17 जुलाई से श्रावण मास का प्रारंभ हो रहा है. इस पूरे माह जगह-जगह भगवान शिव जी की पूजा अर्चना शुरू हो जाएगी. भगवान शंकर अन्य सभी देवताओं से हर दृष्टि से भिन्न हैं. उनका रहन-सहन, उनके भोलेपन से जुड़ी कथाएं, उनका वैरागी जीवन, उनके पसंदीदा प्रसाद, उनका साज श्रृंगार सभी कुछ रहस्यमय होता है. जटाओं से बहती गंगा की धारा, उनके दिव्य व्यक्तित्व को चार चांद लगाता माथे का चंद्रमा, शरीर पर भस्म, गले, जटाओं एवं कलाइयों में रुद्राक्ष की मालाएं, गले में फुफकार मारते नाग देवता, पैरों में मोटे-मोटे कड़े, डमरू, हाथों में चमचमाता त्रिशूल इत्यादि. किसी भी देवता के शरीर पर इस तरह का श्रृंगार नजर नहीं आता. लेकिन क्या आपको पता है कि श्रृंगार की हर वस्तु का अलग-अलग महत्व है. आइए जानें भोलेनाथ के इस दिव्य एवं रहस्यमय श्रृंगार के पीछे का सच
भस्मः शिव जी के औघड़ जीवन का प्रतीक
भगवान शंकर के शरीर पर भस्मों का उल्लेख विभिन्न शास्त्रों में भी उल्लेखित है. एक तरफ सामान्य सा दिखने वाला भस्म भगवान शंकर जी के औघड़ जीवन को दर्शाता है, वहीं इस भस्म के प्रयोग के पीछे वैज्ञानिक तर्क भी है कि किस तरह से शरीर पर लिपटे ये भस्म शरीर के रोम छिद्रोंको बंद कर देती है, जो शरीर को कड़ी धूप, बारीश और कड़ाके की ठंड से भी बचाता है. काशी विश्वनाथ में मंगला आरती के दरम्यान शिव जी के शरीर के इसी रूप को देखा जा सकता है. मान्यता है कि शिव जी को इस रूप मे महिलाओं को देखने की अनुमति नहीं है.
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रुद्राक्ष की उपज में भगवान शंकर जी की अहम भूमिका का चित्रण शिव पुराण में किया गया है. पौराणिक ग्रंथों के अनुसार भगवान शिव ने जगहित के लिए कई वर्षों तक कठोर तप किया था. सैकड़ों वर्ष बाद जब उन्होंने अपनी आंखें खोली तो उनकी आंखों से आंसू की कुछ बूंदे जमीन पर गिरीं. कहा जाता है कि उन आंसू की बूंदों से रूद्राक्ष का निर्माण हुआ. मान्यता है कि कोई भक्त सच्चे मन से भगवान शंकर जी की आऱाधना करने के बाद रुद्राक्ष धारण करता है तो उसके तन-मन में सकारात्मकता का संचार होता है. ऐसी भी मान्यता है कि अगर शिव जी की पूजा करते समय उनकी प्रतिमा अथवा तस्वीर उपलब्ध न हो तो रुद्राक्ष को शिव जी का प्रतीक मानकर शिव पूजा की सारी औपचारिकाएं निभाई जा सकती है.
गले में सर्पों की मालाः
हमारे पौराणिक ग्रंथों में भगवान शंकर जी के गले में झूलते सर्पों की माला का विशेष उल्लेख है. शिव जी के गले में सुशोभित नाग देवता के बारे मे कहा जाता है कि समुद्र मंथन के समय इससे रस्सी के रूप में सागर की लहरों को मथा था. कहा जाता है कि नाग वासुकी नामक यह नाग भगवान शिव जी का परम भक्त था. एक बार शिवजी की कठिन तपस्या करने के पश्चात जब शिव जी ने वरदान मांगने को कहा, तो नाग वासुकी ने कहा कि मुझे आशीर्वाद दीजिए कि मैं हमेशा आपके साथ रहूं. तब शिव जी ने उसे गले में लटकाते हुए कहा ठीक है अब तुम हमेशा के लिए मेरे गले की शोभा बन कर रहोगे.
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भगवान शिव सभी प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों के ज्ञाता है. लेकिन पौराणिक कथाओं में इनके दो प्रमुख अस्त्रों का जिक्र आता है. एक धनुष एवं दूसरा त्रिशूल. शिव जी के धनुष के बारे में कहा जाता है कि इसका आविष्कार शिव जी ने ही किया था. लेकिन त्रिशूल इनके पास कैसे आया, इस विषय में कोई जानकारी नहीं है. मान्यता है कि सृष्टि के आरंभ में ब्रह्मनाद से जब शिव प्रकट हुए तो साथ ही तीन गुण रज, तम, सत भी प्रकट हुए. यही तीनों गुण शिव जी के तीन शूल यानी त्रिशूल बने. कहते हैं कि इनके बिना सामंजस्य बनाए बगैर सृष्टि का संचालन मुश्किल था. इसलिए शिव जी ने त्रिशूल के रूप में इन तीनों गुणों को अपने हाथों में धारण किया.
डमरूः सृष्टि के संतुलन का प्रतीक
सृष्टि के आरंभ में जब माता सरस्वती हाथों में वीणा लिए प्रकट होने के बाद जब उन्होंने वीणा के तारों को छेड़ा, तब सृष्टि ने पहली बार ध्वनि को जन्म दिया. लेकिन यह सुर और यह ध्वनि सुर और संगीत रहित थी. तभी भगवान शिव ने नृत्य करते हुए चौदह बार डमरू बजाए. इस ध्वनि से व्याकरण और संगीत के धंद एवं ताल का जन्म हुआ. कहते हैं कि डमरू ब्रह्म का स्वरूप है, जो दूर से विस्तृत नजर आता है. लेकिन जैसे जैसे यह ब्रह्म के करीब पहुंचते हैं, वह संकुचित हो दूसरे सिरे से मिल जाता है. फिर विशालता की ओर आगे बढ़ता है. सृष्टि के संतुलन के लिए इसे भी भगवान शिव हाथ में लिए प्रकट हुए थे.
चन्द्रमाः शाप या वरदान
शिव पुराण के अनुसार चंद्रमा का विवाह दक्ष प्रजापति की 27 कन्याओं से हुआ था. ये कन्याएं 27 नक्षत्र हैं. इन 27 बहनों में एक रोहिणी से चंद्र देवता कुछ ज्यादा प्यार करते थे. इस बात की शिकायत जब शेष 26 बहनों ने राजा दक्ष से की तो दक्ष ने चंद्र देव को क्षय रोग होने का शाप दे दिया. इस शाप से बचने के लिए चंद्र देव ने भोले शंकर की तपस्या की. चंद्र देव की तपस्या से प्रसन्न होकर शिव जी ने चंद्र देव के प्राण बचाएं. चंद्र देव को उन्होंने अपने शीश पर स्थान दिया. जिस जगह पर चंद्र देव ने शिव जी की कठोर तपस्या की थी, वह जगह आज सोमनाथ के नाम से जाना जाता है. कहा जाता है कि दक्ष के शाप से ही चंद्रमा घटता-बढ़ता रहता है. इसके अलावा शंकर जी के शीश स्थित इस बात का भी प्रतीक है कि चंद्रमा के मस्तष्क पर धारण करने से तन-मन शीतल एवं शांत रहता है.
जटाओं से निकलती गंगा की धारा
पौराणिक कथाओं के मुताबिक जब पृथ्वी की विकास यात्रा के लिए मां गंगा का आह्वान किया गया तब गंगा के प्रबल वेग को नियंत्रण में रखने के लिए शिव जी ने उन्हें अपनी जटाओं में जगह दिया. यह इस बात का प्रतीक है कि दृढ़ संकल्प के माध्यम से कठिन से कठिन आवेग अथवा आवेश को संतुलित किया जा सकता है.
मस्तक पर त्रिनेत्र
भगवान शंकर के मस्तक पर स्थित तीसरे नेत्र को ज्ञान का प्रतीक माना जाता है. कहीं-कहीं यह बड़े तिलक सदृश् भी नजर आता है. कहा जाता है कि जब शिव अत्यंत क्रोधित होते हैं, तभी यह नेत्र खुलता है और सामने की बड़ी से बड़ी सभी शक्ति को भस्म कर देता है. उनके क्रोधित होने पर ही वहीं ऐसी भी मान्यता है कि त्रिनेत्र की शक्ति बुराइयों और अज्ञानता को खत्म करने का सूचक के रूप में भी देखा एवं माना जाता है.