
Andes Plane Crash 1972: सोचिए, आप एक हवाई जहाज़ में बैठे हैं, दोस्तों के साथ हंस-खेल रहे हैं और अपनी मंज़िल पर पहुँचने का इंतज़ार कर रहे हैं. लेकिन अचानक जहाज़ ज़ोर से हिलने लगता है और कुछ ही पलों में सब कुछ बदल जाता है. यह किसी फ़िल्म की कहानी नहीं, बल्कि एक सच्ची घटना है, जिसे 'एंडिस विमान हादसे' के नाम से जाना जाता है. यह कहानी इंसानी हिम्मत और जीने की ज़बरदस्त इच्छा की एक अविश्वसनीय मिसाल है.
क्या हुआ था उस दिन?
यह बात है 13 अक्टूबर, 1972 की. उरुग्वे की एक रग्बी टीम 'ओल्ड क्रिश्चियंस क्लब' के खिलाड़ी, उनके परिवार वाले और दोस्त एक चार्टर्ड जहाज़ में बैठकर चिली जा रहे थे. जहाज़ में कुल 45 लोग सवार थे. सफ़र के दौरान एंडिस पर्वत श्रृंखला के ऊपर मौसम बेहद ख़राब हो गया. घने बादलों और तेज़ हवाओं के कारण पायलट को अंदाज़ा नहीं लगा और जहाज़ एक बर्फीले पहाड़ से टकरा गया.
टक्कर इतनी ज़ोरदार थी कि जहाज़ के दो टुकड़े हो गए. कुछ लोग टक्कर के दौरान ही मारे गए, और बाकी लोग बर्फ़ीली चोटियों के बीच, हज़ारों फ़ीट की ऊँचाई पर जा गिरे.
ज़िंदगी की सबसे मुश्किल लड़ाई
जब होश आया, तो बचे हुए लोगों ने ख़ुद को एक ऐसी जगह पाया जहाँ दूर-दूर तक सिर्फ़ बर्फ़ और पहाड़ थे. तापमान शून्य से कई डिग्री नीचे था. उनके पास न तो गर्म कपड़े थे और न ही खाने-पीने का कोई सामान.
शुरुआत में, उन्हें लगा कि बचाव दल जल्द ही आ जाएगा. उन्होंने जहाज़ के मलबे में मिले कुछ चॉकलेट और स्नैक्स से गुज़ारा किया. कुछ दिनों बाद, उन्हें एक ट्रांजिस्टर रेडियो मिला, जिस पर उन्होंने एक दिल दहला देने वाली ख़बर सुनी. ख़बर थी कि बचाव अभियान बंद कर दिया गया है क्योंकि किसी के भी ज़िंदा बचने की कोई उम्मीद नहीं है.
यह सुनना किसी सदमे से कम नहीं था. अब वे समझ गए थे कि अगर ज़िंदा रहना है, तो उन्हें ख़ुद ही कुछ करना होगा.
साथियों के शवों का मांस खाना पड़ा
दिन बीतते गए, भूख और ठंड से लोगों की मौत होने लगी. ज़िंदा रहने के लिए खाना सबसे बड़ी चुनौती बन गया. जब खाने के लिए कुछ नहीं बचा, तो उन्होंने ज़िंदगी का सबसे मुश्किल और दर्दनाक फ़ैसला लिया. ज़िंदा रहने के लिए, उन्हें अपने उन साथियों के शवों का मांस खाना पड़ा जो मर चुके थे. यह फ़ैसला लेना किसी के लिए भी आसान नहीं था, लेकिन जीने की इच्छा ने उन्हें ऐसा करने पर मजबूर कर दिया. उन्होंने एक समझौता किया कि अगर उनमें से कोई मर जाता है, तो बाकी लोग ज़िंदा रहने के लिए उसके शरीर का इस्तेमाल कर सकते हैं.
इस बीच, एक बर्फीले तूफ़ान (एवलांच) ने उनके अस्थायी ठिकाने को भी तबाह कर दिया, जिसमें 8 और लोगों की जान चली गई.
मदद की तलाश में निकले दो हीरो
लगभग दो महीने बीत जाने के बाद, जब लगा कि अब कोई उम्मीद नहीं बची है, तो दो बहादुर यात्रियों, नैंडो पैराडो और रॉबर्टो कनेसा ने मदद की तलाश में यहाँ से निकलने का फ़ैसला किया. बिना किसी ख़ास उपकरण या अनुभव के, वे बर्फीले पहाड़ों पर चढ़ने लगे. यह एक आत्मघाती मिशन जैसा था, लेकिन यही आख़िरी उम्मीद थी.
लगभग 10 दिनों तक चलने के बाद, जब वे पूरी तरह थक चुके थे, उन्हें एक नदी के किनारे एक आदमी दिखाई दिया. वह चिली का एक चरवाहा था. भाषा की बाधा के बावजूद, उन्होंने उसे अपनी कहानी समझाई. उस चरवाहे ने अधिकारियों को सूचित किया.
बचाव और एक नई सुबह
इसके बाद, हेलीकॉप्टरों से बचाव अभियान शुरू किया गया. 72 दिनों तक मौत से लड़ने के बाद, 16 लोगों को ज़िंदा बचाया गया. जब दुनिया को उनकी कहानी पता चली, तो लोग हैरान रह गए. कुछ ने उनके फ़ैसले की आलोचना की, तो वहीं ज़्यादातर लोगों ने उनकी हिम्मत और जीने की ज़बरदस्त इच्छाशक्ति को सलाम किया.
यह कहानी सिर्फ़ एक विमान हादसे की नहीं है, बल्कि यह इंसानी सहनशक्ति, दोस्ती और मुश्किल हालात में लिए गए कठिन फ़ैसलों की कहानी है. यह हमें सिखाती है कि उम्मीद का दामन कभी नहीं छोड़ना चाहिए, चाहे हालात कितने भी मुश्किल क्यों न हों.