नयी दिल्ली, 17 दिसंबर उच्चतम न्यायालय ने राष्ट्रीय हरित अधिकरण (एनजीटी) के उस फैसले को मंगलवार को खारिज कर दिया, जिसमें उसने पुणे में 1960 से संचालित कुष्ठ रोगियों के केंद्र को हटाने का निर्देश दिया था।
न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति उज्ज्ल भुइयां की पीठ ने एनजीटी के उस आदेश को खारिज कर दिया जिसमें अधिकारियों को वन भूमि पर कथित अतिक्रमण के कारण इसे हटाने का निर्देश दिया गया था।
पीठ ने कहा, ‘‘मानवता नाम की कोई चीज होती है; करुणा और सहानुभूति नाम की कोई चीज होती है। कुष्ठ रोगी समाज का हिस्सा हैं। हम समावेशिता और अन्य चीजों पर पांच सितारा होटलों में व्याख्यान दे रहे हैं तथा यहां समाज की बात सुने बिना ही निर्मम आदेश पारित कर दिया जाता है। इस देश में वन और पर्यावरण के नाम पर तमाम तरह की चीजें हो रही हैं।’’
न्यायालय ने कहा कि हरित अधिकरण को वन भूमि से कथित अतिक्रमण हटाने के लिए इस तरह के “व्यापक निर्देश” पारित करने से पहले कम से कम दशकों से चल रही सोसायटी की बात सुननी चाहिए थी।
शीर्ष अदालत ने कहा कि एनजीटी की पश्चिमी जोन पीठ ने कुछ कथित अतिक्रमणकारियों के इस स्पष्ट रुख - कि उनका वन भूमि से कोई लेना-देना नहीं है और उन्होंने किसी भी तरह से अतिक्रमण नहीं किया है- की परवाह किए बिना इस मुद्दे पर कोई कारण बताए और चर्चा किए ही इसे हटाने का आदेश पारित कर दिया।
पीठ ने आगे कहा कि अपीलकर्ता सोसायटी जैसे संबंधित भूखंड के वास्तविक उपयोगकर्ताओं को अपनी बात रखने का कोई अवसर नहीं दिया गया, जिससे यह स्थापित हो गया कि संबंधित प्राधिकारियों की पूर्व अनुमति से कुष्ठ रोग केंद्र चलाया जा रहा था।
न्यायालय ने कहा कि एनजीटी जैसे अर्ध न्यायिक निकाय को अपने पास आने वाले व्यक्ति की प्रामाणिकता और अधिकारिता को ध्यान में रखना चाहिए।
पीठ ने कहा कि इस मामले में, पुणे निवासी आवेदक ने ‘‘एक सुबह न्यायाधिकरण से संपर्क किया और यह भी नहीं बताया कि ‘सोसायटी’ का ढांचा वर्ष 1960 में बना था।’’
हालांकि, पीठ ने कहा कि किसी भी पक्ष को सुनवाई का अवसर दिए बिना कोई प्रतिकूल आदेश पारित नहीं किया जाना चाहिए।
पीठ ने कहा कि अपीलकर्ता सोसायटी महाराष्ट्र के पुणे के एक गांव में एक सार्वजनिक धर्मार्थ न्यास है और 1960 से कुष्ठ रोगियों के कल्याण और पुनर्वास के लिए काम कर रही है।
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