Sant Gadge Baba Jayanti 2020: संत गाडगे बाबा जो खुद अशिक्षित होकर भी समाज को सीखा गए समानता, सौहार्द एवं शिक्षा का पाठ
संत गाडगे बाबा जयंती 2020 (Photo Credits: Wikimedia Commons)

Sant Gadge Baba Jayanti 2020: आधुनिक भारत को जिन महापुरूषों पर गर्व होना चाहिए, उन्हीं में एक नाम है संत गाडगे बाबा. बाबा गाडगे ने अपने जीवन, विचार एवं कार्यों के माध्यम से समाज और राष्ट्र के सम्मुख एक अनुकरणीय आदर्श प्रस्तुत किया, जिसकी आधुनिक भारत को वास्तव में महती आवश्यकता है. आज 22 फरवरी को देश उनकी जयंती मना रहा है. आइये जानें एक गरीब धोबी कुल में पैदा हुआ आम युवक गाडगे से इतने महान संत कैसे बने.

बाबा संत गाडगे बाबा का जन्म 23 फरवरी, 1876 ई को महाराष्ट्र के अकोला जिले के शेगांव में एक गरीब धोबी परिवार में हुआ था. उनकी मां का नाम सखूबाई और पिता का नाम झिंगरजी था. वास्तविक नाम देवीदास डेबूजी झिंगराजी जाड़ोकर था, घर में प्यार से ‘डेबू जी’ के नाम से पुकारा जाता था. गौतम बुद्ध को अपना आदर्श मानते हुए उन्होंने पीड़ित मानवता की सहायता तथा समाज सेवा के लिए साल 1905 में जब वे 30 साल के थे, एक मिट्टी का लोटा जैसा पात्र लेकर आधी रात में घर छोड़ दिया. साल 1905 से 1917 तक वे साधक बनकर रहे, और संत गाडगे के नाम से लोकप्रिय हुए. अन्य संतों की तरह गाडगे को भी औपचारिक शिक्षा ग्रहण करने का अवसर नहीं मिला था. उन्होंने स्वाध्याय के बल पर ही थोड़ा बहुत पढ़ना-लिखना सीखा था. समाज से भेदभाव मिटाकर लोगों को जीना सिखाया, जानिए उनकी जिंदगी से जुड़ी कुछ रोचक बातें

सौहार्द एवं स्वच्छता के प्रतीक थे संत

गाडगे बाबा संत कबीर की तरह ब्राह्मणवाद, पाखंडवाद और जातिवाद के प्रबल विरोधी थे. अपने हर उपदेश में वे सदा कहते कि हर मानव एक समान हैं, इसलिए सभी को मिलजुल कर प्रेम के साथ रहना चाहिए. सौहार्द और प्रेम की बात करने के साथ ही वे स्वच्छता को भी बहुत महत्व देते थे. वे अपने साथ हमेशा एक झाड़ू रखते थे. उनका मानना था कि सुगंध देने वाले फूलों को पात्र में रखकर भगवान की पत्थर की मूर्ति पर चढ़ाने के बजाय लोगों की सेवा में अपना कीमती वक्त खर्च करो. भूखे लोगों को रोटी खिलाई, तो ही तुम्हारा जन्म सार्थक होगा. पूजा के उन फूलों से मेरा झाड़ू ज्यादा श्रेष्ठ है.

आंबेडकर और बाबा गाडगे का साथ

गाडगे बाबा की भावनाओं का डा. आंबेडकर सम्मान करते थे, और तथाकथित साधु-संतों से दूरी बनाकर रहनेवाले आंबेडकर गाडगे बाबा का बहुत सम्मान करते थे. वे अकसर उनसे मिलते और समाज-सुधारक, आंदोलन एवं सामाजिक परिवर्तन मुद्दों पर मंत्रणा करते थे. संभवतया यह डा. अम्बेडकर का ही प्रभाव था कि गाडगे सामाजिक परिवर्तन के साथ ही शिक्षा पर बहुत जोर देते थे.

शिक्षा और सामाजिक विकास की वकालत

संत गाडगे अशिक्षित होते हुए भी शिक्षा को मानव जाति के लिए अत्यावश्यक मानते थे. अपने उपदेशों और कीर्तनों में अकसर वे समझाते कि ‘शिक्षा बड़ी चीज है. पैसों की तंगी हो तो खाने के बर्तन बेच दो, पत्नी के लिए कम दाम के कपड़े खरीदो, टूटे-फूटे मकान में रह लो, पर बच्चों को शिक्षा मत रोको. शिक्षा के बिना जीवन अधूरा है. ’ वे अपने प्रवचनों में अंबेडकर का उदाहरण देते कि ‘देखा बाबा साहेब अंबेडकर अपनी महत्वाकांक्षा से कितना पढ़े’ शिक्षा किसी एक वर्ग की ठेकेदारी नहीं है. एक गरीब बच्चा अच्छी शिक्षा लेकर ढेर सारी डिग्रियां हासिल कर समाज का निर्माता बन सकता है.’ गाडगे ने अपने समाज के विकास के लिए 31 शिक्षण संस्थाओं तथा सौ से अधिक अन्य संस्थाओं की स्थापना की.

खोखले कर्मकांडों को मानते थे ब्राह्मणों की स्वार्थसिद्धी

संत गाडगे आजीवन सामाजिक अन्यायों के खिलाफ संघर्षरत रहे, निचले समाज को जागरूक करते रहे. उनके लिए सामाजिक कार्य और जनसेवा सच्चा धर्म था. उनके अनुसार व्यर्थ के कर्मकांडों, मूर्तिपूजा एवं खोखली परंपराओं को ब्राह्मणों ने अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए पाल रखा था. वे हमेशा इनसे बचने की सलाह देते थे. बाबा गाडगे ने दीनहीन, उपेक्षित एवं साधनहीन मानवता के लिये स्कूल, धर्मशाला, गौशाला, छात्रावास, अस्पताल, परिश्रमालय, वृद्धाश्रम आदि कई चीजें शुरु करवाईं, लेकिन उन्होंने कहीं भी मन्दिर का निर्माण नहीं कराया.

सच्चे संत थे बाबा

बाबा गाडगे अपने अनुयायियों से हमेशा कहते थे, -कहीं पर भी मेरी मूर्ति, मेरी समाधि, मेरा स्मारक या मन्दिर नहीं बनवाना. मैंने जो कार्य किया है, वही मेरा स्मारक है. जिस स्थल पर मैं देह त्यागूं, वहीं पर मेरा अंतिम संस्कार कर देना. 20 दिसंबर 1956 को मध्यरात्रि में बलगाव के पास पिढ़ी नदी के पुल से गुजरते समय बाबा ने अंतिम सांस ली. उनकी इच्छा का सम्मान करते हए वहीं पर उनका अन्तिम संस्कार किया गया. आज वह जगह गाडगे नगर के नाम से जाना जाता है.