Balaji Bajirao Peshwa 400th Birth Anniversary: बाजीराव पेशवा जिसने मराठा साम्राज्य को कटक से पेशावर तक का दिया विस्तार, जानें पूरा इतिहास
बालाजी बाजीराव पेशवा (Photo Credits: File Photo)

Balaji Bajirao Peshwa 400th Birth Anniversary: बालाजी राव (Balaji Rao) उर्फ नाना साहेब पेशवा भले ही अपने पिता बाजीराव पेशवा (Baji Rao) के मुकाबले आक्रामक योद्धा नहीं थे, लेकिन बाजीराव के साथ रहते हुए बालाजी युद्धकला में पारंगत हो गये थे. वह पिता के ही नक्शेकदम पर चलना चाहते थे. उन्होंने मराठा शक्ति को उत्तर से लेकर दक्षिण तक विस्तार दिया. बाजीराव ने लगभग 40 से ज्यादा लड़ाइयां लड़ी और हर युद्ध में उन्हें विजयश्री प्राप्त हुई. कहा जाता है कि शिवाजी महाराज के जीवन में जो भूमिका माँ जीजा बाई की थी, वहीं भूमिका बालाजी राव के जीवन में शूरवीर पिता बाजीराव की रही है. आइये जानें इस अदम्य साहसी सेनानायक बालाजी बाजीराव पेशवा (Balaji Bajirao Peshwa) की वीर गाथा, जिसकी आज देश 400वीं वर्षगांठ मना रहा है.

19 वर्ष की उम्र में बनें पेशवा

बालाजी बाजीराव शिवाजी के शासनकाल के बाद के सबसे प्रभावशाली शासकों में से एक थे. उन्हें नाना साहेब के नाम से भी जाना जाता है. वह बाजीराव जैसे शूरवीर के बेटे और तीसरे पेशवा थे. इनका जन्म 8 दिसंबर 1720 में हुआ था. उनकी मां काशी बाई थीं. बाजीराव बचपन से ही बहादुर, साहसी और निडर स्वभाव के थे. बालाजी राव की शादी गोपिकाबाई से हुई थी, जिनसे उनके तीन बेटे थे- विश्व राव, माधव राव और नारायण राव. नाना साहेब के दो भाई रघुनाथ राव और जनार्दन थे, जनार्दन की मृत्यु किशोरावस्था में ही हो गयी थी.

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राव बाजीराव पेशवा की मृत्यु के पश्चात छत्रपति शाहू जी ने तमाम विरोधों के बावजूद उनके 19 वर्षीय बेटे बालाजी बाजीराव को 4 जुलाई 1740 को पेशवा (प्रधानमंत्री) नियुक्त कर दिया था. बालाजी ने युद्ध के मैदान में पिता के साथ रहते हुए युद्धकला और कूटनीति में अच्छी ट्रेनिंग हासिल की थी. यद्यपि पिता के आक्रामक युद्ध शैली के विपरीत बालाजी मधुर एवं समझौतावादी स्वभाव के व्यक्ति थे.

कुशल कूटनीतिज्ञ

पेशवा का तख्त संभालने के पश्चात बालाजी राव ने मालवा पर अपनी पूर्ण सत्ता सुरक्षित करने के लिए उत्तर भारत के मिशन की योजना बनाई. चाचा चिमजी अप्पा के साथ वह मालवा की ओर रवाना हुए, लेकिन बीच रास्ते में ही चिमजी की तबियत बिगड़ने लगी. उन्हें वापस भेज दिया गया. 27 दिसंबर 1740 को पुणे (तब पूना) में चिमजी का निधन हो गया. दिवंगत चाचा को श्रद्धा सुमन अर्पित करने के पश्चात नाना धौलपुर पहुंचे. यहां मालवा और मराठा शासकों के बीच कुछ शर्तों पर समझौता हुआ. पेशवा और जय सिंह को मित्रता के साथ काम करना चाहिए और जरूरत पड़ने पर एक-दूसरे की मदद भी करनी होगी, मराठों को सम्राट के प्रति कड़ाई से वफादार होना चाहिए और मालवा का राज्यपाल पद 6 माह के भीतर पेशवा के लिए सुरक्षित कर लिया जाए.

इस कूटनीतिक वार्ता में मिली सफलता के बाद बालाजी राव 17 जुलाई को पूना लौट आए. जय सिंह ने सम्राट को मालवा के सूबेदार और पेशवा बालाजी राव को अपना डिप्टी नियुक्त करने के लिए राजी कर लिया. इस तरह बालाजी राव ने मालवा पर मालिकाना अधिकार हासिल कर लिया. 14 जुलाई, 1741 की औपचारिक ग्रांट ने मालवा पर मराठा विजय को वैधानिक करार दे दिया गया.

उड़ीसा का अधिग्रहण

विरोधियों को शांत करने के लिए, पेशवा बालाजी राव ने रघुजी भोंसले को बंगाल, बिहार और उड़ीसा में एक मुक्त शासन की अनुमति दे दी, जो अली वर्दी खान के तहत व्यावहारिक रूप से स्वतंत्र थे. रघुजी भोंसले ने बंगाल और बिहार पर नियंत्रण के लिए एक शक्तिशाली सेना को भेजा तथा चौथ के रूप में सालाना बारह लाख रुपये के प्रतिफल में उड़ीसा पर अधिग्रहण कर लिया. बालाजी राव ने उड़ीसा में कोई नागरिक प्रशासक नियुक्त नहीं किया, बल्कि इसे स्थानीय प्रमुखों के नियंत्रण में ही बने रहने की छूट दे दी.

महत्वाकांक्षी शासक

एक गुट ने कोर्ट में पेशवा बालाजी बाजीराव के विरोध में याचिका दायर किया और राजा से उनके खिलाफ कड़वी शिकायतें कीं. मामला इतना आगे बढ़ा कि पेशवा को अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा, यह साल 1747 की बात है, लेकिन अंततः उन्होंने खुद को अपरिहार्य साबित कर दिया था, लिहाजा उन्हें पुनर्नियुक्त किया गया. अपने 20 साल के शासनकाल में बालाजी राव ने मराठा साम्राज्य को पेशावर (वर्तमान पाकिस्तान) तक विस्तार दिया. बालाजी राव महत्वाकांशी शासक थे और बहुमुखी व्यक्तित्व के धनी भी थे.

पुणे का विकास

बालाजी बाजीराव पेशवा ने पुणे के विकास के लिए कई सराहनीय कार्य किये. उन्होंने शहर के चारों ओर मंदिर, पुल और जलाशय का निर्माण कराया. पानीपत की तीसरी लड़ाई (जनवरी, 1761) तक मराठा साम्राज्य शिखर पर पहुंच गया. लेकिन युद्ध के मैदान में अपनों से मिली भीतरघात के कारण मराठों को पराजय का सामना करना पड़ा और इसके साथ ही मराठों का पूरे देश पर राज करने का सपना ध्वस्त हो गया. साल 1761 में बालाजी बाजीराव पेशवा ने पानीपत की तीसरी लड़ाई में अपने बेटे विश्वरूप राव को खो दिया, इसके तुरंत बाद 23 जून, 1761 में बालाजी राव का भी निधन हो गया था. उनका स्मारक पूना अस्पताल, नवीपेठ के पास मुथा नदी के किनारे स्थित है.