भोपाल गैस त्रासदी (Bhopal Gas Tragedy) को 34 साल हो गए है. यह इतिहास में अब तक विश्व की सबसे भयावह और दर्दनाक ओद्योगिक त्रासदी में से एक है. इस त्रासदी ने लोगों को ऐसा जख्म दिया है जो 34 साल बाद आज भी लोगों के जेहन में ताजा है. 33 साल पहले, 2 दिसंबर, 1984 की रात को भोपाल (Bhopal) में यूनियन कार्बाइड (Union Carbide) की फैक्टरी से निकली कम से कम 30 टन अत्यधिक जहरीले गैस मिथाइल आइसोसाइनेट (Methyl Isocyanate) ने हजारों लोगों की जान ले ली थीं. 34 साल पूरे होने के बाद भी इसकी जहरीली गैस से प्रभावित अब भी उचित इलाज, पर्याप्त मुआवजे, न्याय एवं पर्यावरणीय क्षतिपूर्ति की लड़ाई लड़ रहे हैं.
2 दिसंबर की रात यूनियन कार्बाइड के प्लांट नंबर 'सी' में हुए रिसाव से बने गैस के बादल को हवा के झोंके अपने साथ बहाकर ले जा रहे थे और लोग मौत की नींद सोते जा रहे थे. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक इस दुर्घटना के कुछ ही घंटों के भीतर तीन हजार लोग मारे गए थे. हालांकि, गैरसरकारी स्रोत मानते हैं कि ये संख्या करीब तीन गुना ज्यादा थी. इस भीषण गैस त्रासदी का प्रभाव 34 साल भी है. इस वजह से आज भी यहां के लोग कैंसर, ट्यूमर, सांस और फेफड़ों की समस्या जैसी बीमारियों से ग्रसित हैं.
आज भी जिंदा है 34 साल पुराना दर्द
गैस त्रासदी की 34वीं बरसी की पूर्व संध्या पर गैस पीड़ितों के लिए काम कर रहे संगठनों ने श्रद्धांजलि सभाओं का आयोजन किया. एक रिपोर्ट के अनुसार वैज्ञानिक अध्ययन यह बताते हैं कि यूनियन कार्बाइड के गैसों की वजह से भोपाल में मौतों और बीमारियों का सिलसिला आज भी जारी है, पर आज तक भोपाल गैस पीड़ितों के इलाज की निगरानी के लिए उच्चतम न्यायालय द्वारा गठित समिति की 80 प्रतिशत से अधिक अनुशंसाओं को अमल में नहीं लाया गया है.
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आज भी लोगों की लड़ाई जारी
इस गैस त्रासदी को 34 साल हो गए है. इतने साल के बाद भी सरकार पीड़ितों के दर्द पर मरहम नहीं लगाई है. पीड़ित मुआवजे समेत बुनियादी सुविधाओं के लिए लड़ाई लड़ रहे हैं. गैस पीड़ितों के हितों के लिए पिछले तीन दशकों से अधिक समय से काम करने वाले भोपाल गैस पीड़ित महिला उद्योग संगठन के संयोजक अब्दुल जब्बार ने कहा कि हादसे के 34 साल बाद भी न तो मध्यप्रदेश सरकार ने और न ही केंद्र सरकार ने इसके नतीजों और प्रभावों का कोई आकलन करने की कोशिश की है.
ऐसे हुई थी भोपाल गैस त्रासदी
दरअसल, 2 दिसंबर 1984 की रात में भूमिगत टैंक का तापमान अचानक 200 डिग्री तक पहुंच गया, जबकि इसका तापमान 4-5 डिग्री के बीच रहना चाहिए था. अचानक से तापमान बढ़ जाने के कारण टैंक में बनने वाली जहरीली गैस उससे जुड़ी पाइप लाइन में पहुंचने लगी और पाइप लाइन का वॉल्व ठीक तरह से बंद न होने के कारण उससे गैस का रिसाव होने लगा.
हालांकि उस दौरान ड्यूटी पर तैनात कर्मचारियों ने वॉल्व बंद करने की कोशिश की, लेकिन खतरे का सायरन बजते ही उन्होंने वहां से बाहर निकलना ही बेहतर समझा, जिसके बाद पल भर में ही ये जहरीली गैस आस पास के इलाकों में फैल गई और इतिहास के पन्नों में भोपाल गैस त्रासदी बनकर दर्ज हो गई.