आचार्य चाणक्य ने राजनीति और तमाम विषयों के साथ शिक्षा के क्षेत्र में भी अपनी नीति स्पष्ट की है. उन्होंने माना है कि शिक्षा सभी के लिए जरूरी है. तभी वह अपने और अपने देश के लिए कल्याणकारी कार्य कर सकेगा. आचार्य ने इस कथन को अपने चतुर्थ अध्याय के पांचवे खंड में इस श्लोक में बड़ी खूबसूरती के साथ पिरोया है. आइये जानते हैं क्या कहना चाहा है उन्होंने अपनी शिक्षा नीति पर...
कामधेनुगुणा विद्या ह्ययकाले फलदायिनी।
प्रवासे मातृसदृशा विद्या गुप्तं धनं स्मृतम्॥5॥
आचार्य चाणक्य इस श्लोक के माध्यम से विद्या (शिक्षा) के महत्त्व को प्रतिपादित करते हुए उसके प्रयोजन और उपयोग की चर्चा कर रहे हैं. आचार्य का कहना है कि विद्या कामधेनु के समान बहु गुणों वाली है, जो बुरे समय में भी उचित फल देनेवाली है, प्रवास काल में यह मां के समान है, तथा वह गुप्त धन है, जिसे कोई छीन नहीं सकता, ना ही चुरा सकता है. यह भी पढ़ें : Raksha Bandhan 2024 Shubh Muhurat Time: रक्षाबंधन पर भद्राकाल और राहुकाल के बीच राखी बांधने का शुभ मुहूर्त, यहां जानें सभी जरूरी बातें
श्लोक का मूल आशय यह है कि विद्या कामधेनु के समान सभी इच्छाओं को पूरा करनेवाली वस्तु है. जो बुरे-से-बुरे समय में भी आपका साथ नहीं छोड़ती है. घर से कहीं बाहर चले जाने पर भी यह मां के समान हमारी रक्षा करती है. यह एक गुप्त धन है, इस धन को कोई नहीं देख सकता, हर नहीं सकता.
विद्या यानी शिक्षा का उल्लेख करते हुए आचार्य चाणक्य मानते हैं कि विद्या एक गुप्त धन है, अर्थात् एक ऐसा धन है जो दिखाई नहीं देता, पर वह है और अनुभव की वस्तु है, जिसका हरण तथा विभाजन नहीं हो सकता. अर्थात वह सब प्रकार से सुरक्षित और विश्वसनीय भी है. संकट अथवा जरूरत के समय वह व्यक्ति के काम आती है.
इसलिए चाणक्य ने विद्या का मूल्यांकन कामधेनु के समान और परदेश में मां के समान किया है. सबसे बड़ी बात यह है कि यह प्रच्छन्न और सुरक्षित धन है. सोने के आभूषणों के समान इसे न कोई छीन सकता है, न चुरा सकता है.