Muharram 2021: क्या है यौमे आशूरा? जानें मुहर्रम का महत्व, तारीख तथा इमाम की शौर्य एवं शहादत की गाथा!
प्रतिकात्मक तस्वीर (Photo Credits: File Image)

Muharram 2021: इस्लामिक कैलेंडर के अनुसार, मुहर्रम साल का पहला माह होता है. आशूरा (ashura), मुहर्रम (Muharram) शुरू होने के 10वें दिन आशूरा मनाया जाता है. इस दिन कुछ मुस्लिम रोजा रखते हैं. हांलाकि सभी के लिए इस दिन रोजा रखना अनिवार्य नहीं है. इस्लामिक वर्ष के पहले महीने को मुहर्रम के रूप में जाना जाता है. मुहर्रम के पहले दिन इस्लामिक न्यू ईयर मनाया जाता है. वस्तुतः इस्लामी कैलेंडर की शुरुआत साल 622 AD में हुई थी. कहा जाता है कि इस समय पैगंबर मुहम्मद धार्मिक उत्पीड़न से बचने के लिए मक्का छोड़कर यत्रिब (जिसे अब मदीना कहा जाता है) में आकर बस गये थे. मदीना पहुंचने पर पहली बार मुस्लिम समुदाय की स्थापना की गई. इस प्रवास को अरबी भाषा में हिज्रा कहा जाता है. अंग्रेजी में इसे इसे Hijra या Hegira लिखते हैं. इस हिसाब से नववर्ष के पहले दिन को अलहिज्री कहा जाता है. यह भी पढ़ें: Muharram 2021: जानें आशुरा क्या है? चांद दिखने के बाद कब से शुरू होगा पहला इस्लामिक महीना

क्या है मुहर्रम का महत्व? मुहर्रम का महीना मुस्लिम समुदाय के लिए बेहद पवित्र होता है. शिया मुसलमान इस दुख के दिन इमाम हुसैन और उनके परिवार की मौत पर शोक मनाते हैं. वे उनके बलिदान का सम्मान करते हैं और प्रार्थना करते हैं. वे तमाम भौतिक सुखों से स्वयं को दूर रखते हैं. शोक की यह अवधि इमाम हुसैन की मौत से दिन से 10 दिनों तक चलती है. वे काले वस्त्र पहनकर संयम का पालन करते हुए एक दिन उपवास करके शोक मनाते हैं. फिर 10वें दिन वे उपवास तोड़ते हैं. शिया अशूरा पर इमाम हुसैन की मौत पर शोक मनाते हैं, वहीं सुन्नी मुसलमान मुहम्मद के बाद उपवास रखते हैं. मुस्लिम समुदाय रमजान के बाद मुहर्रम को दूसरा पवित्र महीना मानते हैं. साल के चार पवित्र महीनों में से ये एक है जब युद्ध पर रोक लगा दी जाती है.

क्या होता है यौमे आशूरा?

मुहर्रम के दसवें दिन को यौमे आशूरा कहते हैं. इस दिन को शिया और सुन्नी दोनों समुदाय के लोग मनाते हैं. जहां तक इस वर्ष यानी 1921 में यौम आशुरा की तिथि की बात है, नये माह में चांद दिखने के बाद ही इसकी तारीख की घोषणा की जायेगी. हालांकि मानसून का मौसम होने के नाते चांद आसानी से नहीं दिखता. ऐसी स्थिति में एक महीना 30 दिन को माना जाता है. इस दिन सभी मस्जिदों में जुमे की नमाज के खुत्बे में इस दिन की फजीलत और हजरते इमाम हुसैन की शहादत की विशेष तकरीरें होती हैं. अधिकांश मुसलमान इस दिन अपना कारोबार बंद रखते हैं. घरों में ना-ना किस्म के व्यंजन बनाये जाते हैं. मुसलमान एक हजार बार कुल हुवल्लाह पढकर अपने मुल्क और मिल्लत की सलामती की दुआएं करते हैं. इस दिन को संपूर्ण दुनिया में बेहद अहमियत, अज्मत और फजीलत वाला दिन मानते हैं. इस दिन को यौमे आशूरा कहते हैं.

मुहर्रम का इतिहास

इस्लामिक कैलेंडर के अनुसार यह समय था सन् 60 हिजरी का. कर्बला जिसे सीरिया के नाम से जाना जाता था, वहां यजीद इस्लाम शहंशाह बनना चाहता था. इस प्रयास में उसने आवाम में खौफ फैलाना शुरू किया. लोगों को गुलाम बनाकर उन्हें तरह-तरह से यातनाएं दी गईं. यजीद पूरे अरब पर शासन करना चाहता था, लेकिन उसकी तानाशाही के सामने हजरत मुहम्मद का वारिस इमाम हुसैन एवं उनके भाईयों ने आत्म समर्पण करने के बजाय उसका मुकाबला किया. बीवी-बच्चो की सुरक्षा के लिए इमाम हुसैन मदीना से इराक जा रहे थे. तभी यजीद ने उन पर हमला कर दिया. यजीद की 8000 सेना के साथ इमाम हुसैन अपने 72 साथियों के साथ उनका डटकर सामना किया. उऩ्होंने यजीद की फौज़ को दातों तले चने चबवा दिये. लेकिन संख्या में बहुत ज्यादा कम होने के कारण इमाम युद्ध जीत नही सके. यह लड़ाई मुहर्रम 2 से 6 दिनों तक चली. इमाम के सारे साथी मारे जा चुके थे, तब भी इमाम अकेले यजीद से लड़ते रहे. इसके बावजूद यजीद जब इमाम को मार नहीं सका तो एक दिन जब इमाम नमाज अदा कर रहे थे, दुश्मनों ने उन पर पीछे से हमला करके मारा डाला. लेकिन इस हार में भी लोगों ने इमाम की जीत मानी. तभी से मुहर्रम के महीने को शहादत के रूप में याद करते हैं.