देश की खबरें | भारत ने आईसीजे में सुनवाई के दौरान जलवायु संकट के लिए विकसित देशों की आलोचना की

नयी दिल्ली, पांच दिसंबर भारत ने बृहस्पतिवार को अंतरराष्ट्रीय न्यायालय (आईसीजे) में एक ऐतिहासिक सुनवाई के दौरान जलवायु संकट पैदा करने के लिए विकसित देशों की आलोचना करते हुए कहा कि उन्होंने वैश्विक कार्बन बजट का सही तरीके से इस्तेमाल नहीं किया और जलवायु वित्त से जुड़े अपने वादे पूरे नहीं किए।

भारत ने कहा कि अब वे मांग कर रहे हैं कि विकासशील देश अपने संसाधनों के इस्तेमाल पर रोक लगाएं।

न्यायालय यह पता लगा रहा है कि जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए देशों के पास क्या कानूनी दायित्व हैं और यदि वे असफल होते हैं तो इसके क्या परिणाम होंगे।

भारत की ओर से दलील देते हुए विदेश मंत्रालय (एमईए) के संयुक्त सचिव लूथर एम. रंगरेजी ने कहा, "अगर जलवायु को होने वाले नुकसान में योगदान असमान है, तो जिम्मेदारी भी असमान होनी चाहिए।"

भारत ने कहा कि जलवायु परिवर्तन में सबसे कम योगदान देने के बावजूद विकासशील देश इससे सबसे अधिक प्रभावित हैं।

रंगरेजी ने कहा, "विडंबना यह है कि ऐतिहासिक रूप से सबसे अधिक योगदान देने वाले विकसित देश इस चुनौती से निपटने के लिए तकनीकी व आर्थिक साधनों से संपन्न हैं।”

उन्होंने कहा कि अमीर देश जीवाश्म ईंधन का लाभ उठा रहे हैं जबकि विकासशील देशों को अपने स्वयं के ऊर्जा संसाधनों का उपयोग करने से हतोत्साहित किया गया है।

उन्होंने कहा, "जिन देशों ने जीवाश्म ईंधन के दोहन से विकास का लाभ उठाया है, वे विकासशील देशों से उनके पास उपलब्ध राष्ट्रीय ऊर्जा संसाधनों का उपयोग नहीं करने की मांग कर रहे हैं।"

भारत ने जलवायु-वित्त प्रतिबद्धताओं के संबंध कम कार्रवाई किए जाने की भी आलोचना की।

भारत ने कहा, "विकसित देशों के समूहों ने 2009 में कोपेनहेगन सीओपी में किए गए 100 अरब अमेरिकी डॉलर का योगदान देने और अनुकूलन कोष को दोगुना करने के वादे को अब तक ठोस कार्रवाई में तब्दील नहीं किया।”

भारत ने कहा कि अजरबैजान के बाकू में हुए सीओपी29 में ‘ग्लोबल साउथ’ के लिए सहमति प्राप्त नया जलवायु वित्त पैकेज विकासशील देशों की तत्काल जरूरतों को पूरा करने के हिसाब से बहुत कम है।

भारत ने निष्पक्षता के सिद्धांत पर जोर देते हुए कहा, "यदि वैश्विक पर्यावरणीय क्षरण में योगदान असमान है, तो जिम्मेदारी भी असमान होनी चाहिए।"

भारत ने पेरिस समझौते के तहत अपने जलवायु लक्ष्यों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता की भी पुष्टि की, लेकिन अपने नागरिकों पर अत्यधिक बोझ डालने के खिलाफ सचेत किया।

भारत ने कहा, "अपने नागरिकों पर बोझ डालने की भी हमारी एक सीमा है।”

भारत ने कहा कि न के बराबर उत्सर्जन करने वाले देशों से जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए समान बोझ उठाने की अपेक्षा करना अन्यायपूर्ण है। इसके अलावा विकासशील देशों के दायित्व दो महत्वपूर्ण पहलुओं - जलवायु वित्त और जलवायु न्याय - की पूर्ति पर निर्भर करते हैं।

भारत ने कहा कि वैश्विक जनसंख्या का लगभग 17.8 प्रतिशत हिस्सा भारत में रहता है, जलवायु परिवर्तन में इसका योगदान चार प्रतिशत से भी कम है।

भारत के अनुसार विकसित देशों की ओर से किए गए वादे के अनुसार वित्तीय, तकनीकी समर्थन नहीं मिलने के बावजूद, वह पेरिस समझौते के तहत अपने निर्धारित राष्ट्रीय योगदान (एनडीसी) के लिए प्रतिबद्ध है।

भारत ने कहा कि विकसित देशों को 2050 से पहले ही कार्बन उत्सर्जन स्तर ‘नेट जीरो’ करके उदाहरण पेश करना चाहिए।

यह सुनवाई प्रशांत द्वीप देशों और वानुअतु के वर्षों के अभियान का परिणाम है, जिसके कारण संयुक्त राष्ट्र के एक प्रस्ताव के तहत आईसीजे से राय मांगी गई है। अगले दो सप्ताह में छोटे द्वीप राष्ट्रों और बड़े उत्सर्जकों समेत 98 देश अपने विचार पेश करेंगे।

आईसीजे का फैसला भले ही बाध्यकारी न हो लेकिन यह जलवायु परिवर्तन के खिलाफ वैश्विक लड़ाई में एक नैतिक एवं कानूनी मानदंड स्थापित कर सकता है।

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