देश की खबरें | मुस्लिम महिला को गुजारा भत्ता देने पर न्यायालय के फैसले से शाह बानों मामले की यादें हुईं ताजा

नयी दिल्ली, 10 जुलाई दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा-125 के तहत मुस्लिम महिला के भी अपने पति से गुजारा भत्ता की मांग कर सकने संबंधी उच्चतम न्यायालय के बुधवार के फैसले ने 1985 के शाह बानो बेगम मामले में दिये गए शीर्ष अदालत के ऐतिहासिक निर्णय की यादें ताजा कर दीं।

सीआरपीसी की धारा 125 के धर्मनिरपेक्ष प्रावधान के तहत मुस्लिम महिलाओं को भरण-पोषण का भत्ता देने का विवादास्पद मुद्दा 1985 में राजनीतिक विमर्श के केंद्र में आया था, जब मोहम्मद अहमद खान बनाम शाहबानो बेगम मामले में संविधान पीठ ने सर्वसम्मति से यह फैसला सुनाया था कि मुस्लिम महिलाएं भी गुजारा भत्ता पाने की हकदार हैं।

इस फैसले की वजह से, मुस्लिम पति द्वारा अपनी तलाकशुदा पत्नी को विशेष रूप से ‘इद्दत’ अवधि (तीन महीने) से परे, भरण-पोषण की राशि देने के वास्तविक दायित्व को लेकर विवाद पैदा हो गया था।

राजीव गांधी के नेतृत्व वाली तत्कालीन केंद्र सरकार ने स्थिति को ‘स्पष्ट’ करने के प्रयास के तहत मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986 लाया था, जिसमें तलाक के समय ऐसी महिला के अधिकारों को स्पष्ट करने का प्रयास किया गया।

शीर्ष न्यायालय की संविधान पीठ ने 1986 के अधिनियम की संवैधानिक वैधता को 2001 में डेनियल लतीफी मामले में बरकरार रखा था।

शाहबानो मामले में ऐतिहासिक फैसले में ‘पर्सनल लॉ’ की व्याख्या की गई तथा लैंगिक समानता के मुद्दे के समाधान के लिए समान नागरिक संहिता (यूसीसी) की आवश्यकता का भी जिक्र किया गया। इसने विवाह और तलाक के मामलों में मुस्लिम महिलाओं के लिए समान अधिकारों की नींव रखी।

बानो ने शुरूआत में, अपने तलाकशुदा पति से भरण-पोषण राशि पाने के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाया था। बानो के पति ने उन्हें ‘तलाक’ दे दिया था।

जिला अदालत में शुरू हुई यह कानूनी लड़ाई 1985 में शीर्ष अदालत की पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ के ऐतिहासिक फैसले के साथ समाप्त हुई।

न्यायमूर्ति बी वी नागरत्ना और न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की पीठ ने बुधवार को दिए अपने फैसले में कहा कि शाहबानो मामले में फैसले में मुस्लिम पति द्वारा अपनी तलाकशुदा पत्नी, जो तलाक दिए जाने या तलाक मांगने के बाद अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ है, के प्रति भरण-पोषण के दायित्व के मुद्दे पर विस्तार से चर्चा की गई है।

न्यायालय ने कहा, ‘‘पीठ ने (शाहबानो मामले में) सर्वसम्मति से यह माना था कि ऐसे पति का दायित्व उक्त संबंध में किसी भी व्यक्तिगत कानून के अस्तित्व से प्रभावित नहीं होगा और सीआरपीसी 1973 की धारा 125 के तहत भरण-पोषण मांगने का स्वतंत्र विकल्प हमेशा उपलब्ध है।’’

शीर्ष अदालत ने कहा कि शाहबानो मामले में दिये गए फैसले में यह भी कहा गया है कि यह मानते हुए भी कि तलाकशुदा पत्नी द्वारा मांगी जा रही भरण-पोषण राशि के संबंध में धर्मनिरपेक्ष और ‘पर्सनल लॉ’ के प्रावधानों के बीच कोई टकराव है, तो भी सीआरपीसी की धारा 125 का प्रभाव सर्वोपरि होगा।

पीठ ने कहा कि 1985 के फैसले में स्पष्ट किया गया है कि पत्नी को दूसरी शादी करने वाले अपने पति के साथ रहने से इनकार करने का अधिकार है।

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