर फिल्म देखी है? तब तो आपको वो सीन जरूर याद होगा जिसमें गोली लगने के बाद रोबोट का धातु से बना शरीर अपने आप भरने लगता है और वह फिर से भला-चंगा हो जाता है. 1991 में की गयी यह कल्पना अब सच होने जा रही है.

बुधवार को वैज्ञानिकों ने बताया कि उनका एक प्रयोग सफल रहा है जिसमें प्लैटिनम और तांबे में आईं दरारें कुछ ही पलों में अपने आप भर गईं. यह प्रयोग नैनोस्केल पर किया गया था जिसका मकसद यह अध्ययन करना था कि जब धातुओं को बहुत अधिक दबाव में रखा जाता है तो उनके अंदर दरारें क्यों पड़ती हैं.

बहुत काम की खोज

इस प्रयोग से उत्साहित वैज्ञानिकों का कहना है कि इन धातुओं का इस्तेमाल ऐसी मशीनें बनाने के लिए किया जा सकता है जो खुद ही भर जाएंगी और निकट भविष्य में मशीनों में टूट-फूट कम हो सकती है.

धातुओं में दबाव के कारण दरारें पड़ने की प्रक्रिया को अक्सर धातु-थकान कहा जाता है. मशीनों, वाहनों या ढांचों के पुर्जों में ये बेहद महीन दरारें आ जाती हैं. ऐसा तब होता है जब धातु पर बहुत लंबे समय तक लगातार दबाव रहता है या फिर वे लगातार गति में रहती हैं. ऐसा टूट-फूट के कारण भी हो सकता है. समय के साथ ये दरारें और ज्यादा बढ़ती जाती हैं.

धातु-थकान के कारण मशीनों को काफी नुकसान हो सकता है और वे बड़े हादसों की वजह बन सकती हैं. मसलन, जेट इंजन, इमारतों या पुलों आदि में लगी धातुओं में टूट के कारण बड़े हादसे हो सकते हैं.

अमेरिका के न्यू मेक्सिको में स्थित सैंडिया नेशनल लैब के शोधकर्ताओं ने अपने प्रयोग में एक तकनीक का इस्तेमाल किया. इस प्रयोग में धातु के टुकड़ों को 200 बार प्रति सेकंड के बल से खींचा गया. शुरुआत में तो दरारें पड़ीं और वे फैलती चली गईं. लेकिन प्रयोग के 40 मिनट के भीतर ही दरारें भरने लगीं.

क्या है कोल्ड-वेल्डिंग?

शोधकर्ताओं ने इसे ‘कोल्ड-वेल्डिंग' नाम दिया. नेचर पत्रिका में छपे अध्ययन में शोधकर्ता ब्रैड बॉयस कहते हैं, "कोल्ड-वेल्डिंग मेटलर्जी की प्रक्रिया है जिसमें धातु की दो मुलायम और साफ सतह जब पास आती हैं तो एटॉमिक बॉन्ड को फिर से बना लेती हैं.”

बॉयस बताते हैं कि टर्मिनेटर फिल्म के खुद से घाव भरने वाले रोबोट के उलट यह प्रक्रिया इतनी महीन होती है कि इंसान को नंगी आंखों से नजर नहीं आती. वह कहते हैं, "ऐसा नैनोस्केल पर होता है और हम इसे अभी तक नियंत्रित नहीं कर पाए हैं.”

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वैज्ञानिकों ने अपने प्रयोग में धातु के जो टुकड़े इस्तेमाल किये वे 40 नैनोमीटर मोटे और कुछ माइक्रोमीटर चौड़े थे. एक नैनोमीटर 0.000000001 मीटर के बराबर होता है. बॉयस के मुताबिक कोल्ड-वेल्डिंग की प्रक्रिया सिर्फ प्लैटिनम और तांबे में देखी गयी लेकिन कंप्यूटर सिमुलेशन ने दिखाया है कि अन्य धातुओं में भी ऐसा हो सकता है. वह कहते हैं, "यह पूरी तरह संभव है कि स्टील जैसे अलॉय भी ऐसा कर सकते हैं. यह भी संभव है कि धातुओं को इस तरह बनाया जाए कि वे इस प्रक्रिया का लाभ उठा सकें.”

वैज्ञानिकों का मानना है कि यह जानकारी वैकल्पिक डिजाइन बनाने में इस्तेमाल की जा सकती है या इंजीनियरिंग के दौरान इसका प्रयोग किया जा सकता है ताकि धातु-थकान के खतरों को कम से कम किया जा सके. बॉयस कहते हैं, "यह नयी जानकारी मौजूदा ढांचों में धातु-थकान को समझने में, उनकी क्षमता को सुधारने में और खतरों का पूर्वानुमान लगाने में भी काम आ सकती है.”

दस साल का इंतजार

वैज्ञानिकों ने पहले भी कुछ खुद की मरम्मत करने वाले मटीरियल बनाए हैं, लेकिन वे ज्यादातर प्लास्टिक से बने हैं. ताजा शोध में शामिल रहे टेक्सस की ए एंड एम यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर माइकल डेम्कोविच ने एक दशक पहले ही कोल्ड-वेल्डिंग जैसे गुण होने का पूर्वानुमान जाहिर किया था.

डेम्कोविच ने कहा था कि जिन धातुओं में टूट-फूट और ज्यादा खराब हो जानी चाहिए, विशेष परिस्थितियों में दबाव के दौरान उनमें उलटा असर हो सकता है. वह कहते हैं, "मेरा अनुमान है कि हमारी खोज को असल जिंदगी में इस्तेमाल करने में दस साल और लगेंगे.”

ताजा प्रयोग बहुत विशेष परिस्थितियों में किया गया और इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप नाम की एक मशीन का प्रयोग किया गया. अब वैज्ञानिकों के सामने सवाल यह है कि कोल्ड-वेल्डिंग खुली हवा में भी संभव है या नहीं. हालांकि बॉयस कहते हैं कि अगर वैक्यूम में भी यह प्रक्रिया काम कर रही है, तो भी काफी फायदेमंद हो सकती है.

वीके/सीके (रॉयटर्स)

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