सद्गुरु को मिली बड़ी राहत! सुप्रीम कोर्ट ने ईशा फाउंडेशन के खिलाफ बंधक मामले को किया खारिज

सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को ईशा फाउंडेशन के खिलाफ सभी कार्यवाहियों को रद्द कर दिया, जिसमें एक पिता के दावे के आधार पर यह आरोप लगाया गया था कि उसकी दो बेटियों को आध्यात्मिक नेता सद्गुरु के संगठन में "ब्रेनवाश" किया गया है. कोर्ट ने हैबियस कॉर्पस याचिका को खारिज करते हुए यह कहा कि दोनों बेटियां वयस्क हैं और अपनी मर्जी से आश्रम में रह रही हैं, वे जब चाहें वहां से जा सकती हैं.

मामले की पृष्ठभूमि 

यह मामला तब शुरू हुआ जब एक रिटायर्ड प्रोफेसर, डॉ. एस कामराज ने हैबियस कॉर्पस याचिका दायर की, जिसमें उन्होंने आरोप लगाया कि उनकी दो बेटियां कोयंबटूर के ईशा योग केंद्र में बंदी बनाई गई हैं. उनका यह भी आरोप था कि फाउंडेशन ने बेटियों का ब्रेनवाश किया है, जिसके कारण वे अपने परिवार से संपर्क तोड़ चुकी हैं.

सुप्रीम कोर्ट ने दोनों बेटियों के बयानों पर विचार किया और कहा कि उन्हें अपनी मर्जी से रहने का पूरा अधिकार है. इसके बाद अदालत ने यह तय किया कि इस मामले में कोई आगे की कार्रवाई की आवश्यकता नहीं है और हैबियस कॉर्पस की कार्यवाही को बंद किया जाए.

सुप्रीम कोर्ट का पहले का आदेश 

इसके पहले, 3 अक्टूबर को सर्वोच्च अदालत ने तमिलनाडु पुलिस को निर्देश दिया था कि वह मद्रास हाईकोर्ट के आदेश पर कार्रवाई न करे, जिसमें महिलाओं के कथित अवैध बंदीकरण की जांच का आदेश दिया गया था. न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता में पीठ ने टिप्पणी की, "आप इस तरह के प्रतिष्ठान में सेना या पुलिस को नहीं आने दे सकते."

ईशा फाउंडेशन का बयान 

ईशा फाउंडेशन ने इन आरोपों का खंडन करते हुए कहा कि "ईशा फाउंडेशन का उद्देश्य लोगों को योग और आध्यात्मिकता सिखाना है. हम मानते हैं कि वयस्क व्यक्तियों को अपने मार्ग का चयन करने की स्वतंत्रता और बुद्धिमत्ता होती है. हम लोगों से न तो शादी करने को कहते हैं और न ही संन्यास लेने को, ये व्यक्तिगत विकल्प हैं."

फाउंडेशन ने यह भी स्पष्ट किया कि हाल में हुई पुलिस की विजिट नियमित जांच का हिस्सा थी, न कि कोई छापा. पुलिस अधिकारी निवासियों और स्वयंसेवकों के साथ बातचीत कर रहे थे ताकि उनकी जीवनशैली और केंद्र में रहने की प्रकृति को समझा जा सके.

सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला न केवल ईशा फाउंडेशन के लिए बड़ी राहत है, बल्कि यह उन सभी वयस्कों के अधिकारों की पुष्टि भी करता है जो अपनी मर्जी से जीवन जीने का अधिकार रखते हैं. कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि किसी भी धार्मिक या आध्यात्मिक संस्था के मामलों में व्यक्तिगत स्वतंत्रता का सम्मान किया जाना चाहिए.