Guru Ravidas Jayanti 2019: माघ पूर्णिमा को हुआ था गुरु रविदास का जन्म, जानिए दिखावे और पाखंड का विरोध करने वाले इस महान संत का जीवन परिचय
गुरु रविदास जयंती 2019 (File Image)

Ravidas Jayanti 2019: भारत में कई महान साधु-संतों ने जन्म लिया और अपने कर्मों व महान विचारों से इस धरती को धन्य कर दिया. यही वजह है कि सदियों से भारत को विश्वगुरु कहा जाता रहा है. भारत में जन्में इन महान साधु-संतों में महान संत रविदास का नाम भी शामिल है. संत रविदास ने न सिर्फ दिखावे और पाखंड का जमकर विरोध किया, बल्कि देश में फैले ऊंच-नीच के भेदभाव और जात-पात की बुराईयों को दूर करते हुए समाज को एकता के सूत्र में बांधने का प्रयास किया. 19 फरवरी, मंगलवार को देशभर में संत रविदास की जयंती मनाई जाएगी. रैदास के नाम से मशहूर संत रविदास का जन्म माघी पूर्णिमा के दिन बनारस में हुआ था.

हालांकि उनके जन्म के साल को लेकर अक्सर विवाद की स्थिति बनी रही. कुछ लोगों का मानना है कि उनका जन्म 1388 को माघ पूर्णिमा के दिन हुआ था, जबकि कुछ विद्वानों का मानना है कि उनका जन्म 1398 में माघ पूर्णिमा को हुआ था, लेकिन यह तय है कि उनका जन्म माघ महीने की पूर्णिमा को ही हुआ था, इसलिए हर साल माघ पूर्णिमा को गुरु रविदास की जयंती बड़े ही धूमधाम से मनाई जाती है. चलिए इस बेहद खास मौके पर जानते हैं इस महान संत का संपूर्ण जीवन परिचय. यह भी पढ़ें: माघ पूर्णिमा और संत रविदास जयंती पर सार्वजनिक अवकाश, उत्तर प्रदेश सरकार ने किया ऐलान

जूते बनाने का काम था उनका पैतृक व्यवसाय

संत रविदास के पिता रघ्घू या राघवदास और माता का नाम करमा बाई बताया जाता है. संत रविदास के पुत्र का नाम विजयदास और पुत्री का नाम रविदासिनी था. जूते बनाने का काम उनका पैतृक व्यवसाय था और वे भी यही व्यवसाय करते थे. वे अपना काम बहुत लगन व मेहनत के साथ करते थे और उसे समय पर पूरा करने पर उनका ध्यान रहता था.

दयालु और परोपकारी थे संत रविदास

रविदास जी स्वभाव से बहुत परोपकारी और दयालु थे. शुरुआत से ही दूसरों की सहायता करके उन्हें खुशी मिलती थी. खासकर साधु-संतों की सहायता करने में उनकों विशेष आनंद प्राप्त होता था. वे उन्हें अक्सर बिना पैसे लिए जूते भेंट किया करते थे, जिसके चलते उनके माता-पिता उनसे अप्रसन्न रहते थे. उनके दयालु और परोपकारी स्वभाव के कारण ही उनके माता-पिता ने कुछ समय बाद रविदास और उनकी पत्नी को अपने घर से निकाल दिया. जिसके बाद उन्होंने पड़ोस में एक अलग इमारत बनाकर रहने लगे और अपने पैतृक व्यवसाय को करते रहे. अपने काम-काज के बाद का बाकी समय वो ईश्वर भजन और साधु-संतों के सत्संग में व्यतीत करते थे.

दिखावे और पाखंड का करते थे विरोध

संत रविदास दिखावे और पाखंड का विरोध करते थे, इसलिए मूर्तिपूजा, तीर्थयात्रा जैसे आडंबरों में उनकी बिल्कुल भी आस्था नहीं थी. वे सहज व्यवहार और शुद्ध अंतकरण को ही सच्ची भक्ति मानते थे. मान्यताओं के अनुसार, किसी पर्व पर लोग गंगा स्नान के लिए जा रहे थे और उन्होंने संत रविदास से भी साथ चलने को कहा. लोगों के आग्रह करने पर उन्होंने कहा कि वो साथ जरूर चलते अगर उन्होंने समय पर एक व्यक्ति के काम को पूरा करने का वचन न दिया होता. यह भी पढ़ें: Magh Purnima 2019: माघ पूर्णिमा पर गंगाजल में विराजते हैं भगवान विष्णु, इस दिन स्नान और दान का है विशेष महत्व, जानें शुभ मुहूर्त 

दरअसल, उन्हें उस दिन एक जूता तैयार करना था, इसलिए उन्होंने कहा कि वचन भंग करने पर उन्हें गंगा स्नान का फल कैसे मिलेगा. यह घटना रविदास जी के कर्म के प्रति निष्ठा और वचन पालन को दर्शाता है. जिसके कारण इस घटना पर संत रविदास जी ने कहा की अगर मेरा मन सच्चा है तो मेरे इस जूते धोने वाली कठौती में ही गंगा है. तभी से 'मन चंगा तो कठौती में गंगा' कहावत प्रचलित हुई.

जात-पात के खिलाफ थे संत रविदास

संत रविदास जी हमेशा से ही समाज में फैले जात-पात के भेदभाव के खिलाफ थे. उन्हें जब भी मौका मिलता वे अक्सर समाज में फैली इन कुरीतियों के खिलाफ आवाज उठाते रहते और समाज के लोगों को एकता के सूत्र में पिरोने की कोशिश करते. उनके गुरु रामानन्द जी थे. कहते हैं कि रविदास जी की प्रतिभा से सिकंदर लोदी इस कदर प्रभावित हुआ था कि उसने रविदास जी से दिल्ली आने का अनुरोध किया. गौरतलब है कि महान संत रविदास द्वारा दिए गए उपदेश और भक्ति की भावना आज भी हमे समाज कल्याण के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करते हैं.