Veer Sawarkar Death Aniversary 2022: क्या सावरकर सचमुच कायर थे? जानें किसने उन्हें ‘वीर’ की उपाधि दी? और क्यों उन्होंने इच्छा-मृत्यु चाहा था? साथ ही उनके जीवन के कुछ और रोचक प्रसंग!
विनायक दामोदर सावरकर (Photo Credits: file image)

महान स्वतंत्रता सेनानी और हिंदुत्ववादी चिंतक विनायक दामोदर सावरकर का संपूर्ण जीवन किसी भी देश-भक्त के लिए प्रेरणा स्त्रोत कहा जायेगा. वे पहले क्रांतिकारी थे, जिन्होंने विदेशी कपड़ों की होली जलाई थी, वे अकेले क्रांतिकारी थे, जिन्हें ब्रिटिश हुकूमत ने दो बार काला पानी की सजा सुनाई. उनके अदम्य साहस एवं धैर्य का लोहा अंग्रेज अधिकारी भी मानते थे. वीर सावरकर की 55वीं पुण्य-तिथि के अवसर पर प्रस्तुत है उनके जीवन से जुड़े कुछ रोचक एवं रोमांचक प्रसंग..

प्रारंभिक जीवन

सावरकर का जन्म 28 मई 1883 को देवलाली स्थित भगूर गांव में हुआ था. पिता दामोदर पंत सावरकर गांव के प्रतिष्ठित व्यक्ति थे. माँ राधाबाई सामान्य गृहिणी थीं. विनायक जब 9 साल के थे, मां का देहांत हो गया. वे बचपन से पढ़ाकू प्रवृत्ति के थे. उन्होंने नासिक स्थित शिवाजी हाईस्कूल से 1901 में मैट्रिक परीक्षा पास की. लंदन प्रवास के दौरान उनकी मुलाकात लाला हरदयाल से हुई. मदनलाल धींगरा को फांसी दिए जाने के बाद सावरकर ने धींगरा के लिखित बयान के पर्चे बांटकर ब्रिटिश हुकूमत के साथ खुली जंग का एलान कर दिया था. 1909 में लिखी पुस्तक 'द इंडियन वॉर ऑफ इंडिपेंडेंस-1857' में सावरकर ने इसे ब्रिटिश सरकार के खिलाफ आजादी की पहली लड़ाई घोषित किया, जिसकी प्रशंसा भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद जैसे क्रांतिकारियों ने भी की थी.

जब तिलक ने की प्रशंसा, और गांधी ने की थी निंदा!

ब्रिटिश प्रशासन द्वारा विदेशी कपड़ों के आयात बढ़ाने और देशी कपड़ा मिलों के बंद होने का विरोध करने वाले सावरकर पहले क्रांतिकारी थे. उन्होंने पूना (अब पुणे) में 6 अक्टूबर 1906 को विदेशी कपड़ों की होली जलाई थी. उनके इस कृत्य की प्रशंसा करते हुए बाल गंगाधर तिलक ने अपने समाचार पत्र ‘केसरी’ में उन्हें शिवाजी तुल्य बताकर प्रशंसा की थी, जबकि इस घटना की दक्षिण अफ्रीका के अपने पत्र ‘इंडियन ओपीनियन’ में महात्मा गांधी ने निंदा की थी.

महारानी विक्टोरिया की शोक सभा का विरोध!

अंग्रेजी हुकूमत की छद्म एवं नृशंस कृत्यों के कारण सावरकर ब्रिटिश हुकूमत की धज्जियां उड़ाने का एक पल भी नहीं छोड़ते थे. साल 1901 में ब्रिटिश महारानी विक्टोरिया की मृत्यु पर नासिक में शोक सभा का आयोजन किया गया. सावरकर ने इस शोक सभा का विरोध करते हुए कहा कि विक्टोरिया हमारे देश की नहीं ब्रिटेन की महारानी थीं, उनकी मौत पर हम क्यों शोक सभा करें? क्या कभी किसी भारतीय महापुरुष की मृत्यु पर ब्रिटेन में शोक सभा का आयोजन किया गया? यह भी पढ़ें : Shabari Jayanti 2021: भगवान राम की परम भक्त थीं माता शबरी, जानें शुभ मुहूर्त, महत्व और इससे जुड़ी पौराणिक कथा

सावरकर को इन्होंने दी 'वीर' की उपाधि?

एक बार कांग्रेस के संदर्भ में सावरकर के एक बयान के बाद कांग्रेस ने उन्हें ब्लैकलिस्ट कर दिया. सावरकर जहां भी जाते कांग्रेसी उनका विरोध करते. उन्हीं दिनों (1936) एक मशहूर पत्रकार, शिक्षाविद, लेखक, कवि, नाटककार एवं फिल्म अभिनेता पीके अत्रे जो सावरकर से बहुत प्रभावित थे, उनके पक्ष में खड़े हुए. उन्होंने पुणे स्थित अपने बालमोहन थियेटर में सावरकर को सम्मानित करने का फैसला किया. कांग्रेसियों ने सावरकर के खिलाफ पर्चे बांटे, और काले झंडे दिखाने की धमकी दी. लेकिन अत्रे ने कार्यक्रम का आयोजन किया. उन्होंने कहा, जो इंसान काला पानी से नहीं डरा, वह काले झंडों से क्यों डरेगा? अत्रे ने सावरकर को निडर देशभक्त बताते हुए ‘स्वातंत्र्यवीर’ की उपाधि दिया. दरअसल सावरकर ने काला पानी सजा के दरम्यान 1857 की क्रांति एक पुस्तक '1857 चे स्वातंत्र्य समर' लिखा. इसी पुस्तक के नाम से अत्रे ने सावरकर को 'स्वातंत्र्यवीर' नाम दिया था. अत्रे ने कहा कि 'महाराष्ट्र में ध्यानेश्वर के बाद सावरकर से ज़्यादा मेधावी कोई नहीं है.

'सावरकर ने जीत लिया था पुणे'

अत्रे के भाषण और सावरकर को ‘स्वातंत्र्यवीर’ की उपाधि दिए जाने के बाद बाल मोहन सभागार में उपस्थित दर्शकों ने खड़े होकर करतल ध्वनि के साथ देर तक तालियां बजाकर अत्रे के फैसले का स्वागत किया. इसके बाद लगभग डेढ़ घंटे तक सावरकर ने इतना ओजस्वी भाषण दिया कि लोग मंत्र-मुग्ध होकर रह गये. बाद में अत्रे ने ही अपने एक लेख में लिखा कि उस भाषण का करिश्मा था कि 'सावरकर ने पुणे फतह कर लिया था'. दरअसल कांग्रेस के विरोध का जवाब देकर सावरकर की लोकप्रियता और कांग्रेस की उनके प्रति वैमनस्यता जग ज़ाहिर हो गई थी.

सावरकर ने क्यों चुनी इच्छा मृत्यु!

सावरकर ने 1964 में 'आत्महत्या या आत्मसमर्पण' शीर्षक से एक लेख लिखा था, जिसमें उन्होंने इच्छा-मृत्यु का समर्थन करते हुए स्पष्ट किया था कि आत्म-हत्या और आत्म-त्याग के बीच महत्वपूर्ण फर्क होता है. जनवरी 1966 से उन्होंने कड़ा उपवास रखना शुरु किया. लिहाजा वे शारीरिक रूप से कमजोर होते गये. आखिरी दिनों में उन्होंने दवाइयां लेनी भी बंद कर दी थी. 26 फरवरी 1966 में 83 वर्ष की आयु में उन्होंने देह त्याग दिया. उन्होंने तर्क दिया था कि एक निराश इंसान आत्महत्या से अपना जीवन समाप्त करता है लेकिन जिसके जीवन का मिशन पूरा हो चुका हो और शरीर इतना कमजोर हो कि जीना असंभव हो तो जीवन का अंत करने को स्व-बलिदान कहा जाना चाहिए.