World Population Day 2020: बढ़ती जनसंख्‍या से शहरों पर बढ़ रहा है दबाव, स्वास्थ्‍य-शिक्षा और जीविका के लिए एक बड़ी चुनौती
जनसंख्‍या (Photo Credits: Facebook)

World Population Day 2020: दुनिया के सभी देशों में लोगों को जनसंख्‍या के प्रति जागरूक करने के प्रयास को समर्पित है विश्‍व जनसंख्‍या दिवस (World Population Day). संयुक्त राष्‍ट्र के नेतृत्‍व में यह दिवस 11 जुलाई को मनाया जाता है. इस दिवस को मनाने का उद्देश्‍य केवल जनसंख्‍या के प्रति लोगों को जागरूक करना मात्र नहीं है, बल्कि ऐसे लोग जो जरूरी सुविधाओं से वंचित हैं, ऐसे लोग जिनके स्वास्थ्‍य, शिक्षा और जीविका पर ध्‍यान देने की जरूरत है, उनके लिए कुछ करने की चाह को भी बल देना है. इस दिवस को मनाने का उद्देश्‍य लोगों को अनियंत्रित ढंग से बढ़ने वाली जनसंख्‍या के परिणामों के प्रति जागरूक करना है. इसमें कोई शक नहीं, कि कम जनसंख्‍या घनत्व वाले क्षेत्रों का विकास ज्‍यादा तेजी से होता है, कम जनसंख्‍या वाले क्षेत्रों में बीमारी कम फैलती है और कम जनसंख्‍या घनत्व वाले क्षेत्रों में भोजन, पानी, शिक्षा, स्वास्थ्‍य जैसी मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध कराना आसान होता है.

संयुक्त राष्‍ट्र ने पहली बार 11 जुलाई 1987 को विश्‍व जनसंख्‍या दिवस मनाने का निर्णय लिया और उसके ठीक दो वर्ष बाद यानी 11 जुलाई 1989 को पहला विश्‍व जनसंख्‍या दिवस मनाया गया. अगर दुनिया की आबादी की बात करें तो 1804 में दुनिया की जनसंख्‍या 1 बिलियन यानी 100 करोड़ हुई. 1927 में दो बिलियन, 1960 में 3 बिलियन, 2000 में 6 बिलियन. यानी महज 40 वर्ष में दुनिया की आबादी दुगनी हो गई. वहीं 24 अप्रैल 2017 को विश्‍व की जनसंख्‍या 7.5 बिलियन हो गई.

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1947 के भारत और आज के भारत में कितना फर्क

स्‍वतंत्रता मिलने के बाद एक देश के रूप में भारत ने पिछले 72 वर्षो में चहुमुखी विकास किया है. 1947 के भारत और 2020 के भारत में जमीन आसमान का अंतर है. अनाज और अन्‍य जरूरी वस्‍तुओं के उत्‍पादन में आज भारत आत्‍मनिर्भर है. जीडीपी में भी अमेरिका, चीन, जापान और जर्मनी के बाद भारत का नम्‍बर 5वां है. जबकि वैश्‍विक जीडीपी में भारत का हिस्‍सा 8 प्रतिशत है और इसका स्‍थान चीन (19 प्रतिशत) और अमेरिका (15 प्रतिशत) के बाद तीसरा है.

भारत की जनसंख्‍या इस समय लगभग 135 करोड़ है. आजादी के बाद से इसमें करीब 100 करोड़ की बढ़ोतरी हुई है. जबकि जमीन वही है. देश के क्षेत्रफल में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है. जनसंख्‍या की दृष्टि से चीन के बाद भारत का दूसरा नंबर आता है. जबकि क्षेत्रफल की दृष्टि से इसका नम्‍बर रूस, कनाडा, अमेरिका, चीन और आस्‍ट्रेलिया के बाद 7वां है. भारत की जनसंख्‍या यूरोप के सारे देशों की जनसंख्‍या से अधिक है.

देश की राजधानी दिल्‍ली की जनसंख्‍या लगभग 1.30 करोड़ है. अगर राष्‍ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) की बात करें, जिसमें गाजियाबाद, नोएडा, फरीदाबाद और गुड़गांव भी शामिल हैं, तो यह संख्‍या 2 करोड़ से ऊपर पहुंच जाती है. आज सब अच्‍छा खा रहे हैं. भरपेट खा रहे हैं. अच्‍छा पहन रहे हैं. नई से नई सुविधाएं पा रहे हैं.

शहरों पर बढ़ रहा दबाव

शहरों पर जनसंख्‍या का दबाव बढ़ने का सबसे बड़ा कारण माइग्रेशन यानी पलायन रहा है. यही कारण है कि शहरों की आबादी गांवों की तुलना में बहुत अधिक है. आबादी का घनत्व भी कई गुना ज्यादा है. सबसे अहम बात यह है कि शहरों में अधिक लोग आ जाने से की वजह से कई शहरों की व्‍यवस्‍था चरमरा जाती है. भोजन, आवास, पेयजल, शिक्षा, परिवहन तथा स्‍वास्‍थ्‍य जैसी सुविधाएं कम पड़ जाती हैं. शहरों में भीड़ बढ़ जाने से यहां के पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने लगता है, जैसा कि हम दिल्ली, कोलकाता, चेन्नई, मुंबई की हवा में बढ़ते वायु प्रदूषण के रूप में देख भी रही हैं.

अब अगर छोटे विकसित देशों की बात करें तो आप साफ पाएंगे कि इन देशों की जीवन शैली बेहतर होने का सबसे बड़ा कारण इनकी सीमित जनसंख्‍या है. यूरोप के कुछ बड़े देशों की कुल जनसंख्‍या हमारे बड़े शहरों से भी कम है. स्‍वीडन जिसका क्षेत्रफल 4 लाख वर्ग किलोमीटर से अधिक है जबकि की कुल जनसंख्‍या लगभग 1 करोड़ है. हंगरी की 96 लाख है. स्विटजरलैंड की 86 लाख है. बुल्‍गारिया की 69 लाख है. डेनमार्क की 58 लाख है. नार्वे की 54 लाख है. न्‍यूजीलैंड की 48 लाख है. जबकि हमारे देश के शहर दिल्‍ली - 1.30 करोड़ (राष्‍ट्रीय राजधानी क्षेत्र – लगभग 2 करोड़), मुम्‍बई – 1.40 करोड़, बेंगंलूरू – 50 लाख, और कोलकाता की आबाी लगभग 48 लाख है.

जनसंख्‍या पर नियंत्रण करने के लिए प्रायसरत भारत

भारत अपनी जनसंख्‍या को स्थिर करने के प्रयत्‍न में लगा हुआ है. फर्टीलिटी रेट कम हो रहा है. वर्ष 2007 में एक महिला औसतन 2.82 बच्‍चों की जन्‍म देती थी जबकि वर्ष 2018 में 2.22 रह गया. इसके साथ ही यहां पर जन्‍म दर जो वर्ष 2008 में 1.46 थी, वर्ष 2018 में आकर 1.04 रह गई. वहीं दूसरी ओर लाइफ एक्‍सपेटेंसी बढ़ गई है. भारत की लाइफ एक्‍सपेटेंसी जो 2007 में 65.35 थी, 2018 में 69.17 हो गई. भारत में जनसंख्‍या का घनत्‍व (एक वर्ग किलोमीटर जगह में रहने वाले लोगों की संख्‍या) जो वर्ष 2008 में 403.83 था, 2018 में बढ़कर 454.94 हो गया. साक्षरता दर भी बढ़ी है. 2007 में 69.3 प्रतिशत जनता साक्षर थी. 2018 में यह दर 74.27 प्रतिशत हो गई.

भारत एक युवा देश है. यहां के नागरिकों की औसत उम्र जो वर्ष 1950 में 21.3 थी, 2020 में आकर 28.4 हो गई. इस प्रकार दुनिया के अन्‍य देशों के मुकाबले भारतीय जनसंख्‍या में युवाओं का प्रतिशत 60 प्रतिशत के लगभग है. जो देश के लिए आशा की किरण जगाती है. दुनिया में कुछ देश ऐंसे भी हैं जहां बुजुर्गों की संख्‍या अधिक है. सबसे अधिक औसम उम्र वाले देशों में मोनाको(53.1), जापान(47.3), जर्मनी (47.1), इटली (45.5) और आस्‍ट्रेलिया (44) आते हैं.

जनसंख्‍या पर कोरोना का प्रभाव

कोविड-19 महामारी के बीच यूनाइटेड नेशन पाप्‍लुलेशन फंड (यूएनएफपीए) ने एक योजना पूरे विश्‍व के समक्ष रखी है, जिसमें यह बताया गया है कि संगठन कैसे पूरे विश्‍व में फैली महामारी के प्रति अपनी जिम्मेदारी को निभा रहा है. संयुक्‍त राष्‍ट्र के ह्यूमेनिटेरियर अफेयर्स कोऑर्डिनेशन समिति, यूएनएफपीए और अन्य एजेंसियों ने सभी से अपील की है कि इस महामारी में संकट से घिरे लोगों की मदद करने के लिए आगे आयें. कोरोना के बीच संगठन ने एक अध्‍ययन कराया, जिसमें पाया गया कि दुनिया की एक बड़ी आबादी कई प्रकार की चुनौतियों से जूझ रही है. इस महामारी ने शिक्षा और कम्‍युनिटी-बेस्ड सेवाओं को बाधित किया है.

कोरोना की वजह से गर्भवती महिलाओं को सुरक्षित डिलिवरी के लिए वो सुविधाएं नहीं मिल पा रही हैं, जो उनको मिलनी चाहिए. यूएनएफपीए के अनुसार अगर कोरोना की वजह से लगाया गया लॉकडाउन 6 महीने तक चलता तो 4.7 करोड़ महिलाओं को गर्भ निरोधक सुविधाएं नहीं मिल पाने की वजह से 70 लाख महिलाएं गर्भवती हो जातीं.

संयुक्‍त राष्‍ट्र ने इस बात की भी चिंता जताई है कि कोरोना की वजह से भारत समेत कई देशों में जनगणना का कार्य रुक गया है. समय पर जनगणना नहीं हो पाने की वजह से विपरीत प्रभाव पड़ सकते हैं. क्योंकि सरकारें जब कोई भी नीति बनाती है या किसी स्कीम की घोषणा करती है, तो उसके पहले भौगोलिक सर्वेक्षण के साथ-साथ देश, राज्य, शहर या गांव की जनसंख्‍या का अध्‍ययन किया जाता है. जाहिर है जब शहरों को लेकर नीति निर्धारण करना होता है, तब चीजें जटिल हो जाती हैं, उनके पीछे सबसे बड़ा कारण शहरों पर पड़ रहा जनसंख्‍या का दबाव और घनी आबादी है.