जर्मनी के आमचुनाव में जयपुर के सिद्धार्थ भी हैं उम्मीदवार
प्रतीकात्मक तस्वीर (Photo Credit: Image File)

जयपुर के सिद्धार्थ मुद्गल जर्मन पार्टी सीएसयू के पहले भारतीय मूल के सांसद बन सकते हैं. सांसद बनकर वो किन मुद्दों पर काम करना चाहते हैं? क्या जर्मनी में एक "भव्य मंदिर" बनाने का उनका अभियान पूरा हो सकेगा?'क्रिश्चियन सोशल यूनियन' (सीएसयू) जर्मन राज्य बवेरिया की एक क्षेत्रीय पार्टी है. 23 फरवरी 2025 को हो रहे आम चुनाव के लिए पार्टी ने जिन उम्मीदवारों को चुना है, उनमें एक सिद्धार्थ मुद्गल भी हैं. यह पहली बार है, जब सीएसयू ने जर्मनी की संसद के निचले सदन, यानी बुंडेस्टाग के संभावित उम्मीदवारों की सूची में भारतीय मूल के किसी शख्स को जगह दी हो.

ये उम्मीदवारी इसलिए मायने रखती है कि राष्ट्रवादी और परंपरावादी सीएसयू अपेक्षाकृत बंद रही है, यानी वह जर्मन मूल से बाहर लोगों में बहुत दिलचस्पी नहीं रखती. सिद्धार्थ मुद्गल एक सफल उद्यमी हैं. भारत और जर्मनी के अलावा उन्होंने अमेरिका, मलेशिया, लक्जमबर्ग और तुर्की में भी काम किया है. वह साल 2011 से सीएसयू के सदस्य हैं.

बढ़ रही है भारतीय समुदाय की साख

बवेरिया की राजधानी म्युनिख, सीएसयू और सिद्धार्थ दोनों का घर है. सिद्धार्थ 21 साल से जर्मनी में रह रहे हैं. साल 2010 में सामुदायिक सेवा का बढ़िया रिकॉर्ड देखते हुए बवेरिया के गृहमंत्री योआखिम हरमन ने उन्हें जर्मन नागरिकता की पेशकश की. सिद्धार्थ मानते हैं कि जर्मन समाज और व्यवस्था में इतनी अच्छी तरह घुल-मिल जाना, इतना आगे पहुंचना केवल उनकी निजी सफलता नहीं है.

उनके मुताबिक, यह जर्मनी में रह रहे भारतीय समुदाय की कामयाबी को भी दिखाती है. हालांकि, अपनी उम्मीदवारी के पक्ष में चुनाव अभियान चलाते हुए सिद्धार्थ केवल भारतीय समुदाय को ही नहीं, बल्कि दक्षिण एशियाई मूल के अन्य लोगों जैसे कि बांग्लादेशी और पाकिस्तानी समुदाय को भी साथ जोड़ना चाहते हैं. सिद्धार्थ को उम्मीद है कि इससे उन्हें फंडिंग जुटाने में भी मदद मिलेगी.

जर्मन सीखने से मिलेगा भारतीय युवाओं को रोजगार

जर्मनी में राजनीतिक दलों के पास पैसा पाने के तीन मुख्य रास्ते हैं. पहला, स्टेट से मिलने वाला फंड जो कि यूरोपीय, संघीय और विधानसभा चुनाव में पार्टी द्वारा जीती गई सीटों पर निर्भर करता है. दूसरा स्रोत है, पार्टी के सदस्यों से मिलने वाला आर्थिक योगदान या फिर निर्वाचित प्रतिनिधियों का अपने वेतन से हिस्सा देना.

तीसरा जरिया है, दान. डोनेशन कोई व्यक्ति भी दे सकता है और कंपनियां या कॉर्पोरेट भी दे सकती हैं. डीडब्ल्यू हिन्दी से बातचीत में सिद्धार्थ ने बताया कि उनके चुनावी अभियान का अनुमानित खर्च तीन से चार लाख यूरो है, जिसे वो क्राउड फंडिंग से जमा करने की कोशिश कर रहे हैं.

जर्मनी में भव्य सांस्कृतिक केंद्र और "मंदिर" का वादा

हालांकि, इस फंड की मंशा चुनावी खर्च तक सीमित नहीं है. सिद्धार्थ बताते हैं कि वो जर्मनी में रह रहे भारतीय मूल के कुछ लोगों को साथ लेकर डोनेशन में मिली रकम का एक हिस्सा पार्टी को चंदे में देना चाहते हैं. इसके जरिए वो संकेत देना चाहते हैं कि भारतीय समुदाय सीएसयू के साथ है.

सिद्धार्थ को उम्मीद है कि इससे जर्मनी में एक "भव्य" सांस्कृतिक केंद्र बनवाने की उनकी महत्वाकांक्षी योजना को मजबूती मिल सकती है. इस सांस्कृतिक केंद्र के परिसर में एक मंदिर बनाने की भी योजना है.

इसकी जरूरत पर जोर देते हुए वह बताते हैं, "जब जनसंख्या बढ़ती है, तो लोगों की जरूरतें भी बढ़ती हैं. आज जो लोग भारत से आकर जर्मनी में रह रहे हैं, उनका मानसिक स्वास्थ्य भी जरूरी है. वो यहां घर-परिवार से दूर रहते हैं, ऐसे में उनके लिए एक सामाजिक व्यवस्था चाहिए. इसमें धार्मिक ढांचा अहम भूमिका निभा सकता है."

सिद्धार्थ आगे बताते हैं, "आध्यात्मिकता बहुत जरूरी है. जर्मनी आने वाले भारतीयों में हिंदू समुदाय के लोगों की बड़ी संख्या है. आबादी बढ़ने पर वो चाहेंगे कि यहां मंदिर बने. मैं भी चाहता हूं कि यहां की सरकार इसके लिए जमीन दे." सिद्धार्थ यह भी स्पष्ट करते हैं कि यह सांस्कृतिक केंद्र सभी समुदायों के लिए खुला होगा और यहां धर्म ही नहीं, तमाम जरूरी विषयों पर बातचीत हो सकेगी.

जर्मनी में बहुत सफल समुदाय हैं भारतीय

अपनी प्राथमिकताओं पर बात करते हुए सिद्धार्थ कई बार डायस्पोरा का जिक्र करते हैं. जर्मनी में भारतीय आप्रवासियों को सबसे सफल आप्रवासी समूहों में गिना जाता है. श्रम मंत्री हुबैरटुस हाइल के शब्दों में कहें, तो "प्रशिक्षित भारतीय कामगार जर्मनी में एक सक्सेस स्टोरी" हैं. जर्मन श्रम मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, साल 2015 में जर्मनी में प्रशिक्षित लोगों के लिए उपलब्ध नौकरियों में भारतीयों की संख्या करीब 23,000 थी. फरवरी 2024 में यह बढ़कर 1,37,000 पर पहुंच गई है.

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आईटी, स्वास्थ्य सेवा, इंजीनियरिंग जैसे क्षेत्रों में भारतीयों की काफी मांग है. इतना ही नहीं, भारतीय समुदाय औसत से ज्यादा वेतन पाने वालों में भी है. साथ ही, भारतीय समुदाय के लोगों में बेरोजगारी भी औसत से कम है. आम आबादी में जहां यह दर करीब 7.1 फीसदी है, वहीं भारतीय आप्रवासियों की बेरोजगारी दर 3.7 प्रतिशत है. जर्मनी में सरकार बेरोजगारों को भत्ता देती है, यानी जितने ज्यादा बेरोजगार होंगे सरकार का खर्च बढ़ेगा.

बीते एक दशक के दौरान जर्मनी आने वाले भारतीयों की संख्या में खासा इजाफा हुआ है. जर्मन इकोनॉमिक इंस्टिट्यूट की सूचना सेवा "आईडब्ल्यूडी" की एक रिपोर्ट के मुताबिक, 2010 से 2020 के बीच जर्मनी में रह रहे विदेशियों की समूची आबादी में भारतीय नागरिकों की संख्या 0.7 प्रतिशत से बढ़कर 1.6 फीसदी हो गई.

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भविष्य की तकनीकों में निवेश को तरजीह

सिद्धार्थ मुद्गल भारतीय समुदाय के योगदान को रेखांकित करते हैं, लेकिन साथ-ही-साथ वो यह भी कहते हैं कि प्रशिक्षित कामगारों के लिए दूसरे देशों पर निर्भरता जर्मन अर्थव्यवस्था के लिए दूरगामी तौर पर अच्छी नहीं है. जर्मनी के आर्थिक विकास को रफ्तार देना और नौकरियों के मौके पैदा करना, उनकी प्राथमिकताओं में पहले नंबर पर है.

वह इस पक्ष में हैं कि छोटे और मध्यम आकार के कारोबारों को बढ़ावा दिया जाए. उन्हें प्रोत्साहित किया जाए जिससे कि वे अपनी आय का 10 फीसदी हिस्सा इनोवेशन, हरित तकनीकों और डिजिटलाइजेशन जैसी बेहद अहम जरूरतों पर निवेश करें. सिद्धार्थ, जर्मनी की कुख्यात नौकरशाही में भी सुधार के पक्षधर हैं. वह बताते हैं कि इस दिशा में जर्मनी, भारत से काफी कुछ सीख सकता है.

जर्मन अर्थव्यवस्था के कायापलट की योजना

इसके अलावा, "मेक जर्मन इकोनॉमी ग्रेट अगेन" की बात करते हुए वह भारत, अमेरिका और आसियान देशों के साथ वैश्विक कारोबारी साझेदारियां बनाने पर भी जोर देते हैं, ताकि जर्मनी में विदेशी निवेश बढ़े और रोजगार के स्थानीय अवसर बढ़ें. वह अर्थव्यवस्था में बेहतरी को सामाजिक सौहार्द से जोड़ते हुए कहते हैं, "अर्थव्यवस्था अच्छी होगी, रोजगार के बेहतर मौके मिलेंगे, तो लोग खुश रहेंगे. समाज अच्छी तरह काम करेगा. अगर किसी समुदाय में पैसे-रोजगार की कमी होती है, तो असंतोष बढ़ता है."

क्या जर्मन कारोबारों के लिए चीन की जगह ले सकता है भारत

कामगारों की गंभीर कमी को दूर करने के लिए वह आईटी और अक्षय ऊर्जा जैसे अहम क्षेत्रों में जर्मन नागरिकों के लिए कम अवधि के विशेष प्रशिक्षण कार्यक्रम शुरू करने के साथ-साथ वीजा प्रॉसेसिंग में तेजी लाने का भी समर्थन करते हैं. उनकी मांग है कि स्वास्थ्य सेवा और इंजीनियरिंग जैसे बेहद जरूरी सेक्टरों में प्रशिक्षित कामगारों को छह हफ्ते के भीतर वीजा मिल जाना चाहिए.

माता-पिता को जर्मनी में साथ रखना क्यों मुश्किल है?

सिद्धार्थ, विदेशी कामगारों के माता-पिता को वीजा दिलाने के लिए आवाज उठा रहे हैं. यह एक जटिल मुद्दा है. भारतीय संयुक्त परिवार में तीन-चार पीढ़ियों का एक साथ, एक छत के नीचे रहना आम हो सकता है. अब तो फिर भी सामाजिक ढांचा बदल रहा है और एकाकी परिवारों की संख्या बढ़ी है, लेकिन इसके बावजूद बच्चों का अपने अभिभावकों की देखरेख करना सामान्य है.

यह ना केवल अपेक्षा है, बल्कि समाज का परंपरागत ढांचा भी इसी के मुताबिक रहा है. माता-पिता के बूढ़े हो जाने पर बच्चों से अपेक्षा की जाती है कि वे उनकी देखभाल करेंगे. वहीं जर्मनी में माता-पिता, आर्थिक रूप से अपने बच्चों पर निर्भर नहीं माने जाते हैं. यहां समाज में बुजुर्गों की संख्या खासी बड़ी है, लेकिन अक्सर वे अकेले ही रहते हैं या फिर ओल्ड ऐज होम में.

भारतीय कामगारों को लुभाने की कोशिश कर रहा है जर्मनी

इस कारण जर्मनी में रहने वाले आप्रवासी, चाहे वो कितनी भी मजबूत आर्थिक स्थिति में हों, माता-पिता को स्थायी तौर पर साथ नहीं रख सकते. फिर चाहे वो जर्मनी के नागरिक ही क्यों ना हो जाएं. हालिया बदलावों के बाद इन नियमों में छूट दी गई. अब मार्च 2024 से ब्लू कार्ड पाने वाले आप्रवासी कामगार माता-पिता को बतौर डिपेंडेंट जर्मनी बुला पाएंगे. लेकिन इस 'कट ऑफ डेट' से पहले के लोगों को यह छूट नहीं मिली है.

सिद्धार्थ मुद्गल ने इसे भी अपने चुनावी मुद्दों में शामिल किया है. उनकी मांग है कि जरूरी पात्रता पूरी करने वाले आप्रवासियों और जर्मन नागरिकों (नैचुरलाइजेशन प्रक्रिया से सिटिजन बने लोग) को भी यह अधिकार दिया जाना चाहिए. सिद्धार्थ कहते हैं, "मैं 21 साल से जर्मनी में रह रहा हूं. जर्मन नागरिक हूं, लेकिन मेरे माता-पिता भी केवल पर्यटक वीजा पर ही आ सकते हैं. जर्मनी में मेरे कई घर हैं. यहां म्युनिख में काफी बड़ा घर है, लेकिन मैं अपने पैरेंट्स को साथ नहीं रख सकता. यह भेदभावपूर्ण है."

कितना बदला है जर्मनी?

म्युनिख के लिए अपना लगाव जाहिर करते हुए सिद्धार्थ कहते हैं कि यह शहर कई संस्कृतियों का मेल है. लोग अच्छे कपड़े पहनते हैं, बढ़िया खाना खाते हैं, घूमते-फिरते, बाहर जाते हैं. बीते दो दशकों में यहां भारतीयों की बढ़ती उपस्थिति का एक उदाहरण देते हुए वह बताते हैं कि पहले समूचे शहर में केवल एक भारतीय दुकान हुआ करती थी, जहां देसी सामान मिलते थे. अब अकेले म्युनिख में ही पांच से 10 दुकानें हैं.

म्युनिख, ना केवल जर्मनी में आर्थिक गतिविधियों का बड़ा गढ़ है, बल्कि अपनी पारपंरिक जीवनशैली और संस्कृति के प्रति रुझान के लिए भी जाना जाता है. बवेरिया के लोग अपनी परंपराओं के लिए इतने मशहूर हैं कि जर्मनी के भीतर भी उनके लिए कई चुटकुले प्रचलित हैं. अब यह खास डिजायन की चमड़े से बनी पतलून हो या खास बीयर के लिए वफादारी. सिद्धार्थ बताते हैं कि उनकी पार्टी पारंपरिकता और आधुनिकता, दोनों को जरूरी मानती है.

जर्मनी में अब चीन से ज्यादा भारत के छात्र पढ़ने आ रहे हैं

म्युनिख में भी भारतीयों की बड़ी उपस्थिति के मद्देनजर सिद्धार्थ बताते हैं कि उनकी पार्टी लंबे समय से भारत के साथ अच्छे संबंध बनाने की नीति पर बढ़ रही है. इसी क्रम में भारत के कर्नाटक और जर्मन स्टेट बवेरिया के बीच लंबी साझेदारी रही है. दोनों सरकारों ने एक-दूसरे के साथ कारोबार और विकास की भरपूर संभावनाओं को देखते हुए 2007 में एक एमओयू पर हस्ताक्षर किए थे. बेंगलुरू में बवेरियाई सरकार का एक केंद्र भी है, जिसका नाम है 'इंडो बवेरियन साइंस सेंटर.' सिद्धार्थ को उम्मीद है कि सांसद बनने पर वह इस साझेदारी में और सकारात्मक योगदान दे सकेंगे.