पाकिस्तान में महिला न्यायाधीश इतनी कम क्यों हैं?
प्रतीकात्मक तस्वीर (Photo Credit: Image File)

पाकिस्तान समेत दक्षिण एशिया में महिलाएं न्यायाधीश बनने के लिए अब तक जद्दोजहद कर रही हैं. कुछ महिलाओं ने उच्च पदों पर आसीन होने की कोशिश की, तो पाकिस्तान की पितृसत्तात्मक व्यवस्था ने उन्हें पीछे धकेल दिया.खालिदा रचिद खान कहती हैं कि "पुरुष अहंकारबोध" ने उन्हें पाकिस्तान की न्यायपालिका के शीर्ष तक पहुंचने से रोक दिया.

दशकों पहले खान देश की पहली महिला न्यायाधीश बनकर न्यायिक बिरादरी का हिस्सा बनीं. उन्होंने डीडब्ल्यू को बताया, "1994 में पेशावर हाईकोर्ट में मेरी नियुक्ति हुई थी, लेकिन न्यायिक सेवा में खासतौर पर वकीलों को शायद पचा नहीं और उन्होंने मेरे काम में कई व्यवधान डाले."

यहां तक कि वरिष्ठता प्रणाली के अनुसार खान के पास मुख्य न्यायाधीश बनने का मौका भी था. इसके बावजूद उन्हें आश्चर्य होता है कि कैसे उन्हें कभी भी न्यायाधीश की तरह प्रतिष्ठा नहीं दी गई और न ही शीर्ष कार्यालय में कभी जज के तौर पर उन्हें समर्थन मिला. इसके बाद उन्होंने पाकिस्तान के बाहर अपनी नियुक्ति कराने का फैसला किया और 2003 में वह रवांडा की इंटरनेशनल क्रिमिनल ट्रिब्यूनल की जज बनीं.

2022 में पाकिस्तान की सुप्रीम कोर्ट में पहली महिला

लगभग दो दशकों के बाद भी पाकिस्तान के न्यायाधीश और न्यायिक अधिकारियों के बीच महिलाओं को कमतर आंका जाता है. यहां पांच पुरुषों में शायद ही एक महिला मिले. ऐसा तब है, जब पाकिस्तान में महिलाएं जनसंख्या में लगभग बराबर की हिस्सेदारी रखती हैं.

पाकिस्तान की न्यायिक प्रणाली से जुड़ी उच्चतम अदालत में केवल सात महिलाएं ही कार्यरत हैं. इसी के तहत आने वाले सुप्रीम कोर्ट, फेडरल शरीयत कोर्ट और हाई कोर्ट में 126 जज हैं.

इनमें सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस आयशा मालिक और जस्टिस मुसर्रत हिलाली शामिल हैं. मलिक 2022 में कोर्ट में नियुक्त होने वाली पहली महिला थीं, जबकि हिलाली 2023 में उनके बाद नियुक्त हुईं. यहां सुप्रीम कोर्ट के 16 न्यायाधीशों में सिर्फ दो महिलाएं हैं.

पाकिस्तान के लॉ एंड जस्टिस कमीशन (विधि एवं न्याय आयोग) के अनुसार जस्टिस, जज और मजिस्ट्रेट के बीच में इस तरह की अपार असमानताएं हैं. पंजीकृत लीगल प्रैक्टिशनरों में महिलाओं की संख्या सिर्फ 17% है और अभियोजन अधिकारियों में सिर्फ 15% महिलाएं हैं.

महिला जजों में दक्षिण एशिया पीछे

पाकिस्तान के साथ-साथ पड़ोसी देशों में भी वरिष्ठ न्यायाधीशों के बीच महिलाओं का प्रतिनिधित्व कम ही देखा जाता है. हाईकोर्ट की वकील रिदा ताहिर ने डीडब्ल्यू को बताया, "पूरे दक्षिण एशियाई क्षेत्र में न्यायिक प्रशासन में महिलाओं का अनुपात बेहतर नहीं है. इस क्षेत्र में 10% से भी कम महिला न्यायाधीश हैं. नेपाल में महिला जजों और वकीलों की संख्या दसवें हिस्से से भी कम है, जबकि भारत के हाईकोर्ट में महज 13 प्रतिशत महिला जजों का ही प्रतिनिधित्व है."

हालांकि, ताहिर बताती है कि कुछ वर्षों में कई सुधार हुए हैं, लेकिन वाकई में बराबरी की स्थिति तभी कायम होगी, जब न्यायपालिका में महिलाएं आधी हिस्सेदार हो जाएगी.

पाकिस्तान में न्यायाधीशों की नियुक्ति पर संसदीय समिति के सदस्य और सांसद हामिद खान भी इस राय से सहमति जताते हैं. वह कहते हैं, "अमेरिका जैसे विकसित देशों की ऊपरी अदालतों में भी महिलाओं का प्रतिनिधित्व कम है, लेकिन हमारी अदालत में यह संख्या काफी कम है."

कानूनी पेशे में भी महिला वकीलों की खासी कमी है. खासकर क्रिमिनल लॉ जैसे क्षेत्र में, क्योंकि ज्यादातर महिलाएं सिविल लॉ की तरफ रुचि रखती हैं.

पुरानी नामांकन प्रक्रिया

पाकिस्तान में प्रांतीय लोक सेवा आयोग द्वारा आयोजित की जाने वाली परीक्षा को पास करने के बाद ही सिविल जज और न्यायिक मजिस्ट्रेट की नियुक्ति की जाती है. जिला अदालत के लिए जज हाईकोर्ट की परीक्षा या प्रमोशन द्वारा चुने जाते हैं.

उच्चतम न्यायालय के स्तर पर नियुक्ति के लिए पाकिस्तान के न्यायिक आयोग के पैरवी की जरूरत होती है, जिसमें मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता और संसदीय समिति शामिल होती है.

वकील रिदा ताहिर कहती हैं कि यह प्रणाली वरिष्ठता की पुरानी सोच पर आधारित है, जो महिलाओं के करियर में आगे बढ़ने के प्रतिकूल विचार रखते हैं.

वह बताती है कि कैसे नामांकन और प्रमोशन या पदोन्नति की प्रक्रिया अपारदर्शी है. वह कहती हैं कि इच्छुक महिला जजों को अपने काम के साथ-साथ पारिवारिक पहलुओं को भी देखना पड़ता है और महिला वकीलों के लिए गढ़े गए स्टीरियोटाइप यानी दकियानूसी बातों का भी बोझ उठाना पड़ता है.

पाकिस्तान की जड़ों में पितृसत्ता

लाहौर हाईकोर्ट में रहीं सेवानिवृत्त न्यायाधीश नासिर जावेद इकबाल कहती हैं कि देश की न्यायिक प्रणाली में लैंगिक असमानता का मुख्य कारण पितृसत्ता है.

वह कहती हैं, "हमारा समाज पुरुष प्रधान है. शीर्ष पर बैठे पुरुष महिलाओं को अपने बराबर नहीं देख सकते. हमें इंसान नहीं, बल्कि एक वस्तु समझकर उसी तरीके का व्यवहार करते हैं."

वह आगे कहती हैं, "आप खुद देखिए. बेनजीर भुट्टो के बतौर महिला प्रधानमंत्री बनने के बाद ही हाईकोर्ट में हमें महिला जज मिलीं, जबकि सुप्रीम कोर्ट में पहली महिला महज दो साल पहले ही आईं. हमारे समाज में गहरी जड़ें जमा चुकी पितृसत्ता दिखाने के लिए यह काफी है.”

संसद की लॉ एंड जस्टिस कमेटी के अली जफर कहते हैं कि कोर्ट में महिलाओं की कम संख्या पर कानूनविदों का ध्यान अब तक नहीं गया है. वह यह भी कहते हैं कि यह उन वकीलों की भी जिम्मेदारी है, जो महिलाओं के लिए सही माहौल बनाने में नाकाम रहे.

वह कहते हैं, "कोर्ट में महिलाओं की शारीरिक उपस्थिति भी तब एक मुद्दा बन जाती है, जब अदालत लोगों से खचाखच भरी होती हैं और महिला वकीलों के पास अपने मामले पर बहस करने के लिए कोई सही जगह नहीं मिलती है. तब इस तरह की परेशानियां महिलाओं को न्यायिक क्षेत्र में आने के लिए हिम्मत नहीं दे पातीं.”

क्या आरक्षण से बनेगी बात?

न्यायपालिका में कनिष्ठ और वरिष्ठ स्तर पर लैंगिक असमानता बढ़ने के साथ-साथ पाकिस्तान में न्यायिक नियुक्तियों में आरक्षण की मांग भी बढ़ रही है. हालांकि, इस पर लोगों की राय बंटी हुई है.

सेवानिवृत्त न्यायाधीश नासिरा जावेद इकबाल न्यायिक नियुक्तियों में महिलाओं के विशेष निर्धारण का समर्थन करती हैं. लेकिन खालिदा रचिद खान मेरिट पर आधारित सिस्टम की बात करती हैं, जहां पुरुषों और महिलाओं को उच्च पदों के लिए बराबर का मौका मिले.

माहीन परचा पाकिस्तान के मानवाधिकार आयोग की प्रवक्ता और स्वतंत्र वाचडॉग (कार्यकर्ता) हैं. वह कहती हैं कि पाकिस्तान की बेंच और बार में लैंगिक असमानता के कारण कानूनी समुदाय में संगठनात्मक भेदभाव और अनौपचारिक लिंगभेद से निपटने के लिए सक्रिय और दूरगामी नजरिए की जरूरत है.

उन्होंने डीडब्ल्यू से कहा, "इसके लिए सक्षम महिलाओं की नियुक्ति आवश्यक होगी, जिनकी किसी भी लिहाज से कोई कमी नहीं है. उन्हें पाकिस्तान न्यायिक आयोग जैसे नीति-निर्माण से जुड़े पदों पर आसीन करना होगा. कानूनी पेशे के लिए संसाधनों का निवेश करना होगा, जिसमें शिक्षा, प्रशिक्षण और पेशेवर विकास के लिए जरूरी अन्य मौके शामिल हों, जो विभिन्न क्षेत्रों और वर्गों की महिलाओं के लिए सहज उपलब्ध हों.”

अपनी बात में उन्होंने यह भी जोड़ा, "इसके अलावा विवादों से बचने के लिए नामांकन और नियुक्ति प्रक्रिया अधिक पारदर्शी और लोकलांत्रिक बनी जानी चाहिए.”

वहीं माहीन के मुताबिक बेंच यानी वकीलों की बिरादरी में महिलाओं का अधिक जुड़ाव संवेदनदशील समूहों के पीड़ितों और याचियों के लिए अदालतों तक पहुंच को बेहतर बनाएगा. साथ ही, इससे न्यायपालिका में जनता का भरोसा भी स्वाभाविक रूप से बढ़ेगा.

आरएम/वीएस