भक्ति आंदोलन के प्रतिष्ठित संत शिरोमणि गुरू रविदास का जन्म माघ मास की पूर्णिमा (1376 ईस्वी) को वाराणसी स्थित गोवर्धनपुर गांव में हुआ था, पिता संतोख दास पेशे से चर्मकार थे, और माँ कर्मा धार्मिक प्रवृत्ति की थी, चूंकि उनका जन्म रविवार को हुआ था, इसलिए उनका नाम रविदास रखा गया. हालांकि अपने अनुयायियों में उन्हें भिन्न-भिन्न नामों से जाना जाता है. गुजरात और महाराष्ट्र में रोहिदास, बंगाल में रुई दास कहते हैं, जबकि पांडुलिपियों में रामदास, रैदास, रेमदास और रौदास के नाम से भी लोकप्रिय हैं. इस वर्ष 24 फरवरी 2024, शनिवार को उनकी 648 वीं जयंती मनाई जाएगी. इस अवसर पर बात करेंगे, गुरु रविदास से जुड़ी रोचक कथाओं की...
परिश्रमी, धार्मिक प्रवृत्ति एवं असमानता के विरुद्ध संघर्षरत जीवन
रविदास का बचपन बहुत संघर्षपूर्ण था, अपने घर-परिवार के लिए कठिन परिश्रम करते थे. पिता को उनके चर्मकार के व्यवसाय में मदद के साथ अतिरिक्त आय के लिए वह गोबर-कूड़े उठाने का भी कार्य करते थे, लेकिन माँ की धार्मिक प्रवृत्ति का भी उन पर गहरा प्रभाव था. वे रविदास को धर्म की शिक्षा देती थीं. खुद रविदास भी अपनी मां से धार्मिक ज्ञान प्राप्त करते थे. उनके घर पर रामायण की पाठशाला चलती थी. चूंकि वे निचली जाति के थे, लिहाजा वह अपने परिवार, समाज और जाति के लोगों को आर्थिक, सामाजिक, और धार्मिक असमानताओं के खिलाफ संघर्षरत रहने हेतु न केवल प्रेरित करते थे, बल्कि स्वयं भी संघर्षरत रहे. यह भी पढ़ें : Jaya Ekadashi 2024 Wishes: जया एकादशी की इन भक्तिमय हिंदी WhatsApp Messages, Quotes, Facebook Greetings के जरिए दें शुभकामनाएं
रविदास के जीवन के प्रेरक और रोचक प्रसंग!
गंगाजी ने दिया स्वर्ण कंगनः एक दिन रैदास अपनी कुटिया में बैठे थे. तभी एक ब्राह्मण आये, कहा, मैं गंगा-स्नान को जा रहा था, सोचा आपसे मिलता चलूं. रैदास ने गंगा को अर्पित करने हेतु एक सिक्का दिया. ब्राह्मण ने वह सिक्का गंगाजी में डाला, तो गंगा मैया ने उन्हें स्वर्ण-कंगन दिया. ब्राह्मण ने नगर के राजा को प्रसन्न करने हेतु कंगन दिया. राजा ने कंगन अपनी पत्नी को दिया और ब्राह्मण को स्वर्ण मुद्राएं दी. रानी को कंगन अच्छा लगा, उन्होंने वैसा ही दूसरा कंगन मांगा. ब्राह्मण चिंतित हो गया. वह रैदास के पास आया, सारी बातें बताते हुए कहा, कि राजा को उसने दूसरा कंगन नहीं दिया तो वह उसे दंड देगा. रैदास ने कहा, आप परेशान मत हों. उन्होंने कठौती में गंगाजल डालकर गंगाजी का आह्वान किया. सारी बातें बताकर एक और कंगन मांगा. गंगाजी ने दूसरा कंगन दे दिया. रैदास ने वह कंगन ब्राह्मण को देते हुए कहा, जाओ राजा को कंगन देकर अभयदान प्राप्त करो.
मन चंगा तो कठौती में गंगाः एक बार संत रैदास के कुछ मित्र उनके पास आये और कहा कि वे गंगा स्नान को जा रहे हैं, हो सकते तो आप भी चलो. रैदास ने कहा मैं गंगा-स्नान को जरूर चलता, मगर आज ही किसी को जूते बनाकर देने का वचन दिया है. ऐसे में अगर गंगा स्नान को गया तो मेरा मन यहां लगा रहेगा, फिर गंगा-स्नान का पुण्य कैसे मिलेगा. अगर मेरा मन साफ है तो इस कठौती के जल से ही गंगा-स्नान का पुण्य प्राप्त कर लूंगा. तभी से यह कहावत प्रचलित है, ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’.
ऐसे बने चर्मकार से संत शिरोमणिः
रविदास पिता के काम में हाथ बटाते थे. उन्हें बचपन से साधु-संतों का सानिध्य अच्छा लगता था. वह जब भी किसी साधु-संत को नंगे पैर चलते देखते तो उसके लिए एक चप्पल बिना पैसे लिए बनाकर दे देते थे. रविदास के पिता उनकी इस हरकत से नाराज रहते थे. एक दिन उन्होंने रविदास को घर से निकाल दिया. संत रविदास एक कुटिया में रहकर जूते-चप्पल बनाने लगे, लेकिन साधु-संतों की सेवा वैसे ही करते रहे. इसके साथ-साथ वह समाज में व्याप्त बुराइयों एवं छुआछूत आदि पर दोहे और कविताएं रचकर समाज पर व्यंग्य कसते थे. धीरे-धीरे लोग रविदास की वाणी प्रभावित होने लगे. उनके अनुयायियों की संख्या तेजी से बढ़ने लगी. शीघ्र ही वह संत शिरोमणि के रूप में लोकप्रिय हो गए.