जर्मनी में पारिवारिक स्वामित्व वाले कारोबारों को उत्तराधिकारी की तलाश करने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है. इन कंपनियों के ज्यादातर मुखिया सेवानिवृत हो रहे हैं और अगली पीढ़ी इन्हें संभालने में दिलचस्पी नहीं दिखा रही है.जर्मनी के कारोबारी क्लाउस एबरहार्ट को जब इस बात का पता चला कि उनके बच्चे उस टेक्नोलॉजी फर्म 'इटेरेटेक' को चलाने में दिलचस्पी नहीं रखते हैं जिसकी उन्होंने स्थापना की थी, तो उनके दिमाग में एक अपरंपरागत और खास विचार आया. उन्होंने अपने फर्म को किसी निवेशक को बेचने के बजाय, अपने कर्मचारियों से कहा कि वे सब मिलकर इसे खरीद लें.
65 वर्षीय एबरहार्ट ने डीडब्ल्यू से कहा, "अगर मैं सिर्फ पैसे के लिए अपनी फर्म इटेरेटेक को बेच देता, तो मुझे काफी ज्यादा आत्मग्लानि होती." जर्मनी के म्यूनिख शहर में स्थित यह आईटी फर्म अब सामूहिक रूप से 350 सदस्यों की एक सहकारी संस्था के स्वामित्व में है. ये लोग पहले एबरहार्ट के कर्मचारी हुआ करते थे. यह फर्म कार निर्माता कंपनी बीएमडब्ल्यू और जर्मनी की राष्ट्रीय रेल संचालक डॉयचे बान जैसे ग्राहकों को सॉफ्टवेयर उपलब्ध कराती है.
सिर्फ एबरहार्ट ही एकमात्र ऐसे जर्मन कारोबारी नहीं हैं जो उत्तराधिकारी खोजने की समस्या से जूझ रहे हैं. सरकारी स्वामित्व वाले जर्मन विकास बैंक ‘केएफडब्ल्यू' की हालिया रिपोर्ट के मुताबिक, इस देश में लगभग 70 फीसदी छोटे और मध्यम आकार के उद्योग (एसएमई) मालिकाना हक के उत्तराधिकार की समस्या से जूझ रहे हैं. दूसरे शब्दों में कहें, तो उनके लिए अपने कारोबार को अगली पीढ़ी को सौंपना एक बड़ी समस्या बन गई है.
आम तौर पर पारिवारिक स्वामित्व वाली इन छोटी और मझोली कंपनियों को मिटेलस्टांड कहा जाता है. जर्मनी में मिटेलस्टांड की आर्थिक विकास और रोजगार में अहम भूमिका है. इन्हें जर्मन अर्थव्यवस्था की रीढ़ माना जाता है. ‘मेड इन जर्मनी' नारे को ये कंपनियां चरितार्थ करती हैं. इनके प्रॉडक्ट को गुणवत्तापूर्ण, विश्वसनीय और स्थिर माना जाता है. पहले, एसएमई पूरे उद्योग का नेतृत्व कर सकते थे, लेकिन अब हालात ऐसे बन गए हैं कि उन्हें ऐसे लोगों को खोजने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है जो उनका नेतृत्व कर सकें.
पीढ़ीगत बदलाव का असर
जर्मनी में जनसांख्यिकीय बदलाव और उत्तराधिकारियों की दिलचस्पी में कमी के कारण, पारिवारिक स्वामित्व वाले कारोबारों को चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है. हर तीन में से एक कारोबार मालिक की उम्र 60 वर्ष से ऊपर हो चुकी है. इसलिए, कंपनियों में शीर्ष पदों पर मौजूद बेबी बूम जनरेशन यानी 1946 से 1964 के बीच जन्मे लोग बड़ी संख्या में सेवानिवृत हो रहे हैं.
पारंपरिक रूप से, परिवार के सदस्य ही कारोबार संभालते थे, क्योंकि विरासत में कारोबार मिलना ‘गोल्डन टिकट' माना जाता था, लेकिन अब ऐसा लगता है कि यह बोझ बन गया है.
कैरोलिन (बदला हुआ नाम) भी नई पीढ़ी की एक ऐसी ही युवा महिला हैं. दक्षिणी जर्मनी में अपने पारिवारिक टेक्नोलॉजी फर्म की संभावित उत्तराधिकारी कैरोलिन को ऑटो-इंडस्ट्री सप्लायर बॉश के लिए इलेक्ट्रॉनिक कॉम्पोनेंट बनाने वाले अपने पारिवारिक कारोबार के भविष्य को लेकर काफी अनिश्चितता है. भले ही उनकी कंपनी बाजार में पूरी तरह से स्थापित हो चुकी है, लेकिन कैरोलिन को ऐसी कंपनी संभालने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखती जिसके उत्पादों को लेकर उन्हें डर है कि आने वाले समय में इनकी जरूरत खत्म हो सकती है.
उन्होंने डीडब्ल्यू से कहा, "हमें नहीं पता कि जर्मनी में कारोबार के तौर पर खुद का अस्तित्व किस तरह बचाए रखना है. हमारे ग्राहक अच्छी तरह जानते हैं कि जर्मन तकनीक अब खास नहीं रही. चीन में इसी तरह का प्रॉडक्ट बनाना ‘काफी सस्ता' होगा."
बहुत से जर्मन युवा अपने पारिवारिक कारोबार को संभालना नहीं चाहते हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि यह बहुत जोखिम भरा है और वे अन्य कंपनियों के साथ प्रतिस्पर्धा नहीं कर पाएंगे. इसलिए, न तो कैरोलिन और न ही उनकी बहन अपने माता-पिता के सेवानिवृत होने पर कारोबार संभालने की योजना बना रही हैं. यह स्थिति पारिवारिक स्वामित्व वाले किसी एक कारोबार की नहीं है, बल्कि पूरे देश में ऐसी स्थिति देखने को मिल रही है.
आईएफओ इकोनॉमिक थिंक टैंक के मुताबिक, सर्वे में शामिल 40 फीसदी से अधिक पारिवारिक स्वामित्व वाली कंपनियों को अभी तक अपने ही परिवार में उत्तराधिकारी नहीं मिला है.
क्या खतरे से जूझ रही है युवा पीढ़ी?
जर्मन एसोसिएशन फॉर स्मॉल एंड मीडियम-साइज्ड एंटरप्राइजेज (डीएमबी) में उत्तराधिकार मामलों के विशेषज्ञ बेंजामिन शॉफर इस बात से भली-भांति वाकिफ हैं. वे कंपनियों के मालिकाना हक को व्यवस्थित तरीके से बदलने के बारे में सलाह देते हैं. शॉफर ने डीडब्ल्यू से कहा, "काफी ज्यादा संभावनाओं के बावजूद, जर्मनी का कारोबारी माहौल युवाओं को ज्यादा आकर्षित नहीं कर पा रहा है."
उन्होंने इशारा किया कि कंपनियों पर बहुत ज्यादा टैक्स लगाया जा रहा है, ऊर्जा के दाम बहुत बढ़ गए हैं, और जर्मन कंपनियां दूसरे देशों की कंपनियों से मुकाबला नहीं कर पा रही हैं. उन्होंने आगे कहा कि इसके अलावा, जर्मनी और यूरोपीय संघ में ‘नौकरशाही, कानून, और रेगुलेशन का भंवर जाल' भी है जो कारोबार से जुड़ी लंबे समय की योजना बनाने में मुश्किल पैदा करता है.
शॉफर ने बताया, "कई कंपनियों को नियमों और वित्तीय विकल्पों की उलझन से बाहर निकलने के लिए विशेषज्ञों को नियुक्त करने की जरूरत होती है.” उन्होंने मौजूदा नियमों को ‘जंगल' बताया, खासकर तब जब सरकार द्वारा धन मुहैया कराने वाले कार्यक्रमों से फायदा लेने की बात आती है. ये कार्यक्रम कारोबारियों की मदद के लिए तैयार किए जाते हैं, लेकिन अक्सर बहुत जटिल होते हैं.
अपनी रिपोर्ट में केएफडब्ल्यू बैंक ने संभावित उत्तराधिकारियों के लिए नौकरशाही से जुडी मुश्किलों को भी एक बाधा के रूप में उल्लेख किया है. साथ ही, ‘परिवार के युवा सदस्यों की दिलचस्पी में कमी' को पारिवारिक कारोबार छोड़ने का मुख्य कारण बताया गया है.
कौशल और गंभीरता की कमी
मोरित्स का मानना है कि ज्यादातर युवा लोग अपने हाथ गंदे करने के बजाय विश्वविद्यालय जाना पसंद करते हैं. 29 वर्षीय मोरित्स का परिवार 300 से ज्यादा वर्षों से फर्नीचर बनाने के व्यवसाय में है. वहीं, अपने पूर्वजों के विपरीत मोरित्स और उनके बच्चों को फर्नीचर कंपनी संभालने के लिए कभी प्रोत्साहित नहीं किया गया. मोरित्स फर्नीचर कारोबार के बुनियादी कौशल सीखने के बजाय विश्वविद्यालय गए और दुनिया भर की यात्रा की.
फिलहाल, मोरित्स के चाचा उनके पारिवारिक कारोबार को संभाल रहे हैं. हालांकि, वे जल्द ही सेवानिवृत होने की योजना बना रहे हैं. परिवार अब इस दुविधा में है कि कारोबार को कौन संभालेगा. मोरित्स के पास कारोबार संभालने के लिए जरूरी व्यावहारिक कौशल और औपचारिक अनुभव की कमी है. मोरित्स खुद की आलोचना करते हुए स्वीकार करते हैं, "मैंने कई महाद्वीपों की यात्रा की और विश्वविद्यालय से डिग्री हासिल की, लेकिन कभी भी लकड़ी का एक टुकड़ा नहीं काटा है."
आशा की किरण
वहीं दूसरी ओर, जब बेनी हान को उस सॉफ्टवेयर कंपनी में कार्यकारी की भूमिका की पेशकश की गई जहां वे काम करते थे, तो उन्होंने किसी तरह का संकोच नहीं किया. पूर्व मालिक के किसी भी उत्तराधिकारी ने नौकरी करने की इच्छा नहीं जताई और हान ने 27 साल की उम्र में इस अवसर को लपक लिया.
उन्हें लगता है कि वे एक ‘मार्गदर्शक' हैं क्योंकि उन्होंने तथाकथित सर्च फंड मॉडल अपनाया है. इस मॉडल की खोज, अमेरिका स्थित स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने की है. इससे युवा उद्यमियों को किसी कारोबार को शुरू से खड़ा करने के बजाय, मौजूदा कारोबार को हासिल करने की अनुमति मिलती है.
हान ने कहा कि उनकी सबसे बड़ी चुनौती जर्मन बैंकों को इस बात के लिए राजी करना था कि वे उनकी मदद करें. उन्होंने डीडब्ल्यू को बताया, "कई बैंकों ने मेरे प्रस्ताव को ठुकरा दिया क्योंकि वे हमारे कारोबारी मॉडल को समझ ही नहीं पाए. वे चाहते थे कि हम सिक्योरिटी के तौर पर उन्हें मशीन जैसी चीजें दें, लेकिन हमारी सबसे कीमती चीज सॉफ्टवेयर थी. कई संस्थानों को अपनी यह मानसिकता खत्म करनी चाहिए कि हम हमेशा ऐसा ही करते हैं."
हालांकि, बड़ा सवाल यह है कि क्या जर्मनी में इतने युवा होंगे जो देश की आर्थिक रीढ़ को सीधा और मजबूत रखने की चुनौती लेने के लिए तैयार और सक्षम होंगे. स्टुटगार्ट के पास कारों के पुर्जे बनाने वाली कंपनी की संभावित उत्तराधिकारी कैरोलिन ने कहा कि अगर बेहतर मार्गदर्शन मिले, तो हालात में काफी हद तक सुधार हो सकता है. उन्होंने कहा, "अगर यह कम जोखिम भरा लगता, तो मैं व्यवसाय संभाल लेती."
फर्नीचर कारोबार के संभावित उत्तराधिकारी मोरित्स के विचार भी कैरोलिन से मिलते-जुलते हैं. उन्होंने कहा, "लकड़ी की कारीगरी का हुनर सीखने में मुझे कम से कम सात साल लगेंगे. साथ ही, मुझे डिप्लोमा भी पूरा करना होगा. मेरे पास अभी भी कुछ नया करने और सीखने का समय है.”