Dr Rajendra Prasad Jayanti 2020: स्वतंत्र भारत के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद (Dr Rajendra Prasad) भारतीय स्वाधीनता संग्राम के प्रमुख नेताओं में एक थे, जिन्होंने भारत की भूमि से ब्रिटिश हुकूमत को खदेड़ने में अहम भूमिका निभाई. डॉ. राजेंद्र प्रसाद महात्मा गांधी (Mahatma Gandhi) के सिद्धांतों से प्रेरित और प्रभावित होकर राजनीति में शामिल हुए थे. शानदार शख्सियत वाले डॉ. प्रसाद बेहद प्रतिभाशाली, विद्वान, ओजस्वी वक्ता, अच्छे लेखक और निर्भीक नेता थे. वह देश के इकलौते राष्ट्रपति थे, जिसने दो सत्रों तक राष्ट्रपति पद पर कार्य किया. समकालीन नेताओं में सर्वाधिक लोकप्रिय एवं सम्मानित होने के कारण सभी उन्हें 'राजेंद्र बाबू' के नाम से पुकारते थे. आज देश इस महान नेता की 136 वीं जयंती (Dr Rajendra Prasad 136th Birth Anniversary) मना रहा है. आइये जानें देश के पहले सर्वाधिक सम्मानित शख्सियत के बारे में कुछ रोचक बातें.
जीवन परिचय
राजेंद्र बाबू का जन्म बिहार के एक छोटे से गांव जीरादेयू के एक सम्मानित कायस्थ परिवार में 3 दिसंबर 1884 को हुआ था. पिता महादेव सहाय संस्कृत और फारसी के विद्वान थे, मां कमलेश्वरी देवी संस्कारी गृहिणी एवं धर्मपरायण पत्नी थीं. राजेंद्र बाबू की प्रारंभिक शिक्षा छपरा के जिला स्कूल में हुई. उन दिनों बाल विवाह बहुत आम प्रथा थी. राजेंद्र बाबू भी इससे अछूते नहीं रहे. इसी परंपरा के तहत उनका विवाह भी मात्र 12 वर्ष की आयु में राजवंशी देवी से हुआ था. उनका वैवाहिक और शैक्षिक जीवन एक साथ चल रहा था. विवाह के बाद उन्होंने पटना के टी. के. घोष अकादमी में एडमिशन तो लिया, लेकिन कुछ कारणों से उन्हें तुरंत अकादमी की पढ़ाई छोड़कर छपरा आना पड़ा. राजेंद्र बाबू कलकत्ता ( अब कोलकाता) विश्वविद्यालय में इंट्रेंस एक्जाम में प्रथम रैंक हासिल करने में सफल रहे. राजेंद्र बाबू की विद्वता का अहसास इसी से हो जाता है कि साल 1902 में कोलकाता के प्रसीडेंसी कॉलेज में जब वे शिक्षा ग्रहण कर रहे थे, तब देश के महान वैज्ञानिक जगदीश चंद्र बसु और सम्माननीय प्रफुल्ल चंद्र रॉय इस विद्यालय में उनके शिक्षक हुआ करते थे, और राजेंद्र बाबू दोनों के बहुत प्रिय थे. वर्ष 1915 उन्होंने गोल्ड मैडेल के साथ विधि की पढ़ाई पूरी की, इसके साथ ही उन्होंने डॉक्टरेट की उपाधि भी हासिल की.
राजेंद्र बाबू की विद्वता
राजेंद्र बाबू अंग्रेजी के साथ हिंदी, उर्दू, फारसी, एवं बंगाली भाषा के साहित्य के अच्छे ज्ञाता थे. वे समय देखकर इन भाषाओं का प्रयोग करते थे. उनकी संस्कृत भाषा पर इतनी अच्छी पकड़ थी कि एम. एल. परीक्षा के लिए हिन्दू कानून का उन्होंने संस्कृत ग्रंथों से ही अध्ययन किया था. हिंदी के प्रति तो उनका जबर्दस्त प्रेम था ही. उनके आलेख हिंदी पत्र-पत्रिकाओं में भी खूब प्रकाशित होते थे. कहते हैं कि गांधी जी के सम्पर्क में रहते हुए उन्होंने गुजराती भी अच्छी-खासी सीख ली थी. वह बहुत अच्छे भी लेखक थे. एक बार वह कलकत्ता के प्रेसीडेंसी कॉलेज (अब विश्वविद्यालय) में छात्र के तौर पर परीक्षा दे रहे थे, तब उनकी परीक्षा शीट को देख रहे एक परीक्षक ने कहा था, कि परीक्षार्थी परीक्षक से बेहतर है.
गांधीजी की सादगी प्रेरित हो राजनीति में आये
राजेंद्र बाबू की विद्वता को देखते हुए परिवार की उनसे बड़ी उम्मीदें थीं, कि एक दिन वह बहुत बड़े अफसर बनेंगे. राजेंद्र बाबू उसी दिशा में बढ़ भी रहे थे, लेकिन एक बार संयोग से एक राष्ट्रीय मंच पर उनका सामना महात्मा गांधी से हो गया. दोनों ही शख्सियत एक दूसरे से इस कदर प्रभावित हुए कि गांधी जी एक आंदोलन के सिलसिले में चंपारण जा रहे थे, तो उन्होंने राजेंद्र बाबू को भी वहां बुलवा लिया. कहा जाता है कि चंपारण की इस मीटिंग में दोनों बहुत करीब आ गये थे. दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि यहीं से उनकी दिलचस्पी राजनीति की ओर बढ़ी. गांधी जी की सादगी से भी राजेंद्र बाबू बहुत प्रभावित हुए. उन्होंने आम इंसान बनने के लिए अपने सारे सेवकों हटाकर अपने सारे कामकाज खुद करने का फैसला लिया. वह अपने कमरे में झाड़ू लगाने से लेकर साफ-सफाई और कूकिंग तकखुद करने लगे. यह भी पढ़ें: डॉ. राजेंद्र प्रसादः देश के सबसे लोकप्रिय राष्ट्रपति! जानें किसके साथ था उनका 36 का आंकड़ा! साथ ही उनके जीवन की रोचक यादें..
स्वार्थ से पहले सेवा का सिद्धांत
मानवता के मर्म को दिल की गहराई से समझने वाले राजेंद्र बाबू के जीवन का सिद्धांत था 'स्वार्थ से पहले सेवा'. साल 1914 में बंगाल और बिहार में भयंकर बाढ़ आई थी. तब वे सब कुछ भुलाकर एक आम स्वयंसेवक की तरह घुटनों तक पानी में जा जाकर बाढ़ पीड़ितों को भोजन, वस्त्र एवं जरूरतमंदों को आर्थिक मदद तक करते थे. यहीं से वे जन-जन के नेता के तौर पर लोकप्रिय हुए. 25 जनवरी, 1950 को अपनी बहन की मृत्यु के बाद, जब भारतीय संविधान लागू होने जा रहा था, तब डॉ राजेंद्र प्रसाद भारत गणराज्य के स्थापना समारोह के बाद ही दाह संस्कार में शामिल हुए.
मिनिस्टर से बनें राष्ट्रपति!
बहुत कम लोग जानते होंगे की आजाद भारत के प्रथम राष्ट्रपति बनने से पूर्व राजेंद्र बाबू मंत्री के तौर पर भी कार्य कर चुके थे. यह बात उस समय की है, जब साल 1946 में पं. जवाहरलाल नेहरू की अगुवाई में अंतरिम सरकार की स्थापना हुई तो उन्हें एग्रीकल्चर मिनिस्टर के तौर पर चुना गया. कहते हैं कि उस समय तो राजेंद्र बाबू ने कोई भी पद लेने से साफ इंकार कर दिया था, लेकिन गांधी जी के कहने पर उन्होंने मिनिस्ट्री स्वीकार कर ली. स्वतंत्रता प्राप्ति के करीब ढाई साल पश्चात 26 जनवरी 1950 में स्वतंत्र भारत का संविधान लागू हुआ और भारत जब स्वतंत्र गणतंत्र बना, तब आधिकारिक रूप से उन्हें देश का पहला राष्ट्रपति चुना गया.
राष्ट्रपति बनते ही राजेंद्र बाबू ने जनहित के कई कार्य किये, कई सरकारी दफ्तरों की स्थापना की. इसी समय उन्होंने कांग्रेस पार्टी से भी इस्तीफा दे दिया था. 1957 में चुनाव समिति ने उनके जनहित कार्यों से प्रभावित होकर दुबारा राष्ट्रपति के तौर पर स्थापित किया. दो सत्रों तक लगातार राष्ट्रपति चुने जाने का कीर्तिमान आज भी उन्हीं के नाम है. 28 फरवरी 1963 में राजेंद्र बाबू का निधन हो गया.