नयी दिल्ली, छह जनवरी उच्चतम न्यायालय ने सोमवार को कहा कि आजीवन कारावास की सजा काट रहे कैदियों को छूट नीति के तहत समय से पहले रिहा करने के दौरान ‘‘कठोर शर्तें’’ नहीं लगाई जानी चाहिए।
न्यायमूर्ति अभय एस. ओका और न्यायमूर्ति उज्जल भुइयां की पीठ ने यह टिप्पणी की और देश भर के कारागारों में आजीवन कारावास की सजा काट रहे दोषियों को छूट देने से संबंधित विभिन्न पहलुओं पर अपना फैसला सुरक्षित रख लिया।
न्यायालय ने टिप्पणी की, ‘‘छूट देने की शर्तें इतनी कठिन नहीं होनी चाहिए कि उनका क्रियान्वयन मुश्किल हो जाए... ऐसी शर्तें छूट के लाभ को निरर्थक बना देंगी।’’
पीठ ने कहा कि छूट की शर्तें ऐसी होनी चाहिए कि इसके उल्लंघन का आसानी से पता लगाया जा सके और यदि शर्तों के उल्लंघन के कारण छूट रद्द कर दी जाती है तो दोषियों को उसके खिलाफ सुनवाई का अधिकार होना चाहिए।
पीठ आजीवन कारावास की सजा पाए दोषियों को छूट लाभ प्रदान करते समय किस प्रकार की शर्तें लगाई जाएं तथा किन परिस्थितियों में इसे रद्द किया जाना चाहिए संबंधी पहलुओं पर विचार कर रही थी।
न्यायालय के समक्ष एक अन्य मुद्दा यह था कि क्या राज्य सरकारें अपनी नीतियों के अनुसार आजीवन कारावास की सजा काट रहे पात्र कैदियों की स्थायी छूट की मांग पर विचार करने के लिए बाध्य हैं, भले ही ऐसी कोई याचिका दायर न की गई हो।
पीठ इस प्रश्न पर विचार कर रही कि क्या ऐसे आवेदनों को खारिज करते समय कारण दर्ज करना आवश्यक है या नहीं।
पीठ ने वरिष्ठ अधिवक्ता एवं न्यायमित्र लिज मैथ्यू की दलीलें सुनने के बाद छूट के पहलू पर आदेश सुरक्षित रख लिया।
वरिष्ठ अधिवक्ता ने न्याय को बनाए रखने, निष्पक्षता सुनिश्चित करने और भारत के सुधारात्मक आपराधिक न्याय दर्शन के अनुरूप पुनर्वास को बढ़ावा देने के लिए राज्यों में छूट प्रक्रियाओं को मानकीकृत करने पर जोर दिया।
मैथ्यू ने कहा कि सजा में छूट या समयपूर्व रिहाई दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 432, संविधान के अनुच्छेद 161 और 72 तथा अन्य प्रासंगिक कानूनों के तहत राज्य सरकारों को दिया गया विवेकाधीन अधिकार है।
उन्होंने कहा, “छूट देना किसी भी व्यक्ति का निहित अधिकार नहीं है, लेकिन कुछ शर्तों को पूरा करने पर इस संबंध में विचार किया जा सकता है।”
शीर्ष अदालत ने देश में दोषियों को स्थायी छूट देने वाली नीतियों की पारदर्शिता को मानकीकृत करने और सुधारने के उद्देश्य से कई दिशा निर्देश जारी किए थे।
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