चाहे वामपंथी हों या दक्षिणपंथी, या चाहे वे कितने भी लंबे समय से सत्ता में हों, इस साल दुनियाभर में सत्तारूढ़ सरकारों को नाराज मतदाताओं ने वैसा समर्थन नहीं दिया, जिसकी वे उम्मीद कर रहे थे.अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव में डॉनल्ड ट्रंप की जीत, मौजूदा पार्टियों की 2024 में हुई लगातार हारों की एक कड़ी भर है. इस साल लगभग 70 देशों में चुनाव हुए, जिनमें दुनिया की करीब आधी आबादी ने वोट डाला.
कोविड-19 महामारी के बाद से लोग और व्यवसाय सामान्य स्थिति में लौटने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. वहीं, लगातार ऊंची कीमतें, वित्तीय रूप से कमजोर सरकारें और इमिग्रेशन की बढ़ती लहर ने मतदाताओं में नाराजगी को बढ़ाया है.
प्यू रिसर्च सेंटर में ग्लोबल एटीट्यूड रिसर्च के निदेशक रिचर्ड वाइक ने कहा,"नेताओं के प्रति एक आम निराशा है. यह विचारधारा से परे जाकर हर जगह दिखाई दे रही है."
वाइक ने बताया कि प्यू के एक सर्वेक्षण में 24 देशों के लोगों ने यह महसूस किया कि लोकतंत्र का आकर्षण कम हो रहा है. इसकी बड़ी वजह बढ़ता आर्थिक संकट और यह धारणा है कि कोई भी राजनीतिक गुट उनकी सच्ची नुमाइंदगी नहीं करता.
उन्होंने कहा, "इसके पीछे कई कारण हैं लेकिन निश्चित रूप से आर्थिक स्थिति और महंगाई इसकी बड़ी वजह हैं."
पश्चिमी लोकतंत्रों में हार का सिलसिला
हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के राजनीतिक वैज्ञानिक स्टीवन लेवित्स्की ने बताया कि महामारी शुरू होने के बाद से पश्चिमी लोकतंत्रों में हुए 54 चुनावों में से 40 में सत्तारूढ़ पार्टियों को सत्ता गंवानी पड़ी. उन्होंने कहा, "यह दिखाता है कि सत्तारूढ़ पार्टियों के लिए बड़ा नुकसान हो रहा है."
ब्रिटेन में जुलाई के चुनाव में कंजरवेटिव पार्टी को 1832 के बाद की सबसे बड़ी हार मिली. इससे 14 साल बाद वामपंथी रुझान वाली लेबर पार्टी सत्ता में लौटी.
लेकिन इंग्लिश चैनल के पार, यूरोपीय संघ के सबसे बड़े और शक्तिशाली सदस्य देशों फ्रांस और जर्मनी में जून में हुए चुनावों में सत्तारूढ़ पार्टियों को दक्षिणपंथी ताकतों ने झटका दिया. इन नतीजों ने फ्रांस के राष्ट्रपति इमानुएल माक्रों को अपने देश में दक्षिणपंथी उभार को रोकने के लिए संसदीय चुनाव कराने पर मजबूर किया.
हालांकि, विरोधी पार्टियों के गठबंधन और रणनीतिक मतदान ने उन्हें सत्ता में बने रहने दिया, लेकिन उनकी सरकार एक विभाजित संसद के साथ कमजोर स्थिति में है. दूसरी तरफ हंगरी के प्रधानमंत्री विक्टर ऑर्बन की पार्टी को इस साल यूरोपीय संघ के चुनाव में दशकों की सबसे खराब हार का सामना करना पड़ा.
एशिया में सत्तारूढ़ पार्टियों का हाल
दक्षिण कोरिया में अप्रैल में हुए संसदीय चुनाव में विपक्षी डेमोक्रेटिक पार्टी के नेतृत्व वाले गठबंधन ने सत्तारूढ़ कंजरवेटिव पीपल पावर पार्टी को हरा दिया. भारत में हुए लोकसभा चुनाव में, नरेंद्र मोदी से उम्मीद थी कि वह जून में अपनी हिंदू राष्ट्रवादी भारतीय जनता पार्टी की बड़ी जीत के साथ तीसरी बार सत्ता में आएंगेय लेकिन मतदाताओं ने उनकी पार्टी से मुंह मोड़ लिया, जिससे बीजेपी को संसद में बहुमत खोना पड़ा. हालांकि, सहयोगियों की मदद से वे सत्ता में बने रहने में कामयाब रहे.
श्रीलंका में सत्ताधारी पार्टी को हराकर विद्रोही नेता अनुरा कुमार दिसानायके देश के राष्ट्रपति बने. जापान में अक्टूबर में हुए चुनाव में मतदाताओं ने लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी (एलडीपी) को सजा दी. यह पार्टी 1955 से लगभग लगातार सत्ता में रही है. प्रधानमंत्री शिगेरु इशिबा सत्ता में बने रहे, लेकिन उनकी पार्टी को उम्मीद से अधिक नुकसान हुआ. इससे विपक्ष को उन नीतियों में बदलाव का मौका मिला, जिनका कंजरवेटिव लंबे समय से विरोध करते आ रहे थे.
पॉल नड्यू, जो टोक्यो में टेंपल यूनिवर्सिटी के जापान कैंपस में सहायक प्रोफेसर हैं, कहते हैं, "अगर आप जापान को अलग करके देखें, तो यह समझना आसान है. मतदाताओं ने भ्रष्टाचार और घोटालों के लिए सत्तारूढ़ पार्टी को सजा दी. इससे उन्हें उन तमाम निराशाओं को जाहिर करने का मौका मिला, जो पहले से थीं."
वैश्विक स्तर पर हार की वजह
नड्यू ने कहा कि जापान के रुझान से वैश्विक निष्कर्ष निकालना मुश्किल है. उन्होंने कहा, "यह हर जगह अलग-अलग स्थितियों, देशों और चुनावों में सत्तारूढ़ पार्टियों को चोट पहुंचा रहा है और मेरे पास इसका कोई बड़ा, व्यापक जवाब नहीं है."
मैनचेस्टर यूनिवर्सिटी के राजनीतिक विज्ञान के प्रोफेसर रॉब फोर्ड ने कहा, "महंगाई ने अब तक देखी गई सबसे बड़ी एंटी-इन्कंबेंट वोटिंग की लहर को बढ़ावा दिया है. हालांकि, इस प्रतिक्रिया के पीछे के कारण व्यापक और अनिश्चित हो सकते हैं."
उन्होंने कहा, "यह लंबे समय तक कोविड महामारी के प्रभावों से भी जुड़ा हो सकता है. जैसे खराब स्वास्थ्य, बाधित शिक्षा और कार्यक्षेत्र में समस्याएं लोगों को हर जगह परेशान कर रही हैं. और वे सरकारों पर इसका गुस्सा निकाल रहे हैं." इसे उन्होंने "चुनावी लॉन्ग कोविड" कहा.
अफ्रीका और लैटिन अमेरिका में नतीजे
दक्षिण अफ्रीका में बेरोजगारी और असमानता ने अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस (एएनसी) को भारी नुकसान पहुंचाया. यह पार्टी तीन दशकों से सत्ता में थी. मई के चुनाव में उसने संसद में बहुमत खो दिया और विपक्षी दलों के साथ गठबंधन करना पड़ा.
थिंक टैंक चैट्हम हाउस के अफ्रीका कार्यक्रम के निदेशक एलेक्स वाइंस ने बताया कि अफ्रीका के मजबूत लोकतांत्रिक संस्थानों वाले देशों में सत्तारूढ़ पार्टियों को सजा दी गई. उन्होंने कहा, "दक्षिण अफ्रीका, सेनेगल और बोत्सवाना जैसे देशों में या तो राष्ट्रीय एकता सरकार बनी या पार्टी बदली."
लैटिन अमेरिका में, मेक्सिको एक बड़ा अपवाद साबित हुआ. वहां राष्ट्रपति आंद्रेस मैनुअल लोपेज ओब्राडोर ने अपने उत्तराधिकारी के तौर पर क्लाउडिया शीनबाम को चुना. जून के चुनाव में उन्होंने आसानी से जीत दर्ज की और देश की पहली महिला राष्ट्रपति बनीं. प्यू के सर्वे के अनुसार, मेक्सिको उन कुछ देशों में है, जहां लोग आर्थिक हालात से संतुष्ट हैं.
वोटरों की नाराजगी से लोकतंत्र को खतरा
रॉब फोर्ड चेतावनी देते हैं कि अगर मतदाता जल्दी से सरकारों पर सख्त निर्णय लेते हैं, तो यह लोकतंत्र के लिए समस्या बन सकता है. उन्होंने कहा, "अगर मतदाता हर सरकार को बिना ज्यादा सोच के सजा दे देते हैं, तो सरकारों के पास बेहतर काम करने का क्या प्रोत्साहन रहेगा? अच्छे और बुरे सभी बाहर कर दिए जाते हैं, लेकिन अच्छा होना ज्यादा मुश्किल है."
टेंपल यूनिवर्सिटी के पॉल नड्यू का मानना है कि शायद विश्लेषक पिछले वैश्विक चुनावी रुझानों को गलत समझ रहे थे. उन्होंने इसे वैचारिक बदलाव मान लिया था, जबकि यह "एंटी-इन्कंबेंट मूड" था. उन्होंने कहा, "शायद यह हमेशा से सत्ता-विरोधी रुझान था, और हम इसे गलत ढंग से समझ रहे थे."
वीके/आरपी (एपी, रॉयटर्स)