Ashura 2020 Date and Significance: यौमे आशूरा (Ashura) कर्बला (Karbala) में इमाम हुसैन Imam Hussain (AS) की शहादत का दिन है. यह दिन इस्लामी कैलेंडर के अनुसार मुहर्रम की दसवीं तारीख को होता है. मुहर्रम इस्लामी कैलेंडर के हिसाब से साल का पहला महीना है. इसे हिजरी कैलेंडर भी कहा जाता है. यह दिन हर क्षेत्र में अलग-अलग होता है. क्योंकि यह चांद के दीदार (मुहर्रम की शुरुआत) पर निर्भर करता है. यह दिन शिया और सुन्नी मुसलमानों के लिए खास है जो इमाम हुसैन (एएस) की शहादत को याद करते हैं.
खाड़ी देशों में इस वर्ष आशूरा की तिथि ग्रेगोरियन कैलेंडर के अनुसार 29 अगस्त, 2020 है. भारतीय उपमहाद्वीप क्षेत्र में यह 30 अगस्त को मनाया जाएगा. क्योंकि इस हिस्से में चंद्र चक्र एक दिन देर से होता है. इस्लामिक कैलेंडर के अनुसार आशूरा मुहर्रम की दसवीं तारीख है. इस दिन को इमाम हुसैन कर्बला के युद्ध में शहीद हुए थे.
पैगंबर मुहम्मद (SAW) के नवासे इमाम हुसैन ने यजीद के भ्रष्ट, अत्याचारी और दमनकारी शासन के प्रति निष्ठा रखने से इनकार कर दिया था. इस कारण कर्बला का युद्ध हुआ था. यह युद्ध एक तरफा सैन्य अभियान था. लगभग 6,000 की संख्या में यजीद की फौज ने इमाम हुसैन (AS) के 70-72 साथियों को निशाना बनाया था.
यजीद ने अपनी सत्ता कायम करने के लिए हुसैन और उनके परिवार वालों पर जुल्म किया और 10 मुहर्रम को उन्हें बेदर्दी से मार डाला. शिया समुदाय के लोग 10 मुहर्रम के दिन काले कपड़े पहनकर इमाम हुसैन और उनके परिवार की शहादत को याद करते हैं. हुसैन की शहादत को याद करते हुए सड़कों पर जुलूस निकाला जाता है और मातम मनाया जाता है. हालांकि, इस साल कोरोना की वजह से शायद ही ऐसा हो. इस दिन ये लोग खुद को जंजीरों और छुरियों से घायले कर लहूलुहान होकर इमाम हुसैन की शहादत हो याद करते हैं.
क्यों हुई थी कर्बला की लड़ाई?
शासक यजीद एक दुष्ट, अत्यचारी, दमनकारी और अन्यायी शासक के रूप में विख्यात था. उसने अनैतिक रूप से खुद को इस्लामी साम्राज्य का खलीफा मान लिया था. वह चाहता था कि हजरत इमाम हुसैन भी उसके खेमें में शामिल हो जाएं. लेकिन हुसैन को यह मंजूर नहीं था.
कर्बला के जंग में पैगंबर-ए-इस्लाम हजरत मोहम्मद के नवासे हजरत इमाम हुसैन परिवार और दोस्तों के साथ शहीद हो गए. जिस महीने इमाम हुसैन और उनके परिवार के लोग शहीद हुए थे वह मुहर्रम का महीना था.
इस्लाम को बचाने के लिए अडिग रहे इमाम हुसैन
कर्बला के युद्ध (Battle of Karbala) को इस्लाम धर्म के इतिहास में सबसे दुखद घटना मानी जाती है. कहा जाता है कि 4 मई 680 ई. में इमाम हुसैन ने मक्का जाने के लिए अपना घर मदीना छोड़ दिया. वे हज करना चाहते थे. तब उन्हें पता चला कि दुश्मन हाजियों के भेष में उनका कत्ल कर सकते हैं, तो उन्होंने हज का इरादा बदल दिया.
इमाम हुसैन नहीं चाहते थे कि काबा (Kaba) जैसी पवित्र जगह पर खून बहे. इसलिए वे एक ऐसे जंगल में पहुंचे, जिसका नाम कर्बला था. कर्बला आज इराक का एक प्रमुख शहर है. ये वो जगह है जहां इमाम हुसैन की कब्र है. इमाम हुसैन कर्बला अपना एक छोटा सा काफिला लेकर पहुंचे थे, उनके काफिले में औरतें, बच्चे, बूढ़े सभी थे.
इमाम हुसैन ने हर जुल्म पर दिखाया सब्र
इमाम हुसैन और उनके साथ जितने लोग थे उनपर यजीद ने बहुत से अत्याचार किए. इमाम हुसैन ने हर जुल्म पर सब्र कर जमाने को दिखाया कि किस तरह जुल्म को हराया जाता है. यजीद ने इमाम हुसैन और उनके परिवार का पानी तक बंद कर दिया था. इमाम का परिवार प्यास से तड़प रहा था. उन्होंने यजीदी फौज से पानी मांगा, दुश्मन ने पानी देने से इंकार कर दिया, दुश्मनों ने सोचा इमाम हुसैन प्यास से टूट जाएंगे और हमारी सारी शर्तें मान लेंगे. लेकिन जब इमाम हुसैन ने तीन दिन की प्यास के बाद भी यजीद की बात नहीं माने तो दुश्मनों ने हुसैन के खेमों पर हमले शुरू कर दिए.
इसके बाद इमाम हुसैन ने दुश्मनों से एक रात का समय मांगा और उस पूरी रात इमाम हुसैन और उनके परिवार ने अल्लाह की इबादत की और दुआ मांगी कि मेरा परिवार, मेरे मित्र चाहे शहीद हो जाए, लेकिन अल्लाह का दीन 'इस्लाम' बचा रहे.
इसके बाद कर्बला में जंग छिड़ गई. जिसमें इमाम हुसैन के साथ केवल 75 या 80 लोग थे, जिसमें 6 महीने से लेकर 13 साल तक के बच्चे भी शामिल थे. इस्लाम को बचाने के लिए कर्बला में 70 से 72 लोग शहीद हो गए. इन्हीं की याद में शिया मुस्लिम मुहर्रम में मातम करते हैं और अश्क बहाते हैं.