UP Elections: यूपी के चुनावी रण में उतरने को क्यों आतुर हैं बिहार के क्षेत्रीय दल? समझें जातीय समीकरण
यूपी के चुनावी मैदान में उतरने को आतुर हैं बिहार के क्षेत्रीय दल (Photo Credits: PTI)

लखनऊ: उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) में होने वाले विधानसभा चुनाव को लेकर बीजेपी, कांग्रेस, समाजवादी पार्टी (एसपी), बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी), आम आदमी पार्टी (आप) समेत तमाम छोटे दल वोटरो को अपने पाले में लाने के लिए दमखम लगा रहे है. इसके आलावा बिहार (Bihar) के क्षेत्रीय दल भी यूपी के चुनावी मैदान में उतरने को आतुर हैं. दरअसल 403 विधानसभा सीटों वाला उत्तर प्रदेश दिल्ली में केंद्रीय नेतृत्व स्थापित करने में निर्णायक भूमिका निभाता हैं. UP Assembly Elections 2022: मुख्‍यमंत्री योगी का मुस्लिम महिलाओं को बीजेपी से जोड़ने का मास्टरप्लान, पार्टी कार्यकर्ताओं को दी ये सलाह

इस तथ्य से हर कोई परिचित है कि राष्ट्रीय राजनीति का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर गुजरता है, जिस वजह से आगामी यूपी विधानसभा चुनाव राष्ट्रीय दलों के साथ ही क्षेत्रीय दलों के लिए भी खुद को बढ़ाने का अवसर है. इसी के चलते राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण राज्य में होने वाले चुनाव में बिहार के क्षेत्रीय दल भी उतरने को लेकर आतुर दिख रहे हैं. सबसे गौर करने वाली बात हैं कि इसमें तीन ऐसे दल भी शामिल हैं जो बिहार में बीजेपी के साथ मिलकर सरकार चला रहे हैं.

हम-वीआईपी भी चलेगी दांव

बहुत समय पहले ही बिहार में सत्तारूढ जनता दल (युनाइटेड), पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी की पार्टी हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा (हम) और विकासशील इंसान पार्टी (वीआईपी) ने न केवल यूपी चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी है, बल्कि चुनावी तैयारी भी प्रारंभ कर दी. वैसे, माना जा रहा है कि बिहार के इन क्षेत्रीय दलों की यूपी में बहुत पहचान नहीं हैं, लेकिन कुछ क्षेत्रों में जातीय समीकरण को देखते हुए ये दल चुनाव में उतरने को लेकर व्यग्र हैं.

वीआईपी के प्रमुख और बिहार के मंत्री मुकेश सहनी पिछले दिनों यूपी पहुंचकर राज्य के विभिन्न स्थानों पर फूलन देवी की प्रतिमा लगाने की घोषणा की थी, लेकिन प्रशासन ने इसकी अनुमति नहीं दी थी. उन्होंने यूपी में चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी है. वीआईपी यूपी में पिछड़े समुदाय के वोटरों पर नजर गड़ाए हुए है.

जेडीयू अकेले चुनाव लड़ने के लिए तैयार

इधर, राजग में शामिल जदयू ने भी यूपी चुनाव में उम्मीदवार उतारने की घोषणा कर दी है. जदयू के राष्ट्रीय अयक्ष बनने के बाद ललन सिंह ने ऐलान किया कि उनकी पार्टी यूपी में चुनाव लड़ेगी और सीट भी जीतेगी. ह ने हालांकि यह भी कहा कि वे पहले राजग में शामिल दलों से बात करेंगे और जब भागीदार नहीं बनाया जाएगा तब पार्टी यूपी में अकेले चुनाव लडेगी. उत्तर प्रदेश के चुनाव में जदयू 2012 में भी उतरी थी और सभी सीटों पर प्रत्याशी उतारी थे, लेकिन दो प्रत्याशी ही अपनी जमानत बचा सके थे.

इधर, जीतन राम मांझी की पार्टी हम और चिराग पासवान की पार्टी भी यूपी चुनाव में हाथ आजमाने की तैयारी में जुटी है. कहा जा रहा है कि बिहार की सभी क्षेत्रीय पार्टियां की नजर जातीय मतदाताओं पर है. वीआईपी जहां निषाद मतदताओं को अपनी ओर खींचने की कोशिश में जुटे हैं वहीं जदयू भी 'लव-कुश' समीकरण के जरिए यूपी में पांव पसारने के जुगाड में है.

 ब्राम्हण और दलित वोट बैंक के लिए मचा संग्राम

ताजा हालातों पर गौर करें तो यूपी में ब्राम्हणों के बाद सबसे ज्यादा दलित वोट बैंक के लिए संग्राम छिड़ा हुआ है. कोई दलित चेतना यात्रा निकाल रहा है तो कोई आदिवासी दिवस मना रहा है. चाहे सपा, हो, कांग्रेस हो या बीजेपी सब दलितों को साधने में लगे हैं. विधानसभा चुनाव के लिए जाति-वर्गों के वोट समेटने का प्रयास कर रही सपा की नजर आदिवासियों पर भी है. जबकि बीजेपी दलित वोटों को अपने पाले में लाने के लिए काफी गंभीर दिख रही है. मायावती की खत्म हुई सेंकेंड लीडरशिप लाइन की कमजोरी को देखते हुए उसके कोर वोटर जाटव को अपना वोट बैंक बनाने के लिए बीजेपी हरसंभव प्रयास कर रही है.

यूपी की राजनीति बहुत हद तक जातीय समीकरणों पर ही टिकी है. लिहाजा, दलों की रणनीति भी इसी पर है. दलितों का वोट गवां चुकी कांग्रेस को लगता है राज्य में पिछड़ो के वोट के लिए ज्यादा मार हो रही है. इसीलिए उसने दलितों की ओर अपना फोकस करना शुरू कर दिया है. अभी तक दलितों का एकमुस्त वोट मायावती के कब्जे में रहा है, लेकिन 2014 के बाद से इसमें कुछ वर्ग छिटक कर बीजेपी की ओर आया है. मायावती की लीडरशिप को कमजोर आंकते हुए कांग्रेस भी दलित वर्ग पर अपनी निगाहें गड़ाये हुए है. इसीलिए उसने इस वोट बैंक को अपने पाले पर लाने की जुगत लगानी शुरू की है.

मायावती की सोशल इंजीनियरिंग! 

एक अध्ययन के अनुसार राज्य में दलित वोटों की हिस्सेदारी काफी मजबूत है. अगर आंकड़ो पर गौर फरमाएं तो राज्य में तकरीबन 42-45 प्रतिशत पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) है. उसके बाद 20-21 प्रतिशत दलितों की है. इसी वोट बैंक की बदौलत मायावती ने 2007 में 206 सीटों और 30.43 प्रतिषत वोट के साथ पूर्ण बहुमत से मुख्यमंत्री बनीं और उनकी सोशल इंजीनियरिंग खूब चर्चा भी बटोरी. 2009 में लोकसभा चुनाव हुए और बसपा ने 27.4 प्रतिशत वोट हासिल किए और 21 लोकसभा सीटों पर कब्जा जमाया, लेकिन 2012 में उनकी चमक काम नहीं आ सकी. उनका वोट प्रतिशत भी घटा.

2017 में बसपा का सबसे मजबूत किला दरक गया. 2007 के बाद से मायावती के वोट प्रतिषत में लगातार घटाव आ रहा है. इनके वोट बैंक पर सेंधमारी हो रही है. 2014 के चुनाव में बीजेपी ने 80 में से 71 सीट जीतकर इसी वोटबैंक को जबरदस्त झटका दिया था. सबसे बड़ी बात कि सुरक्षित सीटों पर बसपा कमजोर नजर आयी.

बीजेपी का मिशन-2022  

राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो बीजेपी ने दलित वोट बैंक पर तगड़ी सेंधमारी की है. जबकि दलित की उपजातियां कोरी, पासी, धोबी समेत अन्य वर्ग भी बीजेपी के साथ खड़े नजर आ रहे है. यह एक दिन का काम नहीं है. कई वर्षों से इस वोट के लिए आरएसएस की ओर से चलाए जा रहे समाजिक समरसता के जरिए उन्हें कुछ सफलता मिली है. अगर हम गौर से देंखे तो 2014 के बाद से गैरजाटव वोट बीजेपी के पाले में जाता दिख रहा है. इस वर्ग के असंतुष्ट वोट को अपने पाले में लाने की बीजेपी कोशिश कर रही है. और पार्टी नेतृत्व ने मिशन-2022 की बिसात पर जातीय समीकरणों का एक बार फिर दांव चला है.