Rabindranath Tagore Jayanti 2020: एक कवि, कहानीकार, उपन्यासकार, नाटककार, अभिनेता, निर्देशक, समालोचक, शिक्षाशास्त्री, विचारक, समाजसेवी, यायावर, चित्रकार... ना जानें कितने पहलुओं को स्वयं में समेट रखा था, गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर (Rabindranath Tagore) ने. 7 मई 1861 को कोलकाता (Kolkata) ब्रह्मसमाज के नेता देबेंद्रनाथ टैगोर (Debendranath Tagore) के 13वें पुत्र के रूप में जन्में रवींद्रनाथ टैगोर की शिक्षा के प्रति विशेष रुझान कभी नहीं रहा.
समृद्ध परिवार के होने के कारण उन्हें स्कूली शिक्षा के लिए इंग्लैंड तक भेजा गया, मगर शिक्षा उन्हें रास नहीं आई, अलबत्ता उनकी विद्वता में कहीं कोई कमी नहीं थी, तभी तो एशिया के वे पहली शख्सियत थे, जिन्होंने अपने देश भारत के लिए नोबल पुरस्कार हासिल किया. रवि बाबू की 159वीं जयंती के अवसर पर उनके जीवन के कुछ अभूतपूर्व पहलुओं पर बात करेंगे.
नौकरों के सानिध्य में पले-बढ़े
कहते हैं कि संगत का असर व्यक्तित्व पर पड़ता है, लेकिन रवि बाबू यहां अपवाद माने जायेंगे. इनके पिताजी अकसर धार्मिक एवं सामाजिक दायित्वों के कारण बाहर रहते थे. मां अकसर बीमार रहती थीं. इसलिए उनकी देखभाल घर का एक नौकर करता था. नौकर जब किसी काम से घर से बाहर जाता तो रवि बाबू के चारों ओर एक गोल घेरा खींचकर कहता था कि आप इससे बाहर आओगे तो, ‘संकट’ में फंस जाओगे. ज्यादा समय तक उस घेरे में कैद रहने से रविबाबू को तकलीफ होती, मगर ‘संकट’ से बचने के लिए वे यह तकलीफ बर्दाश्त कर लेते थे. लेकिन उन्होंने कभी भी नौकर पर नाराजगी नहीं जताई.
प्रकृति के संसर्ग में जन्मा कवित्व
सन् 1873 में रवि बाबू के उपनयन संस्कार के बाद उन्हें बाबा (पिता) के साथ हिमालय की तलहटियों पर भ्रमण करने का अवसर मिला. प्रकृति के संसर्ग में रहने से उनके भीतर का कवित्व मुखर हो उठा. वे घंटों हिमालय की सुरम्य वादियों, चीड़ के वृक्ष श्रृंखलाओं, फलों-फूलों से लदे वृक्षों से आच्छादित मैदानों, कल-कल करती नदियों, ऊंचाइयों से गिरते झरनों के बीच भ्रमण करते हुए किसी वृक्ष के नीचे बैठकर कविता लिखने लगते. कहते हैं कि उन्हें महाकवि बनाने में हिमालय में बिखरी प्राकृतिक सौंदर्य की प्रमुख भूमिका रही है. इस समय तक उनके भीतर का कवित्व इतना प्रखर हो चुका था कि भाई बहनों के तमाम दबावों के बावजूद वे स्कूली शिक्षा से नजदीकियां नहीं बना सके. अलबत्ता साहित्य के प्रति उनका प्रेम निरंतर गहराता गया.
तीन देशों के राष्ट्रगानों में शुमार कविगुरु
कविगुरू रवींद्रनाथ टैगोर दुनिया के अकेले कवि हैं, जिनकी तीन रचनाएं तीन देशों के राष्ट्रगान का गौरव हासिल करती हैं. भारत का राष्ट्रगान ‘जन गण मन अधिनायक जय हो’ कविगुरू के मूल बांग्ला भाषा की कविता का हिस्सा है. बांग्लादेश का राष्ट्रगान ‘आमार सोनार बांग्ला..’ भी उन्हीं की एक कविता की पहली दस पंक्तियां हैं. जिसे 1905 में लिखा गया और 1971 के मुक्ति संग्राम के दौरान राष्ट्रगान में लिया गया. तीसरे देश श्रीलंका का राष्ट्रगीत 'श्रीलंका मथा...'भी टैगोर की कविता से प्रेरित है. कहते हैं कि इसके मूल लेखक आनंद समरकून शांतिनिकेतन में काफी समय टैगोर के सानिध्य रहे. श्रीलंका के राष्ट्रगान का एक हिस्सा उनकी कविता से प्रेरित है.
देश के लिए पहला नोबेल पुरस्कार
बचपन से ही गुरुदेव का रुझान कविता और कहानी लिखने की ओर रहा. उन्होंने अपने जीवन की पहली कविता 8 साल की उम्र में लिखी थी. 1877 में 16 वर्ष की आयु में उनकी पहली लघुकथा प्रकाशित हुई थी. उनकी सबसे लोकप्रिय रचना थी गीतांजलि, जिसके लिए साल 1913 में उन्हें नोबेल अवॉर्ड से सम्मानित किया गया था. रवींद्रनाथ टैगोर को 'नाइटहुड' की उपाधि भी मिली थी. लेकिन जलियांवाला बाग में सैकड़ों बेगुनाहों की नृशंस हत्याकांड (1919) के बाद दुःखी होकर उन्होंने अंग्रेज सरकार को यह उपाधि लौटा दिया. 1921 में उन्होंने 'शांति निकेतन' की नींव रखी थी, जिसे 'विश्व भारती' यूनिवर्सिटी के नाम से भी जाना जाता है.
क्षत्रिय थे या ब्राह्मण!
रवींद्रनाथ टैगोर का जन्म कोलकाता (कलकत्ता) के प्रसिद्ध ठाकुरवंश में हुआ था. हिंदीभाषी क्षेत्रों में ठाकुर का आशय ‘क्षत्रिय’ से होता है, लेकिन रवींद्रनाथ मूलतः ब्राह्मण थे. हांलाकि कुछेक घटनाओं के कारण उनके ब्राह्मणत्व पर अकसर टीप्पणी भी की जाती थी. लेकिन धन, मान-सम्मान, विद्या, उपाधियों आदि के कारण उनके कुल को बंगाल के सर्वोच्च घरानों में से एक माना जाता था. रवींद्रनाथ के पिता देवेंद्रनाथ ठाकुर देश के माननीय धार्मिक एवं सामाजिक नेता में शुमार थे. उनके सभी भाई भी ऊंचे पदों पर आसीन थे.