जर्मनी के ऑटो उद्योग का भविष्य 2025 में होगा तय
प्रतीकात्मक तस्वीर (Photo Credit: Image File)

पिछले साल जर्मनी का कार उद्योग संकट में रहा. इसकी वजह रही, यूरोप में इलेक्ट्रिक गाड़ियों की बिक्री में आई गिरावट और चीन में जीवाश्म ईंधन से चलने वाली कारों की मांग में आई कमी. क्या इस साल हालात कुछ बेहतर होंगे.नया साल शुरू हो चुका है लेकिन जर्मनी की अर्थव्यवस्था अभी भी मंदी की चपेट में है. ऑटो इंडस्ट्री में पैदा हुआ संकट इस मंदी की एक बड़ी वजह है. ऑटो उद्योग को जर्मनी के सबसे महत्वपूर्ण उद्योगों में शुमार किया जाता है. इसमें भी सबसे प्रमुख फोक्सवागन कंपनी है, जो यूरोप की सबसे बड़ी कार निर्माता है. यह कंपनी अगले कुछ सालों में जर्मनी में हजारों नौकरियां कम करने की योजना बना रही है. जर्मनी की कई अन्य ऑटोमोटिव कंपनियों में भी कर्मचारियों की सामूहिक छंटनी हो सकती है. उद्योग के कई आपूर्तिकर्ता भी इससे प्रभावित होंगे.

संकट के कारणों पर बंटी हुई है राय

जर्मनी के कार उद्योग की मौजूदा हालत सभी को साफ दिख रही है लेकिन जब संकट के कारणों की पहचान करनी होती है तो लोगों की राय बंट जाती है. सेंटर ऑफ ऑटोमोटिव मैनेजमेंट (सीएएम) के निदेशक श्टेफान ब्रात्सेल ने इस स्थिति को "दिक्कतों का मिश्रण” बताया और इन समस्याओं को "जर्मनी का बहुसंकट” कहा.

उन्होंने डीडब्ल्यू से कहा, "यह उद्योग ई-मोबिलिटी, सॉफ्टवेयर आधारित कारों और अपने आप चलने वाली गाड़ियों की तरफ बढ़ने के लिए अभी भी नए कौशल सीख रहा है. इसके अलावा, चुनौतियों के साथ एक नया प्रतियोगी माहौल बना है, जो सिर्फ टेस्ला और चीनी कार कंपनियों तक सीमित नहीं है.”

क्या जर्मन कार नीति की विफलता है फोक्सवागन संकट?

जर्मन एसोसिएशन ऑफ द ऑटोमोटिव इंडस्ट्री (वीडीए) के एक प्रवक्ता इन कठिनाइयों का थोड़ा दोष नीति-निर्माताओं को भी देते हैं. उन्होंने डीडब्ल्यू से कहा, "चांसलर ओलाफ शॉल्त्स की सरकार द्वारा दिसंबर 2023 में इलेक्ट्रिक वाहनों पर सब्सिडी देना बंद करना और जर्मनी में पर्याप्त चार्जिंग सुविधाएं ना होने की वजह से ब्रिकी के आंकड़े गिरे और ऐसी स्थिति बनी."

सेंटर फॉर ऑटोमोटिव रिसर्च (सीएआर) थिंक टैंक के फेर्डिनांड डूडनह्योफर की राय भी मिलती-जुलती ही है. उन्होंने भ्रमित करने वाले संदेश देने के लिए राजनेताओं की आलोचना की. उन्होंने डीडब्ल्यू से कहा कि एक समय पर वे (राजनेता) इलेक्ट्रिक कारों को चाहते थे और बाद में वे जीवाश्म ईंधन से चलने वाली कारों का समर्थन करने लगे, इससे लोग भ्रमित हुए.

वैश्विक प्रतिस्पर्धा में पिछड़ा जर्मन कार उद्योग

पिछले कुछ सालों में यह साफ हो गया है कि ऑटोमोबाइल उद्योग का भविष्य पारंपरिक इंटरनल कंबश्चन इंजनों में नहीं है, चाहे वे जीवाश्म ईंधन से चलें या किसी और सिंथेटिक विकल्प से. उद्योग अब तेजी से इलेक्ट्रिक कारों की तरफ बढ़ रहा है.

फ्रांक श्वोपे जर्मनी के एक विश्वविद्यालय में ऑटोमोटिव मैनेजमेंट पढ़ाते हैं. उनकी राय में कुछ कार कंपनियों में प्रबंधन के स्तर पर गंभीर गलतियां हुई हैं. उन्होंने डीडब्ल्यू से कहा कि कंपनियों में ऊंचे पदों पर बैठे लोग सभी चीजों को अनदेखा करते रहे और यह उम्मीद करते रहे कि सबकुछ अपने आप ठीक हो जाएगा.

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श्टेफान ब्रात्सेल कहते हैं कि लेकिन ऐसा नहीं हुआ है और जर्मन कार उद्योग वैश्विक प्रतिस्पर्धा में पीछे रह गया है. वे ऊंची श्रम कीमतों, स्वास्थ्य देखभाल खर्चों और लंबी छुट्टियों को इसकी वजह बताते हैं. वे कहते हैं कि जर्मनी की वर्कफोर्स के लिए ये सुविधाएं तब तक चल रही थीं जब तक जर्मनी दूसरों की तुलना में बेहतर और ज्यादा इनोवेटिव था.

चीन को मिली ईवी मार्केट में बढ़त

ब्रात्सेल ने एक बड़ी कमी पहचान ली है. जो यह है कि जर्मनी की कार कंपनियां पारंपरिक गाड़ियां बनाने में तो माहिर हैं, लेकिन वे इलेक्ट्रिक कार बनाने के मामले में पीछे छूट गई हैं क्योंकि इसमें मैकेनिकल पार्ट्स की नहीं, बल्कि ऑटोमोटिव सॉफ्टवेयर और इलेक्ट्रॉनिक पुर्जों की जरूरत होती है.

कील इंस्टीट्यूट फॉर द वर्ल्ड इकोनॉमी के डिर्क डोहजे मानते हैं कि जर्मनी के निर्माता और इंजीनियर अभी भी विश्व के अभिजात वर्ग में शामिल हैं. उन्होंने डीडब्ल्यू से कहा कि खासतौर पर प्रबंधन में लचीलेपन की कमी है कि वे नए ग्राहक समूहों को आकर्षित करें जैसे एशिया के तकनीक प्रेमी युवाओं को.

चीन पर निर्भरता कम करने के लिए जर्मनी को भारत से उम्मीद

डोहजे का मानना है कि चीन ना केवल ईवी तकनीक बल्कि बाजार की ताकत के मामले में भी जर्मनी से आगे है. वे कहते हैं कि चीन का ईवी बाजार विश्व में सबसे बड़ा और सबसे गतिशील है, जो बताता है कि चीन अपनी यह बढ़त बनाए रखेगा.

चीन के तकनीकी रूप से उन्नत होने और चीनी ग्राहकों की पसंद में नाटकीय बदलाव आने की वजह से जर्मनी की तीन बड़ी कार कंपनियों- फोक्सवागन, बीएमडब्ल्यू और मर्सिडीज के लिए काफी परेशानियां खड़ी हो गई हैं. इन कंपनियों का लंबे समय तक चीन के कार बाजार में प्रभुत्व था.

"भारत में भी उभरेंगे मजबूत खिलाड़ी”

ब्रात्सेल कहते हैं कि अब नए प्रतियोगी भी आ गए हैं जो बाजार में हिस्सेदारी के लिए जर्मन कंपनियों से प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं. वे आगे कहते हैं, "यह सिर्फ चीन तक सीमित नहीं है. मध्यम अवधि में, चीन की तरह भारत में भी मजबूत खिलाड़ी उभरेंगे. चीन और कोरिया की कई कंपनियां भी भारत में प्रवेश कर सकती हैं. संभव है कि वे साझेदारी बनाकर ऐसा करेंगी.”

फ्रांक श्वोपे मानते हैं कि जर्मनी के वाहन निर्माता अभी भी अत्याधुनिक बैटरियों के विकास में उम्मीद की किरण देख सकते हैं. ये बैटरियां इलेक्ट्रिक वाहनों का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं और भविष्य में भी रहेंगी. वे कहते हैं, "इलेक्ट्रिक वाहनों के लिए बनी बैटरियां अभी काफी अपरिपक्व हैं. इनमें सुधार की काफी गुंजाइश है. इस दशक के अंत तक हम सॉलिड-स्टेट बैटरियों का चलन बढ़ता हुआ देख सकते हैं, जिससे पूरा खेल बदल सकता है.”

जर्मन वाहन निर्माताओं के लिए अहम साल

श्टेफान ब्रात्सेल मानते हैं, "वैश्विक विकास के साथ तालमेल बिठाने के जर्मन वाहन उद्योग के प्रयासों के मामलों में 2025 एक निर्णायक साल होगा. यह ना सिर्फ विनियामक सुधारों के संदर्भ में, बल्कि प्रबंधन द्वारा उठाए जाने वाले रचनात्मक और साहसिक कदमों के संदर्भ में भी महत्वपूर्ण होगा.” वे आगे कहते हैं कि जर्मनी को कम से कम उतना इनोवेटिव होना होगा, जितना यह महंगा है.

एक हालिया अध्ययन में सामने आया कि कितना कुछ दांव पर लगा हुआ है. स्विट्जरलैंड स्थित प्रोग्नोस इंस्टीट्यूट ने वीडीए उद्योग समूह के लिए यह अध्ययन किया था. अध्ययन के मुताबिक, अगर मौजूदा ईवी ट्रेंड जारी रहता है तो 2035 में जर्मनी के कार उद्योग में 2019 की तुलना में एक लाख 86 हजार नौकरियां कम हो जाएंगी. वीडीए प्रवक्ता ने अध्ययन का हवाला देते हुए बताया कि 2019 से 2023 के बीच, उद्योग से जुड़ी 46 हजार नौकरियां पहले ही जा चुकी हैं और 2035 तक एक लाख 40 हजार नौकरियां और जा सकती हैं.

प्रवक्ता ने कहा, "इस वजह से वीडीए जल्द राजनीतिक कदम उठाए जाने की मांग कर रहा है. इसमें कम नौकरशाही, अधिक व्यापार समझौते, प्रतिस्पर्धी कर प्रणाली के साथ-साथ सरलता और तेजी से स्वीकृति मिलने की प्रक्रिया शामिल होनी चाहिए.”

आसान नहीं है भविष्य की राह

ब्रात्सेल चेतावनी देते हुए कहते हैं कि अगर नीति-निर्माता अधिक अनुकूल स्थितियां पैदा कर दें और जर्मन वाहन निर्माता प्रतिस्पर्धा में वापस आ जाएं तो भी उद्योग को उबरने में समय लगेगा. वे कहते हैं कि अगले दो से तीन साल काफी चुनौतीपूर्ण होंगे और इस दौरान कई संरचनात्मक समस्याओं से एक साथ निपटने की जरूरत होगी. वे उम्मीद के साथ कहते हैं कि राजनेताओं ने अब कम से कम जर्मनी के बहुसंकट को पहचान लिया है.

इसके उलट, डोहजे का अनुमान है कि स्थिति सुधरने से पहले और बिगड़ सकती है. वे कहते हैं, "मुझे लगता है कि जर्मनी के वाहन उद्योग के लिए 2025 एक बहुत कठिन साल होगा. इस साल भविष्य के लिए सही दिशा तय करना भी बहुत जरूरी होगा.”

फेर्डिनांड डूडनह्योफर के हिसाब से यह काफी हद तक चीन और अमेरिका के बाजारों में होने वाले बदलावों पर भी निर्भर करेगा. वे कहते हैं, "जर्मन उद्योग के लिए गतिशील बाजारों में मौजूद रहना बेहद जरूरी है. यह कुछ हद तक चीन हो सकता है लेकिन इसमें अमेरिका भी शामिल है. वहां डॉनल्ड ट्रंप को अभी यह तय करना बाकी है कि क्या वे 1980 के दशक के कंबश्चन इंजन वाले युग में वापस जाना चाहते हैं.”

फ्रांक श्वोपे मानते हैं कि जर्मन कार निर्माताओं के लिए उम्मीद बाकी है क्योंकि उन्हें उम्मीद है कि इस साल या फिर अगले साल, जर्मनी और यूरोप में इलेक्ट्रिक वाहनों की बिक्री में महत्वपूर्ण बढ़ोतरी होगी.