‘जननायक’ बाल गंगाधर तिलकः जिसके नाम से कांपती थी ब्रिटिश हुकूमत!
बाल गंगाधर तिलक (Photo Credit- Wikimedia Commons)

जिन दिनों बाल गंगाधर तिलक (Bal Gangadhar Tilak) ने भारतीय राजनीति में पहला कदम रखा था, उस समय देश पूरी तरह से ब्रिटिश हुकूमत की चंगुल में फंसा हुआ था. सन 1857 में जब बड़े पैमाने पर क्रांति हुई, तो ऐसा लगा था कि ब्रिटिश हुकूमत को उखाड़ फेंकने का सही अवसर है. लेकिन बेहद पुराने हथियारों के मुकाबले अंग्रेजों के अत्याधुनिक हथियारों के आगे क्रांति की ज्वाला शीघ्र ही फीकी पड़ गयी. फिर ब्रिटिश हुकूमत ने ‘आर्म्स एक्ट’ कानून बना कर देश को निशस्त्र कर दिया. इसके बाद अंग्रेजों को क्रांतिकारियों के किसी भी तरह के शस्त्र का भय नहीं रह गया था.

हालात को देखते हुए लोकमान्य तिलक ने शारीरिक शक्ति के बजाय मानसिक एवं भावनात्मक हथियारों से अंग्रेजों का मुकाबला करके उनके प्रभाव को निष्क्रिय करना शुरू किया. इसका परिणाम भी शीघ्र ही देखने को मिलास जब अंग्रेजों के सबसे मुख्य गढ़ों में एक बंबई में 19वीं शताब्दी समाप्त होने से पहले ही ‘स्वदेशी’ और ‘स्वराज’ के स्वर मुखर होने लगे थे. दूसरा सुखद परिणाम यह हुआ कि भारतीय जनता भी चौकन्नी हो गयी. बीसवीं सदी के आरंभ होते-होते एक नये स्वरूप में अंग्रेजी शासन के विरुद्ध विद्रोह खड़ा हो गया और इस तरह 1947 में ‘स्वदेशी’ और ‘स्वराज’ दोनों की जीत हुई. ब्रिटिशियंस को हमेशा के लिए भारत छोड़ना पड़ा.

शिक्षा दीक्षा

बाल गंगाधर तिलक का जन्म 23 जुलाई 1856 में महाराष्ट्र के रत्नागिरी के चित्पवन ब्राह्मण परिवार में हुआ था. पिता गंगाधर रामचन्द्र तिलक संस्कृत के विद्वान शिक्षक थे. उन्होंने अपने पुत्र का नाम बलवंत रखा. लेकिन परिवार के लोग उन्हें प्यार से ‘बाल’ कहकर पुकारते थे. तिलक जब मैट्रिक में पढ़ रहे थे, उनका विवाह एक 10 वर्षीया सत्यभामा से करवा दिया गया. तिलक की प्रारंभिक शिक्षा पूना (पुणे) के एक स्कूल में हुई थी.

तिलक ने देशहित में शिक्षा नीति को बदला

साल 1876 में उसने डेन कॉलेज से बी.ए. की परीक्षा पास की. तीन वर्ष पश्चात बंबई विश्व विद्यालय से एल.एल.बी. की उपाधि प्राप्त कर ली. बाल के मित्रों को उम्मीद थी कि वह तेज-तर्रार वकील बनकर नाम और दाम दोनों कमायेगा. लेकिन बाल के दिमाग में कुछ और ही चल रहा था. वकालत की परीक्षा पास करने के पश्चात उन्होंने सभी को शिक्षित करने के इरादे से एक स्कूल शुरू किया.

इस स्कूल में मूल शिक्षा के साथ-साथ बच्चों में जातीय एवं राष्ट्रीय भावनाओं को भी उजागर करने वाली शिक्षा देने का प्रावधान रखा. उनका मानना था कि स्वदेशी शिक्षा व्यवस्था ही सच्ची भारतीयता को जन्म दे सकती है. इसके अलावा तिलक हर भारतीय में उस रूप को देखना चाहते थे, जो धर्म, सभ्यता और संस्कृति की रक्षा के लिए अंग्रेजों को मुंह तोड़ जवाब दे सके.

बाल गंगाधर तिलक ने सार्वजनिक जीवन का सबसे पहला कदम पूना में सन 1880 में न्यू इंगलिश स्कूल की स्थापना के रूप में किया था. इसमें उनके दो मुख्य सहयोगी थे विष्णु शास्त्री चिपलुणकर और आगरकर. बाद में इसका अहम हिस्सा बनें गोपाल कृष्ण गोखले एवं कुछ अन्य देश भक्त. महाराष्ट्र में राष्ट्रीय भावों के प्रचार-प्रसार में इस संस्था ने महत्वपूर्ण योगदान दिया है. विशेषकर पूना को उन्होंने एक ऐसे केंद्र के रूप में स्थापित किया, जिससे अंग्रेजी हुकूमत अंतिम समय तक भयभीत ही बनी रही.

बहुमुखी प्रतिभावान तिलक

बाल गंगाधर तिलक बहुमुखी प्रतिभावान व्यक्तित्व के स्वामी थे. वे समाज सुधारक, स्वतंत्रता सेनानी, क्रांतिकारी के साथ-साथ राष्ट्रीय नेता भी थे. साथ ही वह इतिहास, संस्कृत, हिंदू धर्म, गणित और खगोल विज्ञान के विद्वान भी थे. भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में ‘स्वराज हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है और हम इसे लेकर रहेंगे’ का नारा देकर लाखों युवाओं को तिलक ने आजादी की लड़ाई में आगे आने के लिए प्रेरित किया था.

तिलक ने दो साप्ताहिक पत्रिकाओं, 'केसरी' और 'मराठा' का प्रकाशन शुरू किया 'केसरी' मराठी भाषा और 'मराठा' अंग्रेजी भाषा की साप्ताहिक पत्रिका थी. दोनों ही पत्रिका देखते ही देखते जन जन में लोकप्रिय हो गयी. इन पत्रिकाओं के माध्यम से तिलक ने भारतियों के संघर्ष और परेशानियों दुनिया के सामने रखा. उन्होंने हर एक भारतीय से अपने हक़ के लिए स्वयं लड़ने का आह्वान किया.

शुरू हुआ जेल जाने का सिलसिला

सन 1897 में ब्रिटिश सरकार ने तिलक पर भड़काऊ लेखों से जनता को उकसाने, कानून तोड़ने और शांति भंग करने का आरोप लगाकर डेढ़ साल के लिए जेल भेज दिया. सन 1898 में रिहा होने के पश्चात उन्होंने महाराष्ट्र के गांव-गांव में स्वदेशी आंदोलन का सन्देश पहुंचाया. इसी समय कांग्रेस दो धड़ों में बंट गयी, एक धड़ा नरम तो दूसरा गरम मिजाज वालों का था. तिलक गरम वर्ग से थे. जिनका एकमात्र लक्ष्य था ‘स्वराज’, जबकि नरमपंथी धड़ा समझता था कि अभी संपूर्ण आजादी का सही वक्त नहीं आया है.

सन 1906 में तिलक को विद्रोह के आरोप में पुनः गिरफ्तार कर 6 साल कैद की सजा सुनाकर मांडले (बर्मा) जेल भेज दिया गया. जेल में तिलक अपना अधिकतम समय लिखने-पढ़ने में बिताते थे. उन्होंने अपनी सुविख्यात पुस्तक 'गीता रहस्य' इसी दौरान लिखी. पहली अगस्त 1920 को बहुमुखी प्रतिभा का यह तेज-तर्रार नेता ने अंतिम सांस ली.