मुहर्रम 2018: जानिए कौन थे इमाम हुसैन और क्यों मनाया जाता हैं यौमे आशूरा

इस्लामिक सभ्यता के अनुसार इस्लाम नववर्ष का पहला महीना मोहर्रम होता है और इस महीने की 10 तारीख को आशूरा कहा जाता है. इस्लामी कैलेंडर के अनुसार मोहर्रम का महीना गम का महीना माना जाता है. इस महिने में खुदा के भेजे हुए आखिरी नबी हजरत मोहम्मद के नवासे शहीद हुए थे.

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मुहर्रम 2018: जानिए कौन थे इमाम हुसैन और क्यों मनाया जाता हैं यौमे आशूरा

इस्लामिक सभ्यता के अनुसार इस्लाम नववर्ष का पहला महीना मोहर्रम होता है और इस महीने की 10 तारीख को आशूरा कहा जाता है. इस्लामी कैलेंडर के अनुसार मोहर्रम का महीना गम का महीना माना जाता है. इस महिने में खुदा के भेजे हुए आखिरी नबी हजरत मोहम्मद के नवासे शहीद हुए थे.

त्योहार Rakesh Singh|
मुहर्रम 2018: जानिए कौन थे इमाम हुसैन और क्यों मनाया जाता हैं यौमे आशूरा
(Photo credits: Getty Images)

मोहर्रम: इस्लामिक कैलेंडर के अनुसार इस्लाम नववर्ष का पहला महीना मुहर्रम होता है और इस महीने की 10 तारीख को आशूरा कहा जाता है. इस्लामी मान्यता के अनुसार मुहर्रम का महीना गम का महीना माना जाता है. इस महिने में खुदा के भेजे हुए आखिरी नबी हजरत मोहम्मद के नवासे इमाम हुसैन शहीद हुए थे.

कहा जाता है कि आज से तकरीबन 1400 वर्ष पहले एक शासक हुआ करता था. जिसका नाम यजीद था. यजीद को लेकर कहा जाता है कि वह बेगुनाह पर ज़ुल्म करता रहता था. यजीद चाहता था लोग उसके द्वारा बनाये कानून को अपनाये. यजीद इस्लाम को अपने ढंग से चलाना चाहता था. इससे वहां के लोग परेशान होकर पैगम्बर मोहम्मद साहब के नवासे इमाम हुसैन को जो सऊदी अरब में रहते थे,उन्हें एक ख़त लिखकर कहा की वो यहां आये और इस मसले को हल करें.

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कौन थे इमाम हुसैन:

इस्लाम के अनुसार अल्लाह ने अपने 1 लाख 24 हज़ार नबी ज़मीन पर भेजे थे जिनमें आखिरी नबी हज़रत मोहम्मद साहब थे. जो सभी नबियों में ज्यादा गुणवान थे. हज़रत मोहम्मद के दामाद व चाचा ज़ात भाई हज़रत अली और उनकी बेटी जनाबे फातिमा ज़ेहरा थीं जिनके 2 बेटे थे. पहले बेटे का नाम इमाम हसन था जिन्हे जहर देकर मार दिया गया था और उनके दुसरे पुत्र का नाम इमाम हुसैन था. दोनों  हज़रत मोहम्मद साहब के दिखाए नेक रास्ते पर चलते थे. वो बेसहारों को सहारा देना, किसी पर जुल्म न करना, और सदैव सत्य का साथ देते थे.

क्या होता है आशुरा:

आशूरा करबला में इमाम हुसैन की शहादत की याद में मनाया जाता है. मुसलमान इस दिन उपवास रख कर उस घड़ी को याद करते हैं. कई जगह इस दिन ताज़िए निकाल कर और मातम कर के करबला शहर में हुसैन की शहादत का गम मानाते हैं. इस दिन शिया पुरुष और महिलाएं काले लिबास पहन कर मातम में हिस्सा लेते हैं. कहीं-कहीं पर यह मातम ज़ंजीरों और छुरियों से भी किया जाता है जब श्रद्धालु स्वंय को लहूलुहान कर लेते हैं.

हाल में कुछ शिया नेताओं ने इस तरह की कार्रवाइयों को रोकने की भी बात कही है और उनका कहना है कि इससे बेहतर है कि इस दिन रक्तदान कर दिया जाए.

इमाम हुसैन के बारे में कुछ महान लोगों ने अपने राय व्यक्त किये है जो अग्रलिखित है-

रवीन्द्र नाथ टैगौर : इन्साफ और सच्चाई को जिंदा रखने के लिए, फौजों या हथियारों की जरुरत नहीं होती है. कुर्बानियां देकर भी जीत हासिल की जा सकती है, जैसे की इमाम हुसैन ने कर्बला में किया.

डॉ राजेंद्र प्रसाद : इमाम हुसैन की कुर्बानी किसी एक मुल्क या कौम तक सीमित नहीं है, बल्कि यह लोगों में भाईचारे का एक असीमित राज्य है.

स्वामी शंकराचार्य : यह इमाम हुसैन की कुर्बानियों का नतीजा है कि आज इस्लाम का नाम बाकी है, नहीं तो आज इस्लाम का नाम लेने वाला पूरी दुनिया में कोई भी नहीं होता.

श्रीमती सरोजिनी नायडू : मैं मुसलमानों को इसलिए मुबारकबाद पेश करना चाहती हूं कि यह उनकी खुशकिस्मती है कि उनके बीच दुनिया की सबसे बड़ी हस्ती इमाम हुसैन पैदा हुए जिन्होंने संपूर्ण रूप से दुनिया भर के तमाम जातीय समूह के दिलों पर राज किया और करते हैं.

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