Sita Jayanti 2020: क्या माता सीता रावण की पुत्री थीं और क्या है उनकी मृत्यु का सच, जानें जानकी जयंती का महत्व और पूजा विधि
माता सीता (Photo Credits: Facebook)

Janki Jayanti 2020:  आज देशभर में सीता जयंती का पर्व मनाया जा रहा है. धार्मिक ग्रंथों के अनुसार, फाल्गुन मास (Falgun Maas) के कृष्ण पक्ष (Krishna Paksha) की अष्टमी (Ashtami) के दिन माता सीता (Mata Sita) का प्रकाट्य हुआ था. प्रत्येक वर्ष इसी तिथि पर माता सीता का जन्मोत्सव मनाया जाता है, जिसे सीता जयंती (Sita Jayanti) और जानकी जयंती (Janki Jayanti) भी कहते हैं. माता सीता जयंती के इस पुण्य तिथि पर सुहागन महिलाएं अपने पति की दीर्घायु एवं सुख-समृद्धि के लिए व्रत रखती हैं. मान्यता है कि आज के दिन व्रत रखकर माता सीता की पूजा-अर्चना करने से वैवाहिक जीवन में आ रही परेशानियां समाप्त होती हैं साथ ही समस्त तीर्थों के दर्शन का लाभ प्राप्त होता है.

व्रत एवं पूजा विधान

फाल्गुन मास के कृष्णपक्ष की नवमी के दिन प्रात:काल स्नान-ध्यान से निवृत्त होने के बाद सीता जयंती के व्रत का संकल्प लें. घर के मंदिर के सामने एक स्वच्छ चौकी पर लाल या पीले रंग का आसन बिछाएं. इस पर भगवान श्रीराम के साथ माता सीता की तस्वीर अथवा मूर्ति स्थापित करें. श्रीगणेशजी की पूजा करने के बाद माता सीता के सामने धूप, दीप प्रज्जवलित करें. लाल पुष्प, चंदन, सुगंध, अक्षत और रोली के साथ श्रृंगार का सामान अर्पित करें. फलाहारी मिष्ठान चढ़ाएं. मन ही मन ‘श्रीसीता-रामाय नमः’ या ‘श्री सीतायै नमः’ मंत्र का जाप करें. पूजा के अंत में श्रीराम एवं सीताजी की आरती करके लोगों में प्रसाद वितरित करें.

माता सीता के जन्म की प्रचलित कथाएं

सीताजी के जन्म के संदर्भ में कई कथाएं प्रचलित हैं. कहीं पर उन्हें राजा जनक की दत्तक पुत्री बताया गया है तो कहीं लंकापति रावण एवं मंदोदरी की पुत्री बताया गया है. आइये जानें सीताजी का जन्म कब और कैसे हुआ था. यह भी पढ़ें: माता सीता ने क्रोधित होकर दिया था ब्राह्मण, गाय, नदी और अग्नि को श्राप, आज भी देखने को मिलता है इसका प्रमाण

जनक पुत्री सीता! महर्षि वाल्मिकी लिखित रामायण के अनुसार एक बार मिथिला में भयंकर सूखा पड़ने से प्रजा में त्राहि-त्राहि मचने लगी, तब कुछ ऋषि-मुनियों के सुझाव पर मिथिला नरेश जनक ने स्वयं खेत में हल चलाया. हल चलाते समय उन्हें भूमि के भीतर एक घड़े में एक सुंदर-सी कन्या प्राप्त हुई. निसंतान मिथिला नरेश ने कन्या को अपने पास रख लिया, चूंकि सीताजी हल के फाल के कारण मिली थीं और हल के फाल को सीता भी कहते हैं, इसलिए राजा जनक ने उनका नाम सीता रखा. जनक की पुत्री होने के कारण उन्हें जानकी भी कहा जाता है.

रावण पुत्री सीता 

एक अन्य कथा के अनुसार सीताजी को लंकापति रावण और मंदोदरी की पुत्री बताया गया है.

इस संदर्भ में प्रचलित कथा के अनुसार सीताजी वेदवती नामक स्त्री का पुनर्जन्म थीं. वेदवती वस्तुतः भगवान विष्णु की परमभक्त थीं और विष्णुजी को पति के रूप में पाना चाहती थीं. उन्होंने विष्णुजी को प्रसन्न करने के लिए कठोर तपस्या की. मान्यता है कि एक दिन लंका नरेश रावण उसी रास्ते से जा रहा था. तपस्यारत वेदवती को देखकर रावण उस पर मोहित हो गया.

रावण ने वेदवती को अपने साथ चलने के लिए कहा, वेदवती के इंकार करने पर रावण क्रोध में भर उठा. उसने वेदवती को जबरदस्ती ले जाने की कोशिश की, मगर रावण के स्पर्श करते ही वेदवती ने खुद को जलाकर भस्म कर लिया और उसने श्राप दिया कि वह उसी की पुत्री के रूप में जन्म लेंगी और उसकी मृत्यु का कारण बनेंगी. कुछ समय बाद मंदोदरी ने एक कन्या को जन्म दिया. वेदवती के श्राप से भयभीत रावण ने उसे सागर में फेंक दिया. सागर की देवी वरुणी ने कन्या को देवी पृथ्वी को सौंप दिया. पृथ्वी ने उसे राजा जनक और माता सुनैना को सौंप दिया. यहीं पर सीताजी का विवाह श्रीराम के साथ हुआ. रावण ने सीता का अपहरण किया, जिसके कारण श्रीराम ने रावण का वध किया. यह भी पढ़ें: Sita Navami 2019: आज मनाई जा रही है सीता नवमी, जानें व्रत और इस दिन से जुड़ी पौराणिक कथा और महत्व

कैसे हुई सीताजी की मृत्यु

अयोध्या से निष्कासन के बाद सीताजी वाल्मिकी आश्रम में पहुंचीं. वहीं पर उन्होंने लव-कुश को जन्म दिया. श्रीराम ने अश्‍वमेध यज्ञ में महर्षि वाल्मिकी को आमंत्रित किया, वाल्मिकी ने इस यज्ञ में लव और कुश को रामायण सुनाने के लिए भेजा. राम ने दोनों कुमारों से रामायण सुनना शुरू किया. उत्तरकांड तक पहुंचने पर श्रीराम को पता चला कि लव और कुश उन्हीं के पुत्र हैं. तब श्रीराम ने सीता जी को संदेश भेजा कि यदि वे निष्पाप हैं तो सभा में आकर अपनी पवित्रता सिद्ध करें. वाल्मीकि सीताजी को लेकर सभा में पहुंचे.

वहां महर्षि वशिष्ठ भी थे. वशिष्ठजी ने कहा- 'हे राम, मैं वरुण का 10वां पुत्र हूं. मैंने कभी झूठ नहीं बोला, लव-कुश तुम्हारे ही पुत्र हैं. मैंने दिव्य-दृष्टि से सीता की पवित्रता देख ली है. तब सीताजी ने हाथ जोड़कर नीचे मुख करते हुए बोलीं, हे धरती माता मैं पवित्र हूं तो धरती फट जाए और मैं उसमें समा जाऊं. तभी नाग के फन पर रखे सिंहासन पर विराजमान देवी पृथ्वी प्रकट हुईं और उन्होंने सीताजी को गोद में बिठाया पुनः धरती में समा गईं. यद्पि पद्मपुराण के अनुसार सीता धरती में नहीं समाई थीं, बल्कि श्रीराम के साथ राज-सुख भोगने के बाद श्रीराम के साथ ही जल.समाधि ले ली थी.

नोट- इस लेख में दी गई तमाम जानकारियों को प्रचलित मान्यताओं के आधार पर सूचनात्मक उद्देश्य से लिखा गया है और यह लेखक की निजी राय है. इसकी वास्तविकता, सटीकता और विशिष्ट परिणाम की हम कोई गारंटी नहीं देते हैं. इसके बारे में हर व्यक्ति की सोच और राय अलग-अलग हो सकती है.