Jivitputrika Vrat 2020: कब है जिउतिया व्रत? जानें इसका महात्म्य, मुहूर्त, एवं कथा. हिंदू धर्म का सबसे कठिन व्रत क्यों कहा जाता है? सनातन धर्मावलंबियों में इस व्रत का खास महत्व है. संतान की दीर्घायु के लिए महिलाएं जिवित्पुत्रिका का निर्जला व्रत रखती हैं. तीन दिनों का यह निर्जल व्रत हिंदू धर्म का सबसे कठिन व्रत माना गया है. इसे विभिन्न अंचलों में जिउतिया, जीमूतिवाहन, जीतिया जैसे विभिन्न नामों से भी जाना जाता है. यह व्रत अश्विन माह के कृष्णपक्ष की अष्टमी (चंद्रमा के घटते चरण) को मनाया जाता है. अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार इस वर्ष जिवित्पुत्रिका व्रत 10 सितंबर दिन बृहस्पतिवार को है. यूं तो यह व्रत संपूर्ण भारत में मनाया जाता है, लेकिन उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखण्ड, मध्य प्रदेश इत्यादि जगहों पर इसका व्यापक स्तर पर सेलीब्रेट किया जाता है. यह भी पढ़ें: Jivitputrika Vrat 2019: संतान की लंबी उम्र व अच्छी सेहत के लिए महिलाएं रखती हैं जीवित्पुत्रिका व्रत, जानिए इसकी कथा और महत्व
आइये जानें इस व्रत का महात्म्य, मुहूर्त, व्रत एवं पूजा विधान तथा पारंपरिक कथा...
क्या है व्रत एवं पूजा विधान?
अश्विन मास कृष्णपक्ष की सप्तमी की रात से ही यह व्रत प्रारंभ हो जाता है. अष्टमी के दिन माताएं प्रातःकाल स्नान-ध्यान करके पूरे दिन निर्जल यानी बिना पानी पिये उपवास रखती हैं. इस दिन को खुर जिउतिया कहते हैं. पूरे दिन कठिन उपवास रखते हुए अपनी संतान के दीर्घायु एवं अच्छी सेहत के लिए ईश्वर से प्रार्थना करती हैं. अगले दिन दोपहर 12 बजे व्रती महिलाएं गंगा अथवा किसी पवित्र नदी या सरोवर में स्नान करके सूर्य को अर्घ्य देने के पश्चात पारण करती हैं. इसीलिए इसे सबसे कठिन व्रत माना जाता है. व्रत का पारण नोनी का साग एवं मड़वा की रोटी खाकर किया जाता है.
व्रत का महात्म्य
जीवित्पुत्रिका व्रत की कथा महाभारत से जुड़ी है. द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वत्थामा अपने पिता की मृत्यु का बदला लेने के लिये अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा के गर्भ में पल रहे शिशु को मारने हेतु ब्रम्हास्त्र का प्रयोग करते हैं. श्रीकृष्ण उत्तरा के गर्भस्थ शिशु की सुरक्षा के लिए स्वयं द्वारा किये सारे पुण्य फल बच्चे को देकर गर्भ में ही उसे दुबारा जीवन दे देते हैं. गर्भ में मृत्यु के पश्चात पुनर्जन्म मिलने के कारण उसका नाम जिवित पुत्रिका रखा गया. जन्म लेने के बाद यही शिशु अपने पुण्य प्रताप से राजा परीक्षित के नाम से सारे ब्रह्माण्ड में लोकप्रिय हुआ.
जीवित्पुत्रिका व्रत एवं पूजा मुहूर्त
अष्टमी प्रारंभ (10 सितंबर) प्रातः 02.05 बजे से
11 सितंबर को प्रातः 3.34 बजे तक.
पौराणिक कथा
प्राचीनकाल में नर्मदा नदी के निकट कंचनबटी नगर में राजा मलयकेतु की राज्य था. वहीं बालुहटा नामक मरुभूमि में पाकड़ वृक्ष पर एक चील रहती थी. पेड़ के नीचे एक सियारिन रहती थी. दोनों सच्ची सहेलियां थीं. एक दिन दोनों ने अन्य महिलाओं की देखा-देखी जीऊतवाहन की पूजा और व्रत का संकल्प लिया. लेकिन व्रत के दिन शहर के व्यापारी की मृत्यु हो गई. उसका दाह संस्कार उसी मरुस्थल पर किया गया. भूखी सियारिन मुर्दा देख भूख बर्दाश्त नहीं कर सकी. उसका व्रत टूट गया. पर चील ने संयम बरतते हुए पूरे नियम से व्रत रखते हुए पारण किया. अगले जन्म में दोनों सहेलियां एक ब्राह्मण के घर में पुत्री के रूप में जन्म लिया. उनके पिता का नाम भास्कर था. चील, बड़ी थी और उसका नाम शीलवती था. शीलवती की शादी बुद्धिसेन से हुई. छोटी बहन सियारन का नाम कपुरावती था. उसकी शादी नगर के राजा मलयकेतु से हुई. भगवान जीऊतवाहन के आशीर्वाद से शीलवती के सात बेटे हुए. पर कपुरावती के सभी बच्चे जन्म लेते ही मर जाते थे. शीलवती के सातों पुत्र बड़े होकर राजा के दरबार में काम करने लगे. उन्हें देख कपुरावती के मन में ईर्ष्या उत्पन्न हुई. उसने राजा से कहकर सभी बेटों के सर कटवा दिए, सात बर्तनों में उनके सर रखकर लाललाल कपड़े से ढककर शीलवती के पास भिजवा दिया. जीऊतवाहन ने सातों भाइयों पर अमृत छिड़ककर जीवित कर दिया. उधर रानी कपुरावती को, बुद्धिसेन के घर से जब कोई सूचना नहीं मिली तो वह स्वयं शीलवती के घर गयी. वहां सबको जीवित देखकर सन्न रह गयी. अब उसे अपनी गलती पर पछतावा हो रहा था. तभी शीलवती को पूर्व जन्म की बातें याद आ गईं. वह कपुरावती के साथ पाकड़ के पेड़ के पास गयी. उसे सारी बातें बताईं. यह सुन वहीं गिरकर मृत्यु को प्राप्त हुई. यह खबर जब राजा को मिली तो उन्होंने वहीं कपुरावती का दाह-संस्कार कर दिया.