नयी दिल्ली, 18 अक्टूबर: दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा है कि “बांझ दंपत्ति” को सरोगेसी (किराए की कोख से जन्म) के लाभ से वंचित करना प्रथम दृष्टया माता-पिता बनने के उनके मूल अधिकार का उल्लंघन है क्योंकि यह उन्हें विधिक और चिकित्सकीय रूप से विनियमित प्रक्रियाओं और सेवाओं तक पहुंच से रोकता है.
अदालत ने यह आदेश सरोगेसी कानून में संशोधन से चिंतित एक विवाहित जोड़े की याचिका पर दिया है. दरअसल, केंद्र सरकार ने सरोगेसी (विनियमन) नियम, 2022 में संशोधन कर 14 मार्च को एक अधिसूचना जारी की थी. इस संशोधन के जरिए बांझ दंपत्ति को सरोगेसी के लाभ से वंचित कर दिया गया था. पत्नी का पति के लिए खाना ना बनाना क्रूरता नहीं, केरल हाई कोर्ट ने कहा- ऐसे नहीं दे सकते तलाक
याचिकाकर्ता दंपत्ति ने कहा कि केंद्र सरकार की उस अधिसूचना से पहले, वे एक सरोगेट (किराए की कोख) की तलाश कर रहे थे क्योंकि पत्नी को बांझपन की समस्या का पता चला था. लेकिन अब उन्हें आने वाले समय में माता-पिता बनने के अधिकार से वंचित कर दिया गया है और उनका निषेचित भ्रूण “कानूनी रूप से अव्यवहार्य” हो गया है.
मुख्य न्यायाधीश सतीश चंद्र शर्मा की अध्यक्षता वाली पीठ ने अपने हालिया अंतरिम आदेश में कहा, “जिन मामलों में पत्नी व्यवहार्य अंडाणु का उत्पादन करने में सक्षम है, लेकिन गर्भधारण करने में असमर्थ है, उनमें इच्छुक जोड़े कानून के अनुसार सरोगेसी प्रक्रिया का लाभ उठा सकेंगे. हालांकि, यदि पत्नी व्यवहार्य अंडाणु पैदा करने में सक्षम नहीं है, तो उन्हें सरोगेसी के माध्यम से माता-पिता बनने की अनुमति नहीं है.”
पीठ ने कहा, “पहली नजर में, विवादित अधिसूचना एक विवाहित बांझ जोड़े को कानूनी और चिकित्सकीय रूप से विनियमित प्रक्रियाओं और सेवाओं तक पहुंच से वंचित करके माता-पिता बनने के उनके मूल अधिकारों का उल्लंघन करती है.''
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