मनुष्य के भीतर ही ‘राम’ भी है और ‘रावण’ भी, आचार्य चाणक्य ने इस रहस्य को अपने इस श्लोक के माध्यम से बखूबी दर्शाया है. आइये जानते हैं, क्या कहना चाहा है आचार्य ने इस श्लोक में..
‘लोभश्चेदगुणेन किं पिशुनता यद्यस्ति किं पातकैः
सत्यं चेत्तपसा च किं शुचि मनो यद्यस्ति तीर्थेन किम्।
सौजन्यं यदि किं गुणै: सुमहिमा यद्यस्ति किं मंडनै:,
सद्विद्या यदि कि धनैरपयशो यद्यस्ति किं मृत्युना।।‘
अर्थात लोभ मानव का सबसे बड़ा अवगुण है, जबकि निंदा सबसे बड़ा पाप है, सत्य सबसे बड़ा तप है और मन की पवित्रता सभी तीर्थयात्राओं से उत्तम है. सज्जनता सबसे बड़ा गुण है, यश सबसे उत्तम अलंकार (आभूषण) है, उत्तम विद्या सबसे श्रेष्ठ धन है और अपयश मृत्यु के समान सर्वाधिक कष्टकारक है. यह भी पढ़ें : Chanakya Niti: विद्या ‘कामधेनु’ के समान एक ‘अदृश्य धन’ है, जो संकट के समय काम आती है!
उपयुक्त श्लोक के माध्यम से आचार्य चाणक्य का आशय यह है कि अगर मानव में लालच है, तो उसे किसी दुर्जन की आवश्यकता नहीं है. क्योंकि उसके मन में पल रहा लोभ ही उसका सबसे बड़ा शत्रु होता है, जो उसे उसके ही कर्मों से सदा विनाश की ओर धकेलता रहता है. चुगली करनेवाले अथवा निंदक को पातकों से कोई लेना-देना नहीं होता है. निंदा कर्म करके वह स्वयं पातकों का कार्य सम्पन्न करते हैं. इसी तरह सत्य से बड़ा कोई तप नहीं हो सकता, क्योंकि सत्य का तेज जातक के सारे विकारों को नष्ट कर डालता है. इसलिए जीवन में सत्य धारण करने वाले को तप की कोई जरूरत नहीं होती. चाणक्य यहां यह भी कहना चाहते हैं कि अगर मनुष्य का मन अपवित्र है, तो सारे तीर्थयात्रा करने के बाद भी उसका मन कलुषित ही रहेगा, तीर्थ का पुण्य-फल उसे प्राप्त नहीं हो सकता, लेकिन इसके विपरीत जिसका ह्रदय पवित्र और शुद्ध है, उसे किसी तीर्थ यात्रा की जरूरत नहीं हो सकती. ह्रदय में स्नेह हो तो समस्त गुण उसके सामने गौण साबित होते हैं, जब कि यश के समक्ष हजारों आभूषणों की चमक भी कमजोर है. विद्या अर्जित करने के बाद मानव जीवन के सत्य को जान लेता है. आत्मा परमात्मा का भेद तथा ब्रह्म-दर्शन उसके लिए सहज हो जाता है. ऐसा मनुष्य सांसारिक मायाजाल से मुक्त हो जाता है. उसे विषय-वासनाओं में धकलने वाले धन की कोई जरूरत नहीं रहती. इस तरह अस्वस्थ व्यक्ति हर पल कष्ट एवं पीड़ा से मर जाता है. ऐसे व्यक्ति के लिए मृत्यु ही एकमात्र उपचार है. इसलिए उसे मृत्यु से भयभीत नहीं होना चाहिए.